दो मृत राक्षस – तालाब का रहस्य

 

“एक पुराना गाँव, मिट्टी का आँगन, धूप ढल रही है। एक बुज़ुर्ग दादी चारपाई पर बैठीं हैं, पास में एक बच्चा ध्यान से कहानी सुन रहा है।”
“कहानियों की शुरुआत हमेशा किसी शांत शाम से होती है।”

मैं एक छोटे, शांत गाँव में रहता हूँ।

बचपन से ही मुझे डरावनी कहानियों का बहुत शौक रहा है।

और मेरे दादाजी…

वो तो जैसे चलते-फिरते "कहानी-घर" थे।

रात को मिट्टी के घर की छत पर लेटकर, चाँदनी में मैं उनसे कहानियाँ सुनता था—

कभी गाँव की परंपराएँ, कभी पुराने किस्से… पर सबसे खास थीं वो भूत-प्रेत वाली सच्ची घटनाएँ, जिन्हें सुनकर दिल की धड़कन तेज हो जाती थी।

एक दिन मैंने उनसे पूछा—

“दादा, हमारे गाँव में ऐसी कोई वास्तविक घटना हुई है क्या? जो आपने अपनी आँखों से देखी हो?”

उन्होंने मुझे कुछ सेकंड देखा… फिर धीमे से कहा—

“बेटा, एक कहानी है…

जिसे मैं भूलना चाहता हूँ, पर भूल नहीं पाता…”

उसी रात उन्होंने जो बताया—

वह सिर्फ कहानी नहीं थी…

वह दहशत की जंजीर थी, जो आज तक दिमाग में बंधी है।

हमारे गाँव से थोड़ा दूर एक बहुत पुराना तालाब था।

लोग उसे सिर्फ “पुराना तालाब” ही कहते थे।

कहते हैं वहाँ कभी घना जंगल था,

जहाँ सूरज भी मुश्किल से पहुँचता था।

समय बदला—

जंगल कटे, खेत बने, फिर घर भी बस गए…

लेकिन तालाब?

वह आज भी उतना ही अंधेरा,

उतना ही चुप,

और उतना ही खतरनाक लगता है।

गाँव के बुज़ुर्ग कहते थे—

वहाँ की मिट्टी हमेशा ठंडी रहती है

चाँदनी रातों में पानी पर हल्की भूरी धुँध तैरती है

और सबसे डरावनी बात—

वहाँ रात में अजीब आकृतियाँ देखी गई हैं

कई लोग गुम हुए,

कुछ बुरी हालत में लौटे,

और कुछ तो कभी वापस नहीं आए।

लेकिन नए लोग इसे अंधविश्वास मानते थे।

“एक संकरी, सुनसान पगडंडी जो खेतों के बीच से गुज़रती है। हल्की धुंध और पेड़ों की परछाइयाँ माहौल को रहस्यमय बनाती हैं।”
“जिस रास्ते पर कदम हिचकिचाएँ, वहीं से किस्मत कहानी लिखना शुरू करती है।”


एक रात की बात है, दादा अपने दोस्त राजेश के साथ किसी काम से गाँव के दूसरे छोर से लौट रहे थे।

रात गजब की ठंडी थी।

हवा अजीब भारी।

रास्ता तालाब के पास से जाता था, और दोनों यह जानते थे कि वहाँ से गुजरना कितना ख़तरनाक है। पर कोई और रास्ता न था। इसलिए वह उसी रास्ते से जाने लगे

लेकिन जैसे ही तालाब की सीमा आई—

दोनों अचानक चुप हो गए।

हवा में एक भारीपन…

एक सन्नाटा…

एक नजर न आने वाला डर घुला हुआ था।

वह दोनों डरते डरते ही आगे बढ़ रहे थे कि 

तभी—

पानी की गहराई अचानक हिली।

दादा कहते हैं:

“ऐसा लगा जैसे किसी ने पानी के अंदर से जोर से धक्का दिया हो… जैसे कोई बड़ी चीज ज़िंदा हो।”

दोनों तेज चलने लगे,

लेकिन तभी…

पेड़ों के पीछे से चार पैरों वाली कोई चीज़ उनके पीछे दौड़ पड़ी।

उसकी आवाज़?

जानवर जैसी… पर जानवर नहीं।

भारी साँसें… खुरदुरी घरघराहट…

मिट्टी पर तेज चोट जैसे कोई बड़ा शरीर दौड़ रहा हो।

दोनों घबरा गए और गलत मुड़ गए—

अब वे सीधे तालाब के किनारे पहुँच चुके थे।

पीछे वो प्राणी।

सामने तालाब का काला पानी।

और तभी…

पेड़ों के बीच से एक परछाईं निकली।

फिर दूसरी।

दो आकृतियाँ – पतली, लंबी, काली, और इंसान जैसी… लेकिन इंसान नहीं।

उनकी चमड़ी पानी से भीगी हुई—

जैसे किसी ने उन्हें अभी-अभी पानी से खींचकर बाहर निकाला हो।

उनकी आँखें—

सड़ी हुई पीली चमक।

और उनकी चाल—

झटकेदार, टेढ़ी-मेढ़ी, डरावनी।

दादा कहते हैं—

“मैंने जिंदगी में उतना डर कभी महसूस नहीं किया बेटा… वो इंसान नहीं थे… वो मृत राक्षस थे…”

कई साल बाद दादा को पता चला कि यह तालाब पहले से ही श्रापित था।

सदियों पहले दो आदमी एक बच्चे की हत्या करके तालाब की ओर भागे थे।

गाँव वाले पकड़ नहीं पाए।

एक बूढ़ा तांत्रिक उनके पीछे आया और बोला—

“तुम्हारी आत्मा कभी शांति नहीं पाएगी।

तुम इस तालाब की गहराई में कैद रहोगे…

और तुम्हारी प्यास कभी नहीं बुझेगी…”

तांत्रिक ने उन्हें पानी में धकेल दिया।

वहीं उनकी मौत हुई।

और तब से—

हर दस-पंद्रह साल में दो लोग गायब होने लगे।

“एक टांत्रिक अँधेरे जंगल में खड़ा है, सामने आग की लपटें और चारों ओर रहस्यमय धुआँ फैला हुआ है, वातावरण गंभीर लेकिन शक्तिशाली।”
“जब डर अपनी हद पार करे, तो शक्ति रास्ता दिखाती है।”


दादा और राजेश तालाब के पास टूटी नाव के पीछे छिपे हुए थे।

राक्षस सूँघते हुए उनके बिल्कुल पास आ गए।

उनकी उँगलियाँ लंबी, नुकीली…

उनके शरीर पर पुरानी झील की बदबू…

उनकी आवाज़—

सूखे पत्तों को रगड़ने जैसी।

राजेश रो पड़ा।

दादा बस उसका हाथ दबाए रहे।

और तभी…

कहीं से मंत्रों की आवाज आई—

“ॐ नमः कालीकाय नमः…”

दोनों ने मुड़कर देखा—

एक बूढ़ा तांत्रिक हाथ में त्रिशूल लिए आ रहा था।

राक्षस गुस्से से उसकी तरफ झपटे—

तांत्रिक ने जमीन पर त्रिशूल मारा—

🔥 अग्नि की लपट फट पड़ी।

राक्षस चीखने लगे

उनकी त्वचा पिघलने लगी

उनके शरीर राख में बदलने लगे।

तांत्रिक ने गंगाजल मिलाकर एक लाल द्रव्य फेंका—

और दोनों राक्षस जलते हुए वहीं समाप्त हो गए।

तालाब की हवा अचानक हल्की हो गई।

पानी शांत हो गया।

दुनिया जैसे ठहर गई।

तांत्रिक बोला—

“ श्राप खत्म हुआ।”

दादाजी उस घटना के बाद कई दिनों तक ठीक से सो नहीं पाए।

पर गाँव में गायब होने की घटनाएँ उसी दिन से हमेशा के लिए बंद हो गईं।

दादा हमेशा कहते थे—

“दुनिया में हर चीज़ को विज्ञान नहीं

 समझा सकता बेटा।

कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो सिर्फ अनुभव सिखाता है।”

और मैं आज भी उस पुरानी कहानी को भूल नहीं पाया।


पुराना क़िला और डर की दास्तान

 

गाँव के बाहर, सूनी पहाड़ी की छाती पर खड़ा वह पुराना क़िला —

जिसे दिन में देखो तो बस टूटी दीवारों का ढेर लगता है,

पर रात में वही क़िला साँस लेता है…

और जो उसकी साँस सुन ले — वह फिर कभी चैन से नहीं सोता।

लोग कहते हैं, वहाँ हवाएँ नहीं चलतीं…

वहाँ यादें रोती हैं।

लोग कहते हैं, क़िले की परछाइयाँ चलती हैं…

और जो रास्ता भूल जाए,

वह क़िला उसे रास्ता नहीं,

अपना हिस्सा बना लेता है।

और उस रात…

जब दो दोस्त मजबूरी में उसी रास्ते से गुज़रे,

उन्हें नहीं पता था कि

वे सिर्फ़ रास्ता नहीं बदल रहे थे…

वे अपनी किस्मत के आख़िरी दरवाज़े पर दस्तक दे रहे थे। क्योंकि उस रात

क़िला सिर्फ़ खड़ा नहीं था…वह जाग चुका था।

"घने अंधेरे में डूबा एक सुनसान प्राचीन किला, जिसके टूटे हुए बुर्ज और दरवाज़ों के पास धुंध घूम रही है, और दूर से दो डरे हुए दोस्त उसकी ओर भागते हुए दिखाई दे रहे हैं।"
"जिस किले के साए से भी लोग बचते थे, आज वही उनकी मजबूरी बन चुका था।"


    अरदलीपुर एक छोटा-सा मगर खुशहाल गाँव था। चारों तरफ फैले हरे-भरे खेत, सरसों की पीली चादरें और दूर-दूर तक फैले आम के बाग उसे किसी चित्र की तरह खूबसूरत बनाते थे। सुबह होते ही कुओं पर औरतों की हँसी गूंजती, बच्चे नंगे पाँव गलियों में दौड़ते और दूर मस्जिद की अज़ान व मंदिर की घंटी साथ-साथ गाँव की रगों में जीवन का संगीत भर देती। यहाँ के लोग सीधे-सादे, मेहनती और एक-दूसरे के सुख-दुःख के साझेदार थे।


गाँव के दक्षिण में, थोड़ी दूरी पर, एक बीहड़ रास्ता घने जंगल में खो जाता था — और वहीं कहीं खड़ा था वह पुराना क़िला, जिसे देखकर दिन में भी रोंगटे खड़े हो जाते। शाम ढलते ही उस ओर कोई जाने की हिम्मत नहीं करता। 


इसी गाँव के दो घनिष्ठ दोस्त थे — इमरान और शकील। दोनों बचपन से साथ पले, बारिश में कागज़ की नाव चलाना हो या जंगल से लकड़ियाँ लाना, हर काम में कंधे से कंधा लगाकर चलते। इमरान थोड़ा गंभीर और सोचने वाला था, जबकि शकील हँसमुख लेकिन दिल से बहादुर।


उस दिन गाँव में एक रिश्तेदार की दावत थी, जहाँ दोनों देर शाम तक रुके रहे। लौटते समय अंधेरा गहराने लगा, आसमान पर बादल ऐसे छा गए जैसे किसी ने रात को ज़बरदस्ती धरती पर उतार दिया हो।


"चल जल्दी, आज कुछ ठीक नहीं लग रहा," इमरान ने फुसफुसाते हुए कहा।


शकील ने सिर हिलाया, लेकिन दोनों को क्या पता था कि यह रात उनकी ज़िंदगी की आख़िरी सामान्य रात बनने वाली थी।

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उस किले के बारे में बड़ी अफवाये थी। गाँव के बुज़ुर्ग लोग कहते थे कि सदियों पहले वहाँ एक बेरहम सामंत का राज था, जिसने अपने ही लोगों पर अत्याचार की सारी हदें पार कर दी थीं। जब जनता ने विद्रोह किया, तो सामंत अपने पूरे परिवार समेत उसी क़िले में घिर गया।


कहते हैं, उसने अपनी हार स्वीकारने की बजाय एक तांत्रिक अनुष्ठान करवाया, ताकि उसकी आत्मा पत्थरों में कैद होकर भी राज करती रहे। उसी रात क़िले से ऐसी चीखें उठीं कि दूर-दूर के गाँवों ने भी अपने दरवाज़े बंद कर लिए। सुबह होने पर दरवाज़े खुले मिले, लेकिन भीतर एक भी इंसान ज़िंदा नहीं था।


उस दिन के बाद से क़िला वीरान हो गया। समय के साथ उसकी दीवारों पर काई जम गई, बुर्ज टूटने लगे, और लोहे के फाटक जंग से चीखने लगे। मगर लोगों का कहना था कि क़िले की आत्मा अब भी जागती है। रात के अंधेरे में वहाँ से कभी-कभी लोहे की ज़ंजीरों की आवाज़, पदचाप और धीमी सिसकियाँ सुनाई देतीं।


कुछ चरवाहों ने दावा किया था कि उन्होंने क़िले की परछाइयों के बीच एक भयावह आकृति को चलते देखा — आधा इंसान, आधा जानवर। उसकी आँखें अंगारों की तरह लाल थीं, और सांसों से जैसे सड़ी हुई मिट्टी की बदबू आती।


"जो भी क़िले के बहुत करीब गया, वो या तो लौटकर पागल हो गया… या फिर कभी लौटा ही नहीं," यह बात गाँव में पीढ़ी दर पीढ़ी फुसफुसाई जाती रही।


इमरान और शकील भी इन अफ़वाहों से अनजान नहीं थे। वे क़िले के रास्ते से हमेशा बचकर निकलते, चाहे फिर दो कोस लंबा चक्कर ही क्यों न लगाना पड़े। मगर उस रात जंगल का रास्ता जैसे अपनी दिशा बदल चुका था।


चाँद बादलों में छिपा हुआ था और हवा में अजीब सी नमी और सड़ांध घुली थी। पेड़ों की टहनियाँ किसी अनदेखी शक्ति की तरह हिल रही थीं, मानो रास्ता दिखाने नहीं, बल्कि भटकाने के लिए।


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जंगल के भीतर कदम रखते ही इमरान को एहसास हो गया कि कुछ सही नहीं है। रास्ता जो रोज़ जाना-पहचाना लगता था, आज किसी भूलभुलैया जैसा हो चला था।


"शकील... क्या तूने भी महसूस किया? हवा भी जैसे भारी हो गई है," उसने धीमी आवाज़ में कहा।


शकील ने चारों ओर देखा। "हाँ... और ये चुप्पी... बहुत अजीब है। न झींगुरों की आवाज़, न पत्तों की सरसराहट..."


अचानक झाड़ियों में खड़खड़ाहट हुई। दोनों ठिठक गए। "कौन है?" शकील ने हिम्मत जुटाकर आवाज़ दी।


जवाब में बस एक गहरी गुर्राहट गूंजी — ऐसी आवाज़ जो इंसानी नहीं हो सकती थी।


धीरे-धीरे अंधेरे से एक विशाल आकृति उभरने लगी। उसका शरीर काले धुएँ जैसा था, मगर आँखें चमकती लाल आग की तरह। उसके पंजे ज़मीन में गहरे धँस रहे थे और हर साँस के साथ उसकी नाक से भाप निकल रही थी।

"जंगल के रास्ते पर चमकती आंखों वाला एक अजीब और भयावह जानवर, जिसके सामने दो युवक सहमे हुए पीछे हट रहे हैं और उनके चेहरों पर मौत का डर साफ झलक रहा है।"
"वह जानवर नहीं था, वह किसी अनदेखी शक्ति का संदेश था — जो उन्हें किले की ओर धकेल रहा था।"


"भाग!" इमरान की चीख हवा को चीर गई।


दोनों बिना पीछे देखे दौड़ पड़े। पेड़ उनके चेहरे पर चाबुक की तरह पड़ रहे थे, झाड़ियाँ उनके कपड़े फाड़ रही थीं, मगर उस जानवर की दहशत ने दर्द को भी बौना कर दिया था।


पीछे से उसकी दहाड़ और कबीली कदमों की गूंज साफ सुनाई दे रही थी।


"क़िला... सामने!" शकील की आवाज़ काँप रही थी।


"नहीं! वहाँ नहीं!" इमरान ने हाँफते हुए कहा, मगर सामने लोहे का विशाल फाटक उभर आया था, जैसे खुद अंधेरे ने उसके लिए रास्ता खोला हो।


पीछे वह भयानक प्राणी और करीब आ चुका था। अब उनके पास कोई विकल्प नहीं था।


भय और मजबूरी के उस पल में वे क़िले की ओर दौड़े और जंग लगे फाटक के भीतर घुस गए।


जैसे ही वे अंदर पहुँचे, बाहर की सारी आवाज़ें अचानक खामोश हो गईं। प्राणी की दहाड़ भी, हवा की सनसनाहट भी — सब मानो क़िले की दीवारों ने निगल ली हो।

दोनों अंधेरे में साँसें फुलाए खड़े थे। भीतर सीलन और पुरानी लाश जैसी बदबू थी। दीवारों से पानी की बूंदें टपक रही थीं और कहीं दूर से टन-टन की आवाज़ आ रही थी, जैसे कोई अदृश्य हथौड़ा किसी पुराने दरवाज़े पर वार कर रहा हो।


"हम... जिंदा हैं न?" शकील ने फुसफुसाकर पूछा।


इमरान ने जवाब नहीं दिया। उसकी नज़र अब भी उस अंधेरे गलियारे पर जमी थी, जहाँ से ठंडी हवा आ रही थी — ऐसी हवा जिसमें इंसानी सांस नहीं, बल्कि किसी भूली हुई आत्मा की ठंडक थी।


तभी अचानक...


एक धीमी हँसी गूंजी।


क़िले की पत्थर की दीवारें थरथरा उठीं।


"तुम... आखिर आ ही गए..."


आवाज़ हर दिशा से आ रही थी, जैसे क़िला खुद बोल रहा हो।


दोनों के चेहरों का रंग उड़ चुका था। वे समझ चुके थे —


यह सिर्फ़ क़िला नहीं था। यह एक जिंदा कब्र थी...


और उन्होंने इसकी देह में कदम रख दिया था।


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अजीब जानवर की गुर्राहट अब भी उनके कानों में गूंज रही थी।

शकील और इमरान साँस रोककर क़िले की टूटी सीढ़ियों के पीछे दुबके हुए थे। बाहर का अंधेरा इतना गहरा था कि मानो रात ने खुद अपनी आँखें खोल रखी हों। हवा में सड़ी दीवारों की नमी, जंग लगे लोहे की गंध और किसी पुराने खून की सी बू थी। जानवर की परछाईं क़िले के दरवाज़े तक आकर रुक गई थी। उसके पंजों की खरोंच पत्थरों पर साफ सुनाई दे रही थी।

“ये... ये जानवर नहीं है...”

 शकील की आवाज़ काँप रही थी।

इमरान ने सामने देखा — दरवाज़े के पास अब कोई जानवर नहीं था, पर जमीन पर गीले पंजों के निशान अभी भी दिख रहे थे, जैसे किसी ने जलते हुए पत्थरों पर चलकर उन्हें गीला कर दिया हो।

और तभी...

क़िले के भीतर से एक धीमी हँसी गूंजी।

न भारी, न बुलंद... बस ऐसी, जैसे कोई बहुत पास खड़ा हो और कान के पीछे फुसफुसा रहा हो।

वे दोनों धीरे-धीरे उठे। सामने लंबा गलियारा था, दीवारों पर जमे काले निशान, जगह-जगह टूटी मूर्तियाँ और ऊपर से चूना झड़ता हुआ। छत से बूँदों की आवाज़ ऐसे गिर रही थी जैसे समय खुद टपक रहा हो।

“चल... यहाँ से निकलते हैं...” इमरान बोला।

लेकिन जैसे ही उन्होंने पीछे मुड़ना चाहा —

दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया।

धड़ाम।

धूल का गुबार उठा और साथ ही वो हँसी फिर गूंजी — अब और भी साफ।

“यहाँ से कोई नहीं जाता...”

दोनों का खून जम गया।

शकील ने काँपते हाथों से मोबाइल निकाला — लेकिन स्क्रीन काली थी, जैसे उसमें से रोशनी चूस ली गई हो।

वे गलियारे में आगे बढ़े। हर कदम के साथ ऐसा लग रहा था कि दीवारें उनके करीब आ रही हैं। एक जगह फर्श पर कुछ उकेरा हुआ था — पुराने अक्षर, जिनमें खून सूख चुका था।

इमरान झुका और पढ़ने की कोशिश की —

“जो अंदर आया... वह बाहर नहीं गया।”

तभी पीछे से पैरों की आवाज़ आई।

छप... छप... छप...

कोई नंगे पाँव चल रहा था, पर जब दोनों ने पीछे देखा — कोई नहीं था।

अचानक सामने एक बड़ा कक्ष खुला। बीचोंबीच एक पत्थर का चबूतरा और उसके ऊपर एक पुरानी जंजीरें बंधी थीं, जैसे कभी किसी को वहाँ बाँधा गया हो। दीवारों पर अजीब चित्र बने थे — इंसानी आकृतियाँ, जिनकी आँखें काली और मुँह खुले हुए।

"किले के भीतर टूटी सीढ़ियाँ, दीवारों पर खून जैसे निशान और अंधेरे को चीरती हल्की चंद्र रोशनी, जिसमें दोनों दोस्त एक कोने में छिपे हुए हैं।"
"जहाँ इंसान डर से काँपता है, वहीं किले की दीवारें किसी पुराने राज़ को फुसफुसाती हैं।"


शकील की नजर ऊपर गई।

छत के कोने में कुछ लटक रहा था।

जैसे ही उसने टॉर्च जलाकर रोशनी डाली, दोनों की चीख निकल गई।

एक आधा सड़ा हुआ कंकाल उल्टा लटक रहा था, जिसकी आँखें अब भी खुली थीं।

और तभी पूरे क़िले में गूंजने लगी आवाज़ —

दर्द भरी... टूटी हुई...

“वो आए थे भी दोस्त... जैसे तुम आए हो...

और जैसे वे नहीं बचे... वैसे तुम भी नहीं बचोगे...”

इमरान का शरीर काँपने लगा।

“यह क़िला ज़िंदा है...” उसने बुदबुदाया।

अचानक ज़मीन हिलने लगी। पत्थरों के बीच से स्याह धुआँ उठने लगा, और उस धुएँ से एक लंबी परछाईं उभरी — काली, बिना चेहरे की, पर आँखों जैसी दो जलती लपटें।

वही था क़िले का साया।

वही जो सालों से भूखा था।

परछाईं धीरे-धीरे उनके करीब आई। उसकी ठंडी सांसें उनकी त्वचा पर महसूस होने लगीं। हवा भारी और घुटन भरी हो गई।

“तुम मेरी रात का हिस्सा बन चुके हो...”

“अब तुम भी मेरी कहानी हो...”

शकील पीछे हटते हुए चिल्लाया, “भागो!!!”

वे दोनों दौड़े, अंधेरे में टकराते, गिरते, उठते। हर मोड़ पर वही हँसी, वही साया। सीढ़ियाँ उनके पैरों के नीचे खिसक रहीं थीं, दीवारें जैसे साँस ले रहीं थीं।

और फिर...

अचानक एक गहरा गड्ढा।

इमरान का पैर फिसला।

“शकील!!!”

उसकी चीख हवा में घुल गई। उसका शरीर अंधेरे में समा गया, और कुछ सेकंड बाद नीचे से भारी चीज गिरने की आवाज़ आई... फिर सन्नाटा।

शकील अकेला रह गया।

उसने चारों ओर देखा, आँखों में पागलपन उतर चुका था। तभी सामने वही परछाईं खड़ी थी — अब और पास।

“अब बस तुम हो...”

“और यह क़िला...”

शकील उल्टा दौड़ने लगा, सीने में डर की आग, दिल मानो फट जाएगा। उसे दूर एक रोशनी दिखी — शायद बाहर का रास्ता।

वह पूरी ताकत से दौड़ा... लेकिन जैसे ही दरवाज़े के पास पहुँचा, ज़मीन उसके नीचे धँस गई।

काले हाथ मिट्टी और पत्थरों के बीच से निकलकर उसे पकड़ने लगे।

उसकी चीखें क़िले की दीवारों से टकराईं...

“बचाओ!!!”

लेकिन क़िले ने उसे जवाब दिया —

एक गहरी खामोशी।

धीरे-धीरे उसका शरीर अंधेरे में समाता चला गया, जैसे समुद्र लहरों में किसी को निगल ले।

और क़िला फिर शांत हो गया।

बाहर अब सब वैसा ही जैसा पहले। पर वहाँ अब न शकील था, न इमरान। सिर्फ़ दो जोड़ी पैरों के निशान थे जो क़िले तक गए थे... पर लौटे नहीं।

आज भी जब रात गहराती है, उस क़िले से एक हल्की हँसी सुनाई देती है... और लोग कहते हैं—

“क़िला अब भी भूखा है...

और कभी-कभी नए कदमों का इंतज़ार करता है...”


रहस्यमयी गुफा – काले शिलाखंड का शाप

    

“सतपुड़ा की पहाड़ियों में घने जंगल के बीच चार खोजी—देवराज, आहना, कबीर और प्रवीर—एक संकरे रास्ते से प्राचीन गुफा की ओर बढ़ रहे हैं। दूर काई जमी चट्टानें और हल्की धुंध पूरी जगह को रहस्यमयी बना रही है।”
हर महान रहस्य… जंगल की चुप्पी से शुरू होता है।”

सतपुड़ा की पहाड़ियों का मौसम हमेशा अजीब रहता है — सुबह हल्की धूप, दोपहर में अचानक धुंध, और शाम तक ठंड ऐसा घेर लेती है जैसे पहाड़ किसी को अपने भीतर समेट लेना चाहते हों। इन्हीं पहाड़ियों के बीच, एक धँसी हुई घाटी में, एक ऐसी गुफा मिली जिसने दुनिया को हैरान कर दिया, और खोजकर्ताओं को मौत दे दी।

यह कहानी है देवराज, 28 वर्षीय युवा पुरातत्व–अन्वेषक की…

यह कहानी है उस खोज की, जिसे उसने कभी ढूँढने की कोशिश नहीं की थी।

और यह कहानी है उस शाप की, जिसने उसकी जिंदगी की सांसे गिनकर रख दीं।


देवराज को बचपन से पहाड़ और जंगल आकर्षित करते थे। उसका घर पचमढ़ी के पास एक छोटे से कस्बे में था। पिता वन-विभाग में थे, और उनके साथ जाते–जाते देव को पेड़ों, चट्टानों, मिट्टी की गंध और हवा की आवाज़ से एक अजीब रिश्ता हो गया था। वो चीज़ों में छिपा इतिहास देख लेता था — जैसे पत्थर भी उससे अपना सच कह देते हों।

सन् 2025 की गर्मियों में उसे एक चिट्ठी मिली।

चिट्ठी में लिखा था—

“सतपुड़ा की दक्षिणी राह पर एक नई गुफा मिली है।

तुम आओगे तो अच्छा रहेगा।

— प्रोफेसर इंदरनाथ शर्मा”

प्रोफेसर शर्मा उसके गुरु थे, भारत के सबसे बड़े पुरातत्व–विशेषज्ञों में से एक।

देव को हैरानी हुई — प्रोफेसर ने कभी इतनी छोटी चिट्ठी नहीं भेजी।

फिर एक और अजीब बात हुई।

चिट्ठी पर काले रंग से बनी एक आकृति थी—

दो गोल आँखें, नीचे लम्बा चेहरा, और उसके बीच में बनाया हुआ ‘‘V’’ जैसा निशान।

देव ने सोचा, “शायद प्रोफेसर की टीम ने गुफा में कुछ निशान पाए होंगे।”

वह उसी शाम पचमढ़ी के लिए निकल गया।

पहाड़ियों का गाँव और तीन मौतें

गाँव का नाम था — झिन्ना

जहाँ लोग अंधविश्वासी नहीं, बल्कि पहाड़ की सच्चाई से डरते थे।

देव जब गाँव पहुँचा तो माहौल अजीब था।

लोग उसे देखते तो तुरंत अपनी नजरें झुका लेते।

कुछ तो उसे देखकर घर के अंदर चले गए।

देव ने सोचा—

“ऐसा क्या देखा मैंने? या ये लोग किसी और चीज से डर रहे हैं?”

गाँव के बुजुर्ग कबराजी ने उसे रोका—

“तुम वही हो न… प्रोफेसर शर्मा का लड़का?”

“हाँ। क्यों?”

बुजुर्ग की आवाज काँप गई।

“तीन लोग गए थे अंदर… तीनों मरे पड़े मिले।”

“कैसे?”

“शरीर बिल्कुल जैसे… किसी ने खींच लिया हो। जैसे जान नहीं, कुछ और निकाल ली गई हो।”

देव के भीतर बेचैनी फैल गई।

उसने पूछा, “प्रोफेसर कहाँ हैं?”

कबराजी ने आह भरी।

“वो गुफा के पास शिविर में हैं। बस… बदल गए हैं थोड़ा।”

देव वहीं से शिविर की ओर चल दिया।

शिविर बिल्कुल चुप था, जैसे लोग सो नहीं रहे, बल्कि इंतज़ार कर रहे हों।

देव अंदर गया तो उसने प्रोफेसर शर्मा को देखा।

वो चुपचाप बैठे थे।

उनके हाथ काँप रहे थे।

आँखें लाल, नींद उड़ी हुई।

देव ने पूछा—

“सर, ये क्या हो गया है यहाँ?”

प्रोफेसर ने धीरे–धीरे सिर उठाया।

“देवराज… तुम आ गए… अच्छा किया।”

“लेकिन ये मौतें? लोग डरे हुए क्यों हैं? और ये निशान?”

देव ने चिट्ठी की आकृति दिखाई।

प्रोफेसर के चेहरे पर डर चमक उठा।

“ये… ये निशान… तुमको किसने भेजा?”

“आपने ही।”

“नहीं देव… मैंने कोई निशान नहीं बनाया…”

देव का दिल एक पल को सन्न हो गया।

प्रोफेसर आगे बोले—

“जिस दिन हमने गुफा खोली, उसी दिन ये आकृति दीवार पर दिखी थी। और उसी रात पहला आदमी… मर गया।”

देव ने महसूस किया—गुफा सिर्फ एक पुरातत्व–स्थल नहीं थी।

वह कुछ और थी। कुछ ऐसा जो इंसानों को अपने पास नहीं चाहता था।


गुफा की खोज के लिए अब एक नई छोटी टीम बनाई गई—

1. देवराज — अन्वेषक

जिद्दी। सवाल पूछने से नहीं डरने वाला।

2. प्रोफेसर शर्मा — ज्ञान का पहाड़, पर मन से टूटा हुआ

कुछ ऐसा देखा था गुफा में, जिसे वो किसी को बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे।

3. आरव — फोटोग्राफर

हमेशा हँसने वाला, पर चीजें बहुत गहराई से देखता था।

4. नीलम — भूगर्भ–विशेषज्ञ

चट्टानों की बनावट से 10,000 साल का इतिहास पढ़ लेती थी।

5. माधव — स्थानीय युवक

गुफा के बारे में किंवदंतियाँ जानता था।


शाम होते ही टीम गुफा के मुहाने पर पहुँची।

जैसे ही वे पास आए, हवा का तापमान अचानक ठंडा हो गया।

नीलम ने कहा—

“ये सामान्य नहीं है… यहाँ हवा बह ही नहीं रही।”

गुफा का प्रवेशद्वार तिरछा था, जैसे किसी ने उसे अंदर खींच लिया हो।

दीवारों पर अजीब काली लकीरें।

जैसे किसी ने उंगलियों को कोयले में डुबोकर खींच दिया हो।

माधव ने धीमे स्वर में कहा—

“ये… वही निशान हैं। गुफा का देवीरक्षक। लोग कहते हैं ये किसी आत्मा का घर है।”

देव हँसा—

“आत्मा? नहीं माधव। ये बस प्राकृतिक आकृतियाँ हैं—”

पर तभी…

गुफा के अंदर से एक बहुत धीमी… पर साफ़ आवाज़ निकली।

“देव…”

देवराज का दिल जम गया।

उसने टॉर्च अंदर फेंकी—

टॉर्च जमीन पर नहीं गिरी।

बल्कि… एक पल में जैसे अँधेरे ने उसे निगल लिया।

आरव काँप गया।

“ये आवाज़… इसने तुम्हारा नाम कैसे लिया?”

प्रोफेसर शर्मा चुप थे।

उनकी आँखों में डर का वही रूप था… जो कभी गुफा में पहली बार देखने के बाद आया था।

“गुफा के भीतर मशालों की रोशनी में दीवारों पर खुदे प्राचीन चिह्न चमक रहे हैं। खोजी चारों दीवारों पर उभरे प्रतीकों को ध्यान से देख रहे हैं—मानो सामने इतिहास सांस ले रहा हो।”
“कभी-कभी जवाब शब्दों में नहीं… पत्थरों की खामोशी में मिलते हैं।”


टीम गुफा में घुसी।

पहले तो सब सामान्य लगा—पुराने युग की दीवारें, चित्र, हाथों के निशान।

पर जैसे–जैसे वे आगे बढ़ते गए…

दीवारें चमकने लगीं।

जैसे उन पर चिपका काला पत्थर टॉर्च की रोशनी निगल रहा हो।

नीलम ने दीवार को छुआ।

“ये पत्थर… ये सामान्य नहीं है। ये प्रकाश को शोषित कर रहा है! इतनी विशेषता किसी चट्टान में नहीं होती।”

देवराज ने कहा—

“शायद कोई खनिज—”

पर फिर…

दीवार पर वही आकृति दिखी—

दो आँखें, लम्बा चेहरा, बीच में ‘‘V’’।

पर इस बार आकृति हिल रही थी।

जैसे साँस ले रही हो।

आरव डर गया।

“चलो वापस चलते हैं—”

देव ने उसे रोका।

“नहीं। ये जगह हमें कुछ बताना चाहती है। तीन लोग क्यों मरे? ये शिलाचित्र कैसे हैं? इसका इतिहास है—हमें समझना होगा।”

सब देव की जिद के आगे हार गए।

और वे और अंदर बढ़े।

गुफा के बीचोंबीच एक विशाल हॉल था।

बीच में काले पत्थर का एक शिलाखंड खड़ा था—

चिकना। चमकदार।

जैसे किसी ने इसे अभी तराशा हो।

उसके ऊपर कुछ चिन्ह उकेरे थे—

जिन्हें देखकर नीलम की आवाज काँप गई।

“देव… ये चिन्ह इतिहास से बाहर हैं।

ये किसी भी भाषा के नहीं हैं…

ये पूर्व–मानव सभ्यता के हैं…”

देव ने कैमरा निकाला।

तभी उसने देखा—

शिलाखंड पर खून जैसे लाल उभार उभर रहा था।

धीरे धीरे आकार बन रहा था—

एक लड़की का चेहरा।

देव पीछे हट गया।

“ये… क्या है?”

प्रोफेसर बोले—

“यही है… मौत का दरवाज़ा। वही जिसने तीन लोगों को मारा।

ये शिलाखंड इंसानों की ऊर्जा खींचता है।”

देव ने पूछा—

“तो इसका इतिहास? कौन बनाता था इसे?”

प्रोफेसर ने साँस रोकी।

“यह 7,000 साल पुरानी जनजाति ‘कलबाह’ की निशानी है।

वे मानते थे कि यह शिलाखंड देवी का शरीर है…

और हर साल एक बलि दी जाती थी।”

आरव पीछे हटते हुए बोला—

“और अगर बलि ना दी जाए?”

प्रोफेसर की आवाज धीमी हो गई—

“तो शिलाखंड खुद लेना शुरू करता है।”


अचानक पीछे से किसी के गिरने की आवाज आई।

नीलम गिर पड़ी थी।

उसकी आँखें खुली थीं… पर पुतलियाँ सफ़ेद।

देव दौड़कर गया—

“नीलम! मेरी तरफ देखो!”

वह हलके से बोली—

“वह… जाग गया है…”

अचानक दीवार पर काले धुएँ जैसा फैलाव शुरू हुआ।

फिर वह धुआँ आकार लेने लगा—

लम्बी टांगें

लम्बे हाथ

दो गोल चमकती आँखें

और वही ‘‘V’’ आकृति।

आरव चीख पड़ा—

“ये वही है! ये जिंदा है!”

देव पत्थर के पास खड़ा रहा—

“तुम लोग भागो! मैं इसे रोकता हूँ!”

प्रोफेसर ने उसका हाथ पकड़ लिया—

“नहीं देव… तुम नहीं जानते… ये—”

पर देवराज की आँखों में आग थी।

वो शिलाखंड को छूने बढ़ा।

धुआँ–आकृति एकदम उसके सामने आ गई।

फुसफुसाहट—

“नहीं… तुम नहीं… तुम चुने गए हो।”

देव का हाथ पत्थर पर पड़ा।

और फिर—

एक तेज़ सफेद रोशनी ने पूरी गुफा को भर दिया।

सब गिर पड़े।

धुआँ चीखने लगा।

जैसे कोई हजारों साल बाद पहली बार जल रहा हो।

गुफा हिलने लगी।

छत टूटने लगी।

सबने भागने की कोशिश की।

प्रोफेसर ने देव को खींचा—

“भागो देव! ये ढह रही है!”

देवराज ने देखा

शिलाखंड अब दरारे छोड़ रहा था

और उन दरारों में कोई… आकृति करवट ले रही थी।

वह मुड़ा

दौड़ पड़ा

और आखिरी क्षण में गुफा का दरवाज़ा बाहर गिरा।

गुफा बंद हो गई—

अंदर की हर आवाज़ दब गई।

“रात का समय, शिविर (कैम्प) के बाहर तीन खोजियों की मृत देह रहस्यमयी स्थिति में पड़ी है। सामने मिट्टी पर फैले कुछ पुराने सोने के सिक्के चमक रहे हैं, और दूर जंगल में किसी अनदेखे खतरे का संकेत जैसे मंडरा रहा है।”
“कुछ खजाने चमकते हैं… लेकिन उनकी परछाइयाँ अँधेरा लेकर आती हैं।"


देव, प्रोफेसर, आरव और माधव बाहर गिर पड़े।

सब घायल थे।

पर जिंदा थे।

आरव ने पूछा—

“ये… ये सब क्या था?”

प्रोफेसर ने हाँफते हुए कहा—

“हमने गुफा को नहीं खोला था…

गुफा ने हमें बुलाया था।”

माधव डरते हुए बोला—

“और अब?”

प्रोफेसर ने देव की तरफ देखा।

देव की हथेली में एक काला निशान था—

दो गोल आँखें

और बीच में ‘‘V’’।

देव धीमे स्वर में बोला—

“अब… ये मुझसे जुड़ेगा।

क्योंकि मैंने दरवाज़े को छुआ है।”

तीनों हैरान रह गए।

देव की आँखों में कुछ बदल चुका था।

जैसे गुफा का अंधेरा अब उसके भीतर घर कर चुका था।

उस रात गाँव में अजीब सी बर्फीली हवा चली।

गुफा के पास कभी जाना मना कर दिया गया।

सरकार ने क्षेत्र बंद कर दिया।

नीलम धीरे–धीरे ठीक होने लगी।

पर उसकी आँखों में भी वही डर था।

प्रोफेसर ने कहा—

“देव… ये खत्म नहीं हुआ है…

तुम्हारे हाथ का निशान… इसका मतलब है कि वो अब भी ज़िंदा है।”

देव ने आसमान की तरफ देखा।

उसकी आँखों में अजीब सी चमक थी।

"मैं लौटूँगा…

गुफा ने जो दिखाया… उसका असली सच अब भी दबा हुआ है।

ये सिर्फ शुरुआत है।"

जारी रहेगा…

मौत का दरवाज़ा

 

“दोपहर की धूप में एक युवा लड़का पुरानी, टूटती-गिरती हवेली के सामने खड़ा है। हवेली की दीवारों पर काई जमी है, लकड़ी के दरवाज़े आधे टूटे हुए हैं और भीतर अंधेरा साफ दिखाई देता है।”
“कुछ दरवाज़े बंद इसलिए नहीं रहते… कि कोई आए नहीं, बल्कि इसलिए कि अंदर कुछ जागा हुआ है।”


सूरज ढलने में अभी वक़्त था, पर आसमान का रंग जाने क्यों हल्का-सा मटमैला हो चुका था।

नागपुर से कुछ दूर, जंगलों के बीच बसा वह छोटा-सा गाँव…

जहाँ दिन भी कभी-कभी रात जैसे महसूस होते।

किए-कपट से दूर, मिट्टी की पगडंडियों पर बने कुछ पुराने घर…

और उन घरों से परे, काली चट्टानों के बीच खड़ी वह हवेली—

पचास साल से बंद।

पचास साल से अभिशप्त।

लोग कहते थे—

"उस हवेली में जो गया, वो लौटकर नहीं आया।"

किसी की जुबान काँपती, किसी की नज़रें झुक जातीं।

पर सब एक ही बात पर अड़े रहते—

“वहाँ कुछ है… जिसका नाम लेना भी ठीक नहीं।”

गाँव के बुजुर्ग भी अब हवेली का ज़िक्र करने से डरते थे।

क्योंकि जितनी घटनाएँ सबको याद थीं…

उतनी ही बातें थीं जिन्हें कोई खुलकर बोलता नहीं था।

गाँव का वह सबसे पुराना घर —

जो कभी सम्पन्नता का निशान था,

अब आधा टूटा हुआ, दीवारें परे-परे से गिरतीं,

और भीतर जमी धूल वर्षों के रहस्य ढँकती रहती।

यह घर कभी वर्मा परिवार का था।

आज भी है — बस लोग इसमें रहते नहीं।

सालों पहले,

इस घर में एक नौकरानी की हत्या हुई थी।

ऐसा कहा गया था कि उसने रात में किसी को कुछ करते देख लिया था।

किसने, क्या — किसी ने नहीं बताया।

फिर उसी हवेली में परिवार का मुखिया गायब हुआ।

वक्त बीता,

और फिर परिवार का सबसे छोटा लड़का गायब हुआ।

उसके बाद परिवार डर गया और सबने वह घर छोड़ दिया।

गाँव वाले मानते थे—

नौकरानी की आत्मा अब भी वहीं है।



आदित्य वर्मा,

करीब २८ साल का, पढ़ा-लिखा, साफ़ सोच वाला,

भूत-प्रेत जैसी चीज़ों पर बिल्कुल भरोसा न करने वाला उस परिवार का लडका।

शहर में पढ़ाई पूरी करके कुछ दिनों के लिए गाँव आया था।

वह हवेली की कहानी जानता था, पर सब उसे झूठ लगता था। पर कोई बात तो थी जो उसके मन में एक बात खटकती थी

उस हवेली का सच क्या था?

क्यों उसका परिवार आज भी उससे नज़रें चुराता है?

क्यों हर किस्सा अधूरा है?


उस दिन दोपहर अजीब थी।

हवा ज़रा भी नहीं चल रही थी…

पेड़ों की पत्तियाँ ठहरी हुईं…

और गाँव के लोग जैसे अनजाने डर से भीतर छुपे हुए।

आदित्य को लगा कि यही सबसे सही वक़्त है—

किसी को बताए बिना पुरानी हवेली देखने का।

वह चुपचाप निकल गया।

पगडंडी के मोड़ पर पहुँचते ही हवेली का ऊपरी हिस्सा दिखा—

टूटी हुई मुंडेरें, पसरी हुई बेलें,

और धूप में भी अँधेरी लगती खिड़कियाँ।

एक पल को लगा जैसे हवेली उसे ही देख रही हो।

“पुरानी हवेली के भीतर एक धूल भरा कमरा, टूटी खिड़कियाँ, जमीन पर पड़ी सूखी लकड़ियाँ और दीवारों पर उखड़ी हुई प्लास्टर। कमरे के कोने में एक धुँधली आकृति जैसी परछाईं दिखाई दे रही है।”
“हर अँधेरा कमरे का अपना सच होता है… बस सुना नहीं जाता।”


हवेली के बड़े लोहे के दरवाज़े पर जंग जमी थी।

आदित्य ने धक्का दिया—

दरवाज़ा चर्र-चर्र की धीमी, पर लंबी आवाज़ के साथ खुल गया।

अंदर धूल उड़ने लगी।

पहला कदम रखते ही

पाँव के नीचे पुराना फ़र्श थोड़ा धंसा।

माहौल में सीलन, पुराने लकड़ी के तेल की गंध,

और कहीं दूर से आती हल्की-सी खुसर-पुसर जैसी आवाज़ें…

कुछ समझ नहीं आया— हवा? दीमक? या कुछ और?

आदित्य बढ़ता गया।

हवेली के पिछले हिस्से में एक छोटा, अंधेरा कमरा था।

यहीं वह नौकरानी मरी थी।

आदित्य ने दरवाज़ा खोला।

अंदर बस एक टूटा हुआ खाट,

दीवार पर एक पुराना सा दीया का निशान,

और फ़र्श पर काली पड़ चुकी कुछ लकीरें…

हवा जैसे एक पल को बिल्कुल बंद हो गई।

एक ठंडी सनसनाहट उसकी गर्दन से गुज़री।

किसी के चलने जैसी हल्की सी आवाज़ पीछे से आई।

वह पलटा—

कोई नहीं।

कमरा अचानक और तंग लगने लगा।


जैसे ही वह कमरे से बाहर निकला—

ऊपर की मंज़िल पर किसी के तेज़ कदमों की आवाज़ आई।

ठाक… ठाक… ठाक…

तीन कदम— और फिर चुप्पी।

आदित्य का दिल ज़ोर से धड़का।

वह खुद से बोला—

"कोई जानवर होगा… या घर की लकड़ी बैठ रही होगी।"

पर भीतर एक अजीब खिंचाव था।

एक आवाज़ मन में कह रही थी—

ऊपर जाओ।

इस आवाज़ का जवाब न भीतर था, न बाहर…

फिर भी आदित्य सीढ़ियों पर चढ़ने लगा।


ऊपर का लंबा कमरा हमेशा बंद रखा जाता था।

कहते थे—

यह वही जगह है जहाँ परिवार का सबसे छोटा लड़का आखिरी बार देखा गया था।

आदित्य ने दरवाज़ा धक्का देकर खोला।

खिड़की टूटी हुई, पर उजाला बहुत कम…

कमरे में धूल और जाले लगे हुए थे।

फिर भी—

कमरे के बीचों-बीच

मिट्टी पर कोई ताज़ा निशान था…

जैसे कोई ज़रा पहले यहाँ खड़ा हुआ हो।

उसके पाँव रुक गए।

उसी समय पीछे से दरवाज़ा…

धीरे… बहुत धीरे…

खुद-ब-खुद बंद हो गया।

और कमरा अँधेरे में डूब गया।


आदित्य ने गहरी साँस ली।

लेकिन अचानक उसे महसूस हुआ—

अँधेरे में… उसकी अपनी साँस के साथ…

एक और साँस चल रही है।

बहुत धीमी… बहुत पास…

जैसे बिल्कुल उसके कान के पीछे।

वह वहीं जड़ हो गया।

किसी और के कदम…

किसी और की हलचल…

पर आँखों को कुछ भी नज़र नहीं आ रहा।

कमरे में जो था,

वह दिख नहीं रहा था…

पर ज़रूर मौजूद था।


अचानक खिड़की के टूटे हिस्से से एक हल्की रोशनी आई—

और उसी क्षण एक पल भर के लिए

कमरे के कोने में

एक औरत की धुंधली आकृति दिखी।

लंबे खुले बाल,

सफ़ेद साड़ी…

और चेहरा धुँध जैसा, जिसमें आँखों की जगह बस गहरा काला गड्ढा…

आदित्य डर से पीछे हट गया—

पर पीछे दीवार थी।

औरत की परछाई एक पल में गायब हो गई।

कमरा फिर शांत।

बस दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी।


कमरे का तापमान अचानक गिर गया।

दीवारें जैसे भीतर की किसी स्याह बात को फुसफुसा रही हों।

कुछ पल बाद…

दरवाज़ा खुद खुल गया।

आदित्य बाहर भागा।

सीढ़ियों से नीचे उतरा…

हल्का लड़खड़ाया…

पर रुका नहीं।

हवेली के मुख्य दरवाज़े तक पहुँचते ही

पीछे से ऐसी आवाज़ आई जैसे कोई पुरानी, भारी चीज़ घसीट रहा हो।

वह पलटा नहीं।

बस हवेली से बाहर निकल आया।

घर पहुँचकर आदित्य ने किसी से कुछ नहीं कहा।

पर रात भर सो नहीं पाया।

हर बार आँखें बंद होतीं—

वह धुंधली औरत सामने खड़ी मिलती।

अगले दिन वह पुराने कागज़, बयान, और परिवार के इतिहास को खंगालने लगा।

और धीरे-धीरे बात साफ़ होने लगी—

सबकुछ वैसा नहीं था जैसा गाँव वालों को बताया गया था।

जो छुपाया गया था… वह कहीं ज्यादा भयानक था।


रात बीत चुकी थी। सुबह की हल्की धूप गाँव की पगडंडी पर फैल रही थी। पर आदित्य के भीतर रात का अँधेरा अभी भी जाग रहा था। हवेली में जो हुआ, वह सपना नहीं था… और न ही वह कोई भ्रम था। सुबह–सुबह वह बाहर खड़े बूढ़े लोगों की फुसफुसाहट सुन रहा था। कोई कह रहा था—

“हवेली पर फिर किसी की परछाई देखी गई…”

कोई दूसरा बोला—

“पता नहीं कौन बार-बार उस जगह को कुरेद रहा है।”

आदित्य ने मन ही मन सोचा—" ये लोग कुछ छुपा रहे हैं।”

दोपहर होते-होते उसका शक और गहरा हो गया। वह गाँव के चाय वाले से बात करने लगा, फिर कोने में बैठे एक बुजुर्ग से। धीरे-धीरे कुछ जोड़–तोड़ कर, उसे एक टुकड़ा-टुकड़ा सच मिलना शुरू हुआ।


गाँव के एक चुप्पे वृद्ध ने काँपती आवाज़ में कहा—

“बेटा… पचास साल पहले जो नौकरानी मार दी गई थी… उसकी लाश कभी मिली ही नहीं। बस इतना पता चला था कि वो हवेली के अंदर कहीं गड़ी थी…”

आदित्य का दिल धक से रह गया। उसने पूछा—

“कहीं गड़ी… मतलब हवेली में ही?”

बुजुर्ग ने धीरे से सिर हिलाया।

“हां… और जिसने उसे मारा था, वह भी उसी हवेली का आदमी था… तुम्हारे दादा का छोटा भाई।”

यह सुनकर वीरेंदर जैसे जम गया। उसे याद आया—हवेली की घुटन, बासी हवा, लकड़ी के फर्श के नीचे जैसे कोई चुपचाप साँस ले रहा हो।


शाम ढल रही थी। आसमान पर बादल जमने लगे थे। आदित्य अभी भी सोच रहा था—

“अगर नौकरानी की आत्मा है… तो वह घरवालों को ही क्यों ढूंढ़ रही है?”

पर आदित्य को अब डर से ज़्यादा curiosity —एक ज़िद जाग चुकी थी।

“मैं सच देखे बिना नहीं रुकूँगा।”

उसी रात, चाँद के बीच झिलमिलाते बादलों के नीचे, वह फिर निकल पड़ा… उसी हवेली की ओर।


आज दरवाज़ा पहले से भी भारी लग रहा था। जैसे किसी ने अंदर से उसे पकड़ रखा हो।

धीरे-धीरे वह अंदर कदम रखता गया।

क्रर्र… क्रर्र…

लकड़ी की फर्श वही कराह, वही ठंडी हवा…

पर आज एक और चीज़ थी—साफ़ गंध… मिट्टी की… ताज़ी मिट्टी की।

उसने लालटेन जलाई और उस जगह की तरफ बढ़ा जहाँ पिछली रात उसे साया दिखा था।

फर्श पर हल्की सी उभरी हुई दरारें…

उसने फर्श पर थपथपाया—ठक ठक… ठन…

एक जगह की आवाज़ बिल्कुल खोखली थी।

आदित्य का दिल तेज़ धड़कने लगा।

“क्या यहीं…?”

वह दो ईंटें हटाकर नीचे झाँकने लगा।

अंधेरा गहरा था, पर बदबू वही—पुरानी, बंद, सड़ी हुई।

“हवेली के गहरे तहखाने में जमीन फटी हुई है, जहाँ दो पुराने कंकाल साथ-साथ पड़े हैं। मिट्टी, जंग लगे बर्तनों और टूटी लकड़ियों के बीच हल्की रोशनी गिर रही है, माहौल बिल्कुल भयावह।”
“सच कितना भी पुराना हो… मिट्टी उसे हमेशा नहीं छुपा पाती।”


फर्श का ढीला तख्ता उठाते ही धूल उड़ी।

अंदर गहरी जगह थी… और उस जगह में…

एक सफेद हड्डी।

आदित्य काँप गया। उसके हाथ पसीने में भीग गए।

उसने और हटाया—कपड़ों के पुराने टुकड़े…

एक टूटी चूड़ी…

और फिर एक पूरा कंकाल।

अचानक चारों ओर की हवा जैसे भारी हो गई।

लालटेन की लौ काँपने लगी।

उसने पीछे मुड़कर देखा—

कुछ नहीं।

पर हवा में किसी के कदमों की आहट… किसी के रोने की गूँज… किसी की साँस उसके कंधे के पीछे।

आदित्य फुसफुसाया—

“तुम यहीं थीं… इतने सालों से… कोई क्यों नहीं बताता था…”

और तभी…

एक ठंडी उँगली उसके गाल को छू गई।

वह डर से जड़ हो गया।

पीछे कुछ हलका-सा हिल रहा था… जैसे कोई औरत अपने लम्बे बालों को धीरे-धीरे घसीटते हुए खड़ी हो।

पर चेहरा नहीं। बस छाया।

छाया ने तख्ते के नीचे की ओर इशारा किया… मानो कह रही हो—

“सच सिर्फ यही नहीं है… आगे देखो…”

कंकाल के नीचे एक पुराने ताबीज का डिब्बा था।

आदित्य ने काँपते हाथों से खोला।

अंदर—

एक खत।

पीला पड़ा हुआ, पर अक्षर साफ़ थे।

खत में लिखा था—

“जिसे भी ये मिले—

सावधान।

मैंने परिवार को बचाने के लिए झूठ बोला।

नौकरानी को जिस रात मारा गया, वह अकेली नहीं थी।

उसके साथ एक और था।

एक बच्चा।

उस बच्चे की मौत किसी ने नहीं देखी।

वह इस हवेली में ही भटक रहा है।”

आदित्य की साँस रुक गई।

“तो जो लोग गायब हुए… वो उसी बच्चे की छाया ने…?”

उसी क्षण दरवाज़े से हल्की-सी खरखराहट हुई।

लगभग फुसफुसाता हुआ एक छोटा, कच्ची उम्र का स्वर—

“मुझे भी निकालो…”

आदित्य जैसे बिजली के झटके से उछल पड़ा।

पीछे देखा—एक छोटा-सा आकार… दीवार के कोने में सिमटा हुआ… सिर्फ दो चमकीली आँखें।

वह आवाज़ फिर आई—

“हम दोनों को दफनाया था…”


आदित्य का दिमाग सुन्न—

“दो…? दो लाशें…?”

उसने लालटेन नीचे की और डाली।

कंकाल के नीचे मिट्टी अब भी थोड़ी ढीली थी।

और भीतर… एक और छोटी खोपड़ी…

जैसे ही उसने हाथ आगे बढ़ाया—

दरवाज़ा जोर से धड़ाम बंद हुआ।

हवेली के भीतर अँधेरा भर गया।

लालटेन बुझ गई।

अब सिर्फ आवाजें—

औरत की सिसकियाँ…

बच्चे की रोती हुई हँसी…

दीवारों पर दस्तक…

फर्श पर छोटे पैरों की दौड़…

आदित्य चीखा—

“मैं तुम्हें आज़ाद करने आया हूँ! मुझे जाने दो!”

लेकिन हवेली जैसे बोल रही थी—

“जो सच जान लेता है… वह लौटता नहीं।”

उसका गला कसने लगा। जैसे कोई अदृश्य हाथ उसकी गरदन भींच रहा हो।

उसने पूरी ताकत से चीख मारी—

और अँधेरा अचानक छँट गया।


गाँव वालों ने हवेली के बाहर दरवाज़ा खुला देखा।

अंदर गए—

तो फर्श के पास दो कंकाल खुले पड़े थे।

और उनके बीच वीरेंदर बैठा था—

बिल्कुल जीवित…

पर आँखें खाली।

चेहरा सफेद।

बात करना बंद।

बस एक ही वाक्य दोहराता जा रहा था—

“मौत के दरवाज़े के पीछे… सच छुपा था… मैंने खोल दिया।”

गाँव वाले समझ नहीं पाए क्या हुआ।

पर एक बात सबको साफ़ दिख रही थी—

हवेली अब पहले से भी ज्यादा जागी हुई लग रही थी।

जैसे कोई और… कुछ और… आज़ाद हो गया हो।


उसी शाम आदित्य ने आखिरी बार एक वाक्य कहा—

और फिर चुप हो गया।

“हवेली में सिर्फ वह औरत नहीं थी…

उसका बच्चा भी था…

और जो लोग गायब हुए…

उन्हें किसी ने मारा नहीं…

वह बच्चा उन्हें अपने साथ खेलने ले गया।”

उसके बाद वह खामोश हो गया।

माँ-बाप शहर ले गए।

हवेली फिर सील कर दी गई।

पर गाँव वाले कहते हैं—

उस रात के बाद हवेली का दरवाज़ा कभी बंद नहीं रहा।

जैसे कोई अंदर से खोल देता हो।

और कभी-कभी… बच्चों की हँसी रात में अब भी सुनाई देती है।

जंगल की चुड़ैल

 

एक 30 वर्षीय शिक्षक कंधे पर बैग टांगे, आदिवासी गाँव में सामने स्कूल और आदिवासी बच्चे है। पीछे मिट्टी के घर, दूर धुंध में जंगल और गाँव   सुबह का माहौल शांत
“जहाँ शिक्षा रोशनी थी… वहीं अंधेरा भी अपनी राह देख रहा था।”

गर्मी अपनी विदाई ले रही थी, लेकिन सातपुडा के अंदरूनी इलाकों में उमस अब भी सांसों से चिपकी रहती थी। वही मौसम  था। 

 आदिवासी गाँव “कुंदरवाही” में नया स्कूल शिक्षक नियुक्त होकर आया था— अनिकेत देशमुख (28)।

अनिकेत पतला, गंभीर, पढ़ा-लिखा और आधुनिक सोच वाला युवक था।

उसने B.Ed, M.A. पूरी लगन से किया था, शहर में पला-बढ़ा था, और सोच बिल्कुल साफ़ थी—

“ज्ञान इंसान को डर से आज़ाद करता है।”

कुंदरवाही एक छोटा आदिवासी गाँव था।

बांस और मिट्टी से बने घर…

बिजली कभी रहती तो कभी नहीं…

रात इतनी काली कि आसमान का तारा भी अपनी रोशनी बचा कर रखे।

वैसे गाँव शिक्षा से दूर था, ज्यादातर लोग अनपढ़ ही थे।

अनिकेत को सरकारी क्वार्टर मिला था —

स्कूल के पास एक पुराना टिन-छत वाला, 

 पीछे धान के खेत और सामने जंगल, जिसके बारे में गाँव की हरेक जुबान चुप-सी रहती थी।

  स्कूल के पहले दिन में सिर्फ 12 बच्चे आए थे।

नंगे पाँव, फटे लेकिन साफ कपड़े, आँखों में सीखने की भूख थी। गाँव के लोग अनिकेत को बड़ी इज़्ज़त देते थे—

शिक्षक थे, बाहरी दुनिया का ज्ञान लाए थे, इसलिए सम्मान था। पर वह एक बात बार बार अनिकेत को समझाते—

“रात में बाहर मत निकलना साहब… और निकलो तो जंगल की ओर तो बिल्कुल मत देखना।”

पर पहली बार यह बात उसे स्कूल के चौकीदार नारायण काका ने कही थी।

दोपहर थी, धूप कड़क थी, बात करते हुए काका की आवाज़ में कंपकंपी थी।

“साहेब, रात अलग है यहाँ की… इसलिए रात को घर से मत निकला करो।”

अनिकेत हँस पड़ा।

“अरे काका, जंगल है शेर-भालू होंगे, और क्या?”

नारायण काका ने लाल आँखों से उसे देखा, चिंता से।

“शेर-भालू दिख जाए तो जान बच सकती है साहेब…पर वो दिख गयी तो… जान भी नहीं बचती, और इंसान इंसान भी नहीं रहता।”

अनिकेत ने बात बदल दी।


गाँव की शाम वैसे जल्दी ढलती थीं।

6 बजते-बजते सड़कों पर कोई नहीं रहता, बस सन्नाटा… और दूर जंगल का साँस लेता अंधेरा।

पहले हफ्ते अनिकेत ने एक चीज़ नोटिस की—

कोई भी महिला रात में कपड़े बाहर नहीं सुखाती

बच्चे सूरज ढलते ही घर भर जाते

कुत्ते भी जंगल वाली दिशा में नहीं जाते और नाही भौंकते

और कभी-कभी… रात 12 के बाद हवा में एक रोती-सी आवाज़ आती थी

जब उसने सरपंच बाबू पटेल से पूछा, तो उससे भी वही जवाब मिला—

“रात में जंगल हमसे बड़ा हो जाता है, साहेब।”

अनिकेत को अब यह सिर्फ अंधविश्वास लगता था।

उसे लगा— अनपढ़ लोग हैं, डर को ही कहानी बना लिया है इन्होने।

“रात में शिक्षक अकेले गाँव से बाहर जंगल की ओर जा रहा है। मंद चाँदनी, घने पेड़, सन्नाटा और हल्की धुंध के बीच उसका चेहरा जिज्ञासा से भरा है, लेकिन हवा में एक अनजाना डर तैर रहा है।”
“कुछ राहें सवालों से शुरू होती हैं… और खामोशी पर खत्म।”


7वें दिन की, आधी रात।

कुंदरवाही सो चुका था।

अनिकेत की आँख खुली।

पता नहीं क्यों, लेकिन गहरी नींद में भी कुछ बेचैन-सा महसूस हो रहा था।

उसने मोबाइल देखा—

01:13 AM

कहीं से हल्की ठंडी हवा खिड़की से टकरा रही थी।

कोई आवाज़ नहीं।

फिर भी… मन भारी था, जैसे कोई देख रहा हो।

वह बाहर आ गया।

पूरा गाँव सो चुका था।

बिजली गुल थी, केवल आसमान चाँद की हल्की राख मिट्टी सी रोशनी दे रहा था।

उसने पहली बार जंगल की ओर देखा।

घना अंधेरा…

पेड़ों की लंबी परछाइयाँ…

नीरस सन्नाटा…

“लो भई, यही है वो भूतिया जंगल?”

उसने खुद से कहा और मुस्कुराया।

वह मुड़ने ही वाला था कि—

घुर्रर… घुर्रर…

नीचे से, किसी की भारी, गहरी, खिंची हुई साँस जैसी आवाज़ आई।

अनिकेत का शरीर स्थिर था।

नज़र जंगल की ओर।

फिर मौन।

“कोई जानवर होगा…”

उसने अपने तर्क की ढाल फिर से उठा ली।

मुड़ा—और

धड़ाम!

पीठ पर किसी ने जैसे भयंकर ताकत से धक्का दिया।

वह ज़मीन पर गिरा पडा।

मिट्टी मुंह में, कोहनी छिल गई।

पीछे देखा—तो कोई नहीं था।

उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई, पर दिमाग अब भी इंकार कर रहा था।

वह घर के अंदर लौटा, दरवाज़ा बंद किया और सो गया।

लेकिन…

उस रात के बाद उसे नींद कभी वैसी नहीं आई।

अगले दिन स्कूल में वह खड़ा पढ़ा रहा था, तभी उसे खिड़की के बाहर कुछ धुंधला-सा दिखा।

एक सफ़ेद, लंबा, फैली हुई आकृति।

चेहरा नहीं… बस धुंध।

पलक झपकाई—तो सब गायब।

दिमाग बोला—की थकावट है…

पर शरीर बोला— कुछ तो ग़लत है…



उस दिन के बाद अब रोज़ रात को उसे सपने आने लगे थे—

एक औरत, फटी साड़ी पहने

बाल ज़मीन तक

चेहरा धुंधलासा,

आवाज़… नहीं, बस साँस

सपने में वह बस उसे बस देखती रहती है।

और यह देखना, किसी छू लेने से ज़्यादा भारी था।


एक दिन उसने देखा—

उसके क्वार्टर के दरवाज़े के बाहर छोटे-छोटे पैरों के मिट्टी के निशान दिखाई दिए। उसने नारायण काका को दिखाया तो उसकी आँखें फैल गईं।

“साहेब… आपको बुलावा आया है। अब देर मत कीजिए… गाँव के पुजारी को बताना पड़ेगा।”

अनिकेत इस बार कुछ नहीं बोला।

पहली बार, उसके तर्क की दीवार में दरार थी।


गाँव के पुजारी, बिरसा भगत, बूढ़े, चेहरे पर पेंट की लकीरें, गले में काले हड्डियों की माला।

उन्होंने निशान देखे, आँखें बंद की, फिर धीरे से बोले—

“वो तुम्हें देख चुकी है। अब तुम्हारा लौटना मुश्किल है।”

अनिकेत की रीढ़ ठंडी हो गई।

“कौन…?”

बिरसा भगत ने जंगल की दिशा में उंगली उठाई—

“पहली औरत। जंगल की बेटी। जिसको गाँव चुड़ैल कहता है।”

उसके बाद उन्होंने बस इतना कहा:



अब ये घटनाएँ लगातार बढ़ रही थी—

रात में खिड़की पर उंगलियों से थपथपाहट

पानी के लोटे अपने आप गिर जाते

नींद में किसी के बाल उसे छूते

कान में फुसफुसाहट— “आ… जा…”

अनिकेत की हालत खराब होने लगी।

आँखों के नीचे काले घेरे बन गये थे।

बच्चे उसे देख कर डरने लगे थे।

गाँव वालों ने झाड़-फूँक, ताबीज़, धुआँ, हवन— सब किया।

पर चीज़ें कम नहीं… बढ़ती गईं।


उस रात आकाश में चाँद नहीं था।

चारो तरफ बस अँधेरा था।

अनिकेत बिस्तर पर जाग रहा था।

दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था।

कमरा ठंडा… पर पसीना गर्म।

तभी उसे बाहर वही आवाज़ सुनाई दी—

घुर्रर… घुर्रर…

इस बार दरवाज़े के ठीक बाहर से।

वह उठा, जैसे किसी सम्मोहन में खिंच गया हो।

दरवाज़ा खोला।

कुछ नहीं था।

पर उसके पैर अपने आप कदम उठा रहे थे…

जंगल की ओर। वह जंगल की तरफ जा रहा था।

जंगल के किनारे पहुँचकर अनिकेत रुका। सब तरफ ग था घना अंधेरा था, पेड़ शांत खड़े थे और फिर 

तभी—

एक सफ़ेद आकृति… हवा में तैरती हुई… 

चेहरा धुंध था, तेज़, चौड़ी… अमानवीय।

उसने हाथ उठाया…

धीमे… बहुत धीमे…

और अनिकेत की ओर इशारा किया—

“आ…”

बस उसके बाद जंगल में एक तेज चीख उठी पर जंगल ने वह आवाज़ दबा दी।

“घने जंगल के बीच शिक्षक का निष्प्राण शरीर ज़मीन पर अजीब स्थिति में पड़ा है। रात का अँधेरा, टूटे पत्ते, सन्नाटा और दूर पेड़ों के बीच धुंधली आकृति का एहसास… जैसे जंगल अब भी उसे देख रहा हो।”
“जिस रात ने उसे पुकारा… उस रात ने उसे लौटा भी नहीं दिया।”






अगले दिन जब अनिकेत घर में नहीं दिखा तो गाँव वालों ने खोज बिन शुरू की और दिनभर की खोज बिन के बाद आखिर उसे जंगल के भीतर एक पुरानी महुआ की जड़ के पास पाया गया—

शरीर उल्टा-सीधा

गर्दन एक ओर मुड़ी

आँखें खुली, बिना पलक

होंठ हल्के खुले, जैसे कुछ कहने वाला था

चेहरे पर डर नहीं… अवाक शून्य

जैसे आखरी पल में उसने कुछ ऐसा देखा था,

जो डर से भी बड़ा, शब्दों से भी बाहर था।

न कोई खून…

न चोट…

बस जीवन ग़ायब।

अंत

स्कूल बंद कर दिया गया।

क्वार्टर को ताला लगा दिया गया।

गाँव के लोग आज भी जंगल की ओर देखना टाल देते हैं।

और रात 1:13 बजे…

अगर गाँव जाग रहा हो,

तो लोग कहते हैं—

किसी शिक्षक के कदम अब भी जंगल की ओर जाते सुनाई देते हैं…