 |
| “कुछ दरवाज़े बंद इसलिए नहीं रहते… कि कोई आए नहीं, बल्कि इसलिए कि अंदर कुछ जागा हुआ है।” |
सूरज ढलने में अभी वक़्त था, पर आसमान का रंग जाने क्यों हल्का-सा मटमैला हो चुका था।
नागपुर से कुछ दूर, जंगलों के बीच बसा वह छोटा-सा गाँव…
जहाँ दिन भी कभी-कभी रात जैसे महसूस होते।
किए-कपट से दूर, मिट्टी की पगडंडियों पर बने कुछ पुराने घर…
और उन घरों से परे, काली चट्टानों के बीच खड़ी वह हवेली—
पचास साल से बंद।
पचास साल से अभिशप्त।
लोग कहते थे—
"उस हवेली में जो गया, वो लौटकर नहीं आया।"
किसी की जुबान काँपती, किसी की नज़रें झुक जातीं।
पर सब एक ही बात पर अड़े रहते—
“वहाँ कुछ है… जिसका नाम लेना भी ठीक नहीं।”
गाँव के बुजुर्ग भी अब हवेली का ज़िक्र करने से डरते थे।
क्योंकि जितनी घटनाएँ सबको याद थीं…
उतनी ही बातें थीं जिन्हें कोई खुलकर बोलता नहीं था।
गाँव का वह सबसे पुराना घर —
जो कभी सम्पन्नता का निशान था,
अब आधा टूटा हुआ, दीवारें परे-परे से गिरतीं,
और भीतर जमी धूल वर्षों के रहस्य ढँकती रहती।
यह घर कभी वर्मा परिवार का था।
आज भी है — बस लोग इसमें रहते नहीं।
सालों पहले,
इस घर में एक नौकरानी की हत्या हुई थी।
ऐसा कहा गया था कि उसने रात में किसी को कुछ करते देख लिया था।
किसने, क्या — किसी ने नहीं बताया।
फिर उसी हवेली में परिवार का मुखिया गायब हुआ।
वक्त बीता,
और फिर परिवार का सबसे छोटा लड़का गायब हुआ।
उसके बाद परिवार डर गया और सबने वह घर छोड़ दिया।
गाँव वाले मानते थे—
नौकरानी की आत्मा अब भी वहीं है।
आदित्य वर्मा,
करीब २८ साल का, पढ़ा-लिखा, साफ़ सोच वाला,
भूत-प्रेत जैसी चीज़ों पर बिल्कुल भरोसा न करने वाला उस परिवार का लडका।
शहर में पढ़ाई पूरी करके कुछ दिनों के लिए गाँव आया था।
वह हवेली की कहानी जानता था, पर सब उसे झूठ लगता था। पर कोई बात तो थी जो उसके मन में एक बात खटकती थी
उस हवेली का सच क्या था?
क्यों उसका परिवार आज भी उससे नज़रें चुराता है?
क्यों हर किस्सा अधूरा है?
उस दिन दोपहर अजीब थी।
हवा ज़रा भी नहीं चल रही थी…
पेड़ों की पत्तियाँ ठहरी हुईं…
और गाँव के लोग जैसे अनजाने डर से भीतर छुपे हुए।
आदित्य को लगा कि यही सबसे सही वक़्त है—
किसी को बताए बिना पुरानी हवेली देखने का।
वह चुपचाप निकल गया।
पगडंडी के मोड़ पर पहुँचते ही हवेली का ऊपरी हिस्सा दिखा—
टूटी हुई मुंडेरें, पसरी हुई बेलें,
और धूप में भी अँधेरी लगती खिड़कियाँ।
एक पल को लगा जैसे हवेली उसे ही देख रही हो।
 |
| “हर अँधेरा कमरे का अपना सच होता है… बस सुना नहीं जाता।” |
हवेली के बड़े लोहे के दरवाज़े पर जंग जमी थी।
आदित्य ने धक्का दिया—
दरवाज़ा चर्र-चर्र की धीमी, पर लंबी आवाज़ के साथ खुल गया।
अंदर धूल उड़ने लगी।
पहला कदम रखते ही
पाँव के नीचे पुराना फ़र्श थोड़ा धंसा।
माहौल में सीलन, पुराने लकड़ी के तेल की गंध,
और कहीं दूर से आती हल्की-सी खुसर-पुसर जैसी आवाज़ें…
कुछ समझ नहीं आया— हवा? दीमक? या कुछ और?
आदित्य बढ़ता गया।
हवेली के पिछले हिस्से में एक छोटा, अंधेरा कमरा था।
यहीं वह नौकरानी मरी थी।
आदित्य ने दरवाज़ा खोला।
अंदर बस एक टूटा हुआ खाट,
दीवार पर एक पुराना सा दीया का निशान,
और फ़र्श पर काली पड़ चुकी कुछ लकीरें…
हवा जैसे एक पल को बिल्कुल बंद हो गई।
एक ठंडी सनसनाहट उसकी गर्दन से गुज़री।
किसी के चलने जैसी हल्की सी आवाज़ पीछे से आई।
वह पलटा—
कोई नहीं।
कमरा अचानक और तंग लगने लगा।
जैसे ही वह कमरे से बाहर निकला—
ऊपर की मंज़िल पर किसी के तेज़ कदमों की आवाज़ आई।
ठाक… ठाक… ठाक…
तीन कदम— और फिर चुप्पी।
आदित्य का दिल ज़ोर से धड़का।
वह खुद से बोला—
"कोई जानवर होगा… या घर की लकड़ी बैठ रही होगी।"
पर भीतर एक अजीब खिंचाव था।
एक आवाज़ मन में कह रही थी—
ऊपर जाओ।
इस आवाज़ का जवाब न भीतर था, न बाहर…
फिर भी आदित्य सीढ़ियों पर चढ़ने लगा।
ऊपर का लंबा कमरा हमेशा बंद रखा जाता था।
कहते थे—
यह वही जगह है जहाँ परिवार का सबसे छोटा लड़का आखिरी बार देखा गया था।
आदित्य ने दरवाज़ा धक्का देकर खोला।
खिड़की टूटी हुई, पर उजाला बहुत कम…
कमरे में धूल और जाले लगे हुए थे।
फिर भी—
कमरे के बीचों-बीच
मिट्टी पर कोई ताज़ा निशान था…
जैसे कोई ज़रा पहले यहाँ खड़ा हुआ हो।
उसके पाँव रुक गए।
उसी समय पीछे से दरवाज़ा…
धीरे… बहुत धीरे…
खुद-ब-खुद बंद हो गया।
और कमरा अँधेरे में डूब गया।
आदित्य ने गहरी साँस ली।
लेकिन अचानक उसे महसूस हुआ—
अँधेरे में… उसकी अपनी साँस के साथ…
एक और साँस चल रही है।
बहुत धीमी… बहुत पास…
जैसे बिल्कुल उसके कान के पीछे।
वह वहीं जड़ हो गया।
किसी और के कदम…
किसी और की हलचल…
पर आँखों को कुछ भी नज़र नहीं आ रहा।
कमरे में जो था,
वह दिख नहीं रहा था…
पर ज़रूर मौजूद था।
अचानक खिड़की के टूटे हिस्से से एक हल्की रोशनी आई—
और उसी क्षण एक पल भर के लिए
कमरे के कोने में
एक औरत की धुंधली आकृति दिखी।
लंबे खुले बाल,
सफ़ेद साड़ी…
और चेहरा धुँध जैसा, जिसमें आँखों की जगह बस गहरा काला गड्ढा…
आदित्य डर से पीछे हट गया—
पर पीछे दीवार थी।
औरत की परछाई एक पल में गायब हो गई।
कमरा फिर शांत।
बस दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी।
कमरे का तापमान अचानक गिर गया।
दीवारें जैसे भीतर की किसी स्याह बात को फुसफुसा रही हों।
कुछ पल बाद…
दरवाज़ा खुद खुल गया।
आदित्य बाहर भागा।
सीढ़ियों से नीचे उतरा…
हल्का लड़खड़ाया…
पर रुका नहीं।
हवेली के मुख्य दरवाज़े तक पहुँचते ही
पीछे से ऐसी आवाज़ आई जैसे कोई पुरानी, भारी चीज़ घसीट रहा हो।
वह पलटा नहीं।
बस हवेली से बाहर निकल आया।
घर पहुँचकर आदित्य ने किसी से कुछ नहीं कहा।
पर रात भर सो नहीं पाया।
हर बार आँखें बंद होतीं—
वह धुंधली औरत सामने खड़ी मिलती।
अगले दिन वह पुराने कागज़, बयान, और परिवार के इतिहास को खंगालने लगा।
और धीरे-धीरे बात साफ़ होने लगी—
सबकुछ वैसा नहीं था जैसा गाँव वालों को बताया गया था।
जो छुपाया गया था… वह कहीं ज्यादा भयानक था।
रात बीत चुकी थी। सुबह की हल्की धूप गाँव की पगडंडी पर फैल रही थी। पर आदित्य के भीतर रात का अँधेरा अभी भी जाग रहा था। हवेली में जो हुआ, वह सपना नहीं था… और न ही वह कोई भ्रम था। सुबह–सुबह वह बाहर खड़े बूढ़े लोगों की फुसफुसाहट सुन रहा था। कोई कह रहा था—
“हवेली पर फिर किसी की परछाई देखी गई…”
कोई दूसरा बोला—
“पता नहीं कौन बार-बार उस जगह को कुरेद रहा है।”
आदित्य ने मन ही मन सोचा—" ये लोग कुछ छुपा रहे हैं।”
दोपहर होते-होते उसका शक और गहरा हो गया। वह गाँव के चाय वाले से बात करने लगा, फिर कोने में बैठे एक बुजुर्ग से। धीरे-धीरे कुछ जोड़–तोड़ कर, उसे एक टुकड़ा-टुकड़ा सच मिलना शुरू हुआ।
गाँव के एक चुप्पे वृद्ध ने काँपती आवाज़ में कहा—
“बेटा… पचास साल पहले जो नौकरानी मार दी गई थी… उसकी लाश कभी मिली ही नहीं। बस इतना पता चला था कि वो हवेली के अंदर कहीं गड़ी थी…”
आदित्य का दिल धक से रह गया। उसने पूछा—
“कहीं गड़ी… मतलब हवेली में ही?”
बुजुर्ग ने धीरे से सिर हिलाया।
“हां… और जिसने उसे मारा था, वह भी उसी हवेली का आदमी था… तुम्हारे दादा का छोटा भाई।”
यह सुनकर वीरेंदर जैसे जम गया। उसे याद आया—हवेली की घुटन, बासी हवा, लकड़ी के फर्श के नीचे जैसे कोई चुपचाप साँस ले रहा हो।
शाम ढल रही थी। आसमान पर बादल जमने लगे थे। आदित्य अभी भी सोच रहा था—
“अगर नौकरानी की आत्मा है… तो वह घरवालों को ही क्यों ढूंढ़ रही है?”
पर आदित्य को अब डर से ज़्यादा curiosity —एक ज़िद जाग चुकी थी।
“मैं सच देखे बिना नहीं रुकूँगा।”
उसी रात, चाँद के बीच झिलमिलाते बादलों के नीचे, वह फिर निकल पड़ा… उसी हवेली की ओर।
आज दरवाज़ा पहले से भी भारी लग रहा था। जैसे किसी ने अंदर से उसे पकड़ रखा हो।
धीरे-धीरे वह अंदर कदम रखता गया।
क्रर्र… क्रर्र…
लकड़ी की फर्श वही कराह, वही ठंडी हवा…
पर आज एक और चीज़ थी—साफ़ गंध… मिट्टी की… ताज़ी मिट्टी की।
उसने लालटेन जलाई और उस जगह की तरफ बढ़ा जहाँ पिछली रात उसे साया दिखा था।
फर्श पर हल्की सी उभरी हुई दरारें…
उसने फर्श पर थपथपाया—ठक ठक… ठन…
एक जगह की आवाज़ बिल्कुल खोखली थी।
आदित्य का दिल तेज़ धड़कने लगा।
“क्या यहीं…?”
वह दो ईंटें हटाकर नीचे झाँकने लगा।
अंधेरा गहरा था, पर बदबू वही—पुरानी, बंद, सड़ी हुई।
 |
| “सच कितना भी पुराना हो… मिट्टी उसे हमेशा नहीं छुपा पाती।” |
फर्श का ढीला तख्ता उठाते ही धूल उड़ी।
अंदर गहरी जगह थी… और उस जगह में…
एक सफेद हड्डी।
आदित्य काँप गया। उसके हाथ पसीने में भीग गए।
उसने और हटाया—कपड़ों के पुराने टुकड़े…
एक टूटी चूड़ी…
और फिर एक पूरा कंकाल।
अचानक चारों ओर की हवा जैसे भारी हो गई।
लालटेन की लौ काँपने लगी।
उसने पीछे मुड़कर देखा—
कुछ नहीं।
पर हवा में किसी के कदमों की आहट… किसी के रोने की गूँज… किसी की साँस उसके कंधे के पीछे।
आदित्य फुसफुसाया—
“तुम यहीं थीं… इतने सालों से… कोई क्यों नहीं बताता था…”
और तभी…
एक ठंडी उँगली उसके गाल को छू गई।
वह डर से जड़ हो गया।
पीछे कुछ हलका-सा हिल रहा था… जैसे कोई औरत अपने लम्बे बालों को धीरे-धीरे घसीटते हुए खड़ी हो।
पर चेहरा नहीं। बस छाया।
छाया ने तख्ते के नीचे की ओर इशारा किया… मानो कह रही हो—
“सच सिर्फ यही नहीं है… आगे देखो…”
कंकाल के नीचे एक पुराने ताबीज का डिब्बा था।
आदित्य ने काँपते हाथों से खोला।
अंदर—
एक खत।
पीला पड़ा हुआ, पर अक्षर साफ़ थे।
खत में लिखा था—
“जिसे भी ये मिले—
सावधान।
मैंने परिवार को बचाने के लिए झूठ बोला।
नौकरानी को जिस रात मारा गया, वह अकेली नहीं थी।
उसके साथ एक और था।
एक बच्चा।
उस बच्चे की मौत किसी ने नहीं देखी।
वह इस हवेली में ही भटक रहा है।”
आदित्य की साँस रुक गई।
“तो जो लोग गायब हुए… वो उसी बच्चे की छाया ने…?”
उसी क्षण दरवाज़े से हल्की-सी खरखराहट हुई।
लगभग फुसफुसाता हुआ एक छोटा, कच्ची उम्र का स्वर—
“मुझे भी निकालो…”
आदित्य जैसे बिजली के झटके से उछल पड़ा।
पीछे देखा—एक छोटा-सा आकार… दीवार के कोने में सिमटा हुआ… सिर्फ दो चमकीली आँखें।
वह आवाज़ फिर आई—
“हम दोनों को दफनाया था…”
आदित्य का दिमाग सुन्न—
“दो…? दो लाशें…?”
उसने लालटेन नीचे की और डाली।
कंकाल के नीचे मिट्टी अब भी थोड़ी ढीली थी।
और भीतर… एक और छोटी खोपड़ी…
जैसे ही उसने हाथ आगे बढ़ाया—
दरवाज़ा जोर से धड़ाम बंद हुआ।
हवेली के भीतर अँधेरा भर गया।
लालटेन बुझ गई।
अब सिर्फ आवाजें—
औरत की सिसकियाँ…
बच्चे की रोती हुई हँसी…
दीवारों पर दस्तक…
फर्श पर छोटे पैरों की दौड़…
आदित्य चीखा—
“मैं तुम्हें आज़ाद करने आया हूँ! मुझे जाने दो!”
लेकिन हवेली जैसे बोल रही थी—
“जो सच जान लेता है… वह लौटता नहीं।”
उसका गला कसने लगा। जैसे कोई अदृश्य हाथ उसकी गरदन भींच रहा हो।
उसने पूरी ताकत से चीख मारी—
और अँधेरा अचानक छँट गया।
गाँव वालों ने हवेली के बाहर दरवाज़ा खुला देखा।
अंदर गए—
तो फर्श के पास दो कंकाल खुले पड़े थे।
और उनके बीच वीरेंदर बैठा था—
बिल्कुल जीवित…
पर आँखें खाली।
चेहरा सफेद।
बात करना बंद।
बस एक ही वाक्य दोहराता जा रहा था—
“मौत के दरवाज़े के पीछे… सच छुपा था… मैंने खोल दिया।”
गाँव वाले समझ नहीं पाए क्या हुआ।
पर एक बात सबको साफ़ दिख रही थी—
हवेली अब पहले से भी ज्यादा जागी हुई लग रही थी।
जैसे कोई और… कुछ और… आज़ाद हो गया हो।
उसी शाम आदित्य ने आखिरी बार एक वाक्य कहा—
और फिर चुप हो गया।
“हवेली में सिर्फ वह औरत नहीं थी…
उसका बच्चा भी था…
और जो लोग गायब हुए…
उन्हें किसी ने मारा नहीं…
वह बच्चा उन्हें अपने साथ खेलने ले गया।”
उसके बाद वह खामोश हो गया।
माँ-बाप शहर ले गए।
हवेली फिर सील कर दी गई।
पर गाँव वाले कहते हैं—
उस रात के बाद हवेली का दरवाज़ा कभी बंद नहीं रहा।
जैसे कोई अंदर से खोल देता हो।
और कभी-कभी… बच्चों की हँसी रात में अब भी सुनाई देती है।