सर्दी की चुभन और बाइक की आवाज़ बस यही साथ थी मेरे।
रात के करीब 1:40 बजे होंगे…
मैं वापस घर लौट रहा था एक दोस्त की शादी से —
सड़क बिल्कुल सुनसान।
बीच-बीच में कोई पान की दुकान, ढाबा दिखता, पर सब बंद।
मन कर रहा था कहीं चाय मिल जाए… पर हर जगह वीरानी।
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फिर मैंने एक मोड़ पार किया —
सामने एक टूटी हुई नेमप्लेट थी, उस पर नाम मिटा हुआ था।
मुझे लगा शायद पहले भी मैंने इसे देखा है…मैं आगे बढा
पर दो किलोमीटर आगे फिर वही मोड़ —
फिर वही टूटी प्लेट।
अब दिल धड़कने लगा था।
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मैंने एक जगह बाइक रोकी, एक आदमी किनारे खड़ा था —
सिर झुकाये, चेहरा ढंका हुआ…
मैंने पूछा — "भाई, दिनापूर गांव जाने का रास्ता?"
उसने बस उंगली से सामने इशारा किया, कुछ बोला नहीं।
मैं चल पड़ा।
पर अब हर 10 मिनट में वो आदमी मुझे दिख रहा था…
वही कपड़े, वही खामोशी…
अब मै सच में डरने लगा था।
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---की तभी एक चौराहा आया — और अचानक सामने एक परछाई सी निकल गई…
मैंने बाइक के ब्रेक दबाए... सीने में ऐसा लगा जैसे किसी ने जोर से दबोच लिया हो…
सांस रुकने लगी… शरीर सुन्न… आंखों के सामने अंधेरा…
मैं अकेला था,
रास्ता पहचाना नहीं जा रहा था।
हर तरफ घना अंधेरा, पेड़ों की छायाएं, हवा की सिसकारी…
शरीर पसीने से तरबतर था…
हर छोटी-सी ससराहट पर जैसे दिल उछलकर गले में आ जाता।
आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी…
पर रुक भी नहीं सकता था।
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पर तभी दूर कहीं से मंदिर की घंटी की आवाज़ सुनाई दी —
मुझे जैसे अंधेरे में कोई उम्मीद की किरण मिल गई।
मैं उसी दिशा में भागने लगा।
रास्ते में कई बार वो परछाईं फिर से सामने आई…
कभी बाईं ओर से गुजरती, कभी झाड़ियों में छिप जाती।
मैं बता नहीं सकता उस वक़्त मेरी हालत कैसी थी —
कांपते हाथ, भीगे कपड़े, और आंखों में सिर्फ एक ही डर… कि मैं कहीं गुम न हो जाऊं।
आख़िर जैसे-तैसे मंदिर दिखा।
मैंने बाइक वहीं छोड़ दी और दौड़ते हुए मंदिर के अंदर घुस गया।
पुजारी ने देखा —
"अरे बेटा, क्या हुआ?
मैं हांफ रहा था —
शब्द नहीं निकल रहे थे, पर किसी तरह सब कुछ बताया।
उन्होंने मुझे अंदर बैठाया, पानी दिया और बोले:
"तुम बहुत भाग्यशाली हो…
क्युकी रात को जो भी इस रास्ते से जो गुजरता है, वो फिर कभी नहीं दिखता, अच्छा किया जो यहां आ गये, अब शांत हो जाओ तुम ठीक हो।
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मैं रात भर वहीँ रहा।
नींद जैसे किसी बोझ के नीचे दब गई थी।
सपने ऐसे कि कोई मेरे कानों में फुसफुसा रहा हो…
"बाहर आओ… लौट आओ…"
कभी ऐसा लगा किसी ने टांग खींची,
कभी डर से चिल्लाया पर आवाज़ बाहर नहीं जा रही थी।
मंदिर की दीवारों पर अजीब सी परछाइयाँ मंडरा रही थीं।
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अचानक आंख खुली —
धूप मंदिर के अंदर फैल चुकी थी।
बाहर कुछ लोग दिखे।
फिर मैं बाइक लेकर वहां से चला आया।
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उस दिन के बाद —
मैंने उस रास्ते से कभी कदम नहीं रखा।
और आज भी,
रात को बाहर निकलने से पहले दिल एक बार ज़रूर धड़कता है।
कभी-कभी लगता है —
वो परछाईं… आज भी मेरा रास्ता देख रही होगी।
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