Rahasya katha

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

"रात का रास्ता: जो लौटने नहीं देता"

 


सर्दी की चुभन और बाइक की आवाज़ बस यही साथ थी मेरे।
रात के करीब 1:40 बजे होंगे…
मैं वापस घर लौट रहा था एक दोस्त की शादी से —
सड़क बिल्कुल सुनसान।
बीच-बीच में कोई पान की दुकान, ढाबा दिखता, पर सब बंद।

मन कर रहा था कहीं चाय मिल जाए… पर हर जगह वीरानी।

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फिर मैंने एक मोड़ पार किया —
सामने एक टूटी हुई नेमप्लेट थी, उस पर नाम मिटा हुआ था।
मुझे लगा शायद पहले भी मैंने इसे देखा है…मैं आगे बढा
पर दो किलोमीटर आगे फिर वही मोड़ —
फिर वही टूटी प्लेट।

अब दिल धड़कने लगा था।

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मैंने एक जगह बाइक रोकी, एक आदमी किनारे खड़ा था —
सिर झुकाये, चेहरा ढंका हुआ…
मैंने पूछा — "भाई, दिनापूर गांव जाने का रास्ता?"
उसने बस उंगली से सामने इशारा किया, कुछ बोला नहीं।
मैं चल पड़ा।
पर अब हर 10 मिनट में वो आदमी मुझे दिख रहा था…
वही कपड़े, वही खामोशी…
अब मै सच में डरने लगा था।

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की तभी एक चौराहा आया — और अचानक सामने एक परछाई सी निकल गई…
मैंने बाइक के ब्रेक दबाए... सीने में ऐसा लगा जैसे किसी ने जोर से दबोच लिया हो…
सांस रुकने लगी… शरीर सुन्न… आंखों के सामने अंधेरा…
मैं अकेला था,
रास्ता पहचाना नहीं जा रहा था।
हर तरफ घना अंधेरा, पेड़ों की छायाएं, हवा की सिसकारी…
शरीर पसीने से तरबतर था…
हर छोटी-सी ससराहट पर जैसे दिल उछलकर गले में आ जाता।
आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी…
पर रुक भी नहीं सकता था।

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पर तभी दूर कहीं से मंदिर की घंटी की आवाज़ सुनाई दी —
मुझे जैसे अंधेरे में कोई उम्मीद की किरण मिल गई।
मैं उसी दिशा में भागने लगा।
रास्ते में कई बार वो परछाईं फिर से सामने आई…
कभी बाईं ओर से गुजरती, कभी झाड़ियों में छिप जाती।
मैं बता नहीं सकता उस वक़्त मेरी हालत कैसी थी —
कांपते हाथ, भीगे कपड़े, और आंखों में सिर्फ एक ही डर… कि मैं कहीं गुम न हो जाऊं।

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आख़िर जैसे-तैसे मंदिर दिखा।
मैंने बाइक वहीं छोड़ दी और दौड़ते हुए मंदिर के अंदर घुस गया।
पुजारी ने देखा —
"अरे बेटा, क्या हुआ?
मैं हांफ रहा था —
शब्द नहीं निकल रहे थे, पर किसी तरह सब कुछ बताया।

उन्होंने मुझे अंदर बैठाया, पानी दिया और बोले:
"तुम बहुत भाग्यशाली हो…
क्युकी रात को जो भी इस रास्ते से जो गुजरता है, वो फिर कभी नहीं दिखता, अच्छा किया जो यहां आ गये, अब शांत हो जाओ तुम ठीक हो।
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मैं रात भर वहीँ रहा।
नींद जैसे किसी बोझ के नीचे दब गई थी।
सपने ऐसे कि कोई मेरे कानों में फुसफुसा रहा हो…
"बाहर आओ… लौट आओ…"
कभी ऐसा लगा किसी ने टांग खींची,
कभी डर से चिल्लाया पर आवाज़ बाहर नहीं जा रही थी।
मंदिर की दीवारों पर अजीब सी परछाइयाँ मंडरा रही थीं।
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अचानक आंख खुली —
धूप मंदिर के अंदर फैल चुकी थी।
बाहर कुछ लोग दिखे।
फिर मैं बाइक लेकर वहां से चला आया।
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उस दिन के बाद —
मैंने उस रास्ते से कभी कदम नहीं रखा।
और आज भी,
रात को बाहर निकलने से पहले दिल एक बार ज़रूर धड़कता है।
कभी-कभी लगता है —
वो परछाईं… आज भी मेरा रास्ता देख रही होगी।
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रविवार, 29 जून 2025

"टंकी का साया: एक रात जो कभी नहीं गुज़री"

 

A chilling book cover of a Hindi horror story "टंकी का साया" showing a boy sleeping with a haunted radio on the table and a dark shadow lurking behind him.
"टंकी का साया" — एक डरावनी रात की कहानी, जहाँ एक पुराना रेडियो और एक रहस्यमय साया, हमेशा के लिए नींद छीन लेता है।

मैं मुंबई के इस पुराने बिल्डिंग में पिछले पाँच साल से रह रहा हूँ। एकदम टॉप फ्लोर पर मेरा छोटा सा कमरा है — अकेला, शांत, और बिल्कुल वैसा जैसा मुझे पसंद है। छत से सटा हुआ, बस एक दरवाज़ा और एक खिड़की, और बाहर खुला आसमान।

मेरे कमरे के ठीक ऊपर है बिल्डिंग की छत… जहाँ दो नीली पानी की टंकियां हैं। और उनके पीछे एक है... तीसरी टंकी।
काली, जंग लगी, तिरछी सी — जैसे किसी ने बरसों से छुआ ही न हो।

बचपन में जब पहली बार छत पर गया था, दादी ने कहा था —
"उस टंकी को मत छूना। उसमें किसी का वास है।"
तब हँसी आई थी… लेकिन वो बात जाने क्यों आज तक भूली नहीं।

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🌧️ पहली हलचल – जब टंकी से कोई गुनगुनाया...

चार दिन पहले बारिश शुरू हुई थी।
रात के करीब साढ़े बारह बजे थे। बाहर बूंदें टीन की छत पर बज रही थीं… और मैं नींद में जाने ही वाला था कि एक अजीब आवाज़ आई।

गुनगुनाने की आवाज़...

बहुत धीमी, जैसे कोई छत के ऊपर बैठा हो… और पुराने जमाने का कोई लोकगीत गा रहा हो।
आवाज़… किसी औरत की थी।

मैंने रेडियो बंद किया, मोबाइल की बैटरी देखी — सब शांत था। लेकिन वो गुनगुनाहट लगातार चल रही थी।

मैं खिड़की तक गया, गर्दन ऊपर की और उठाई… कुछ नहीं दिखा। लेकिन अब आवाज़ थोड़ी पास आ गई थी।
जैसे कोई मेरे कमरे की छत पर घूम रहा हो… धीरे-धीरे।


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😨 दूसरी रात – कुछ गिरा, कुछ हिला, कुछ बदला

अगली रात, मैंने ठीक 11 बजे दरवाज़ा बंद कर दिया था।
कोशिश की कि जल्दी सो जाऊं — लेकिन ठीक 12:13 पर वही गाना फिर से बजने लगा।
इस बार सिर्फ गुनगुनाहट नहीं थी — टंकी में किसी चीज़ के गिरने की आवाज़ भी आई। जैसे किसी ने पानी में पत्थर फेंका हो।

मैंने दरवाज़ा खोल कर छत की सीढ़ियों की ओर देखा… लेकिन वहाँ सिर्फ अंधेरा था।

मुझे पहली बार सच में डर लगा।

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🪞 तीसरी रात – टंकी के ढक्कन में चेहरा...

तीसरी रात, हिम्मत करके मैं छत पर गया।
बारिश हल्की थी, हवा चल रही थी। दो टंकियां तो चमक रही थीं… लेकिन तीसरी टंकी —

वहाँ जैसे कुछ भीगता हुआ बैठा था। काले बाल, झुकी हुई पीठ… और जैसे ही मैंने करीब जाना चाहा — टंकी का ढक्कन हिला।

मैं वहीं रुक गया।

फिर ढक्कन के बीच से एक चेहरा झाँका — एकदम सीधा मेरी ओर, गीला, सफेद, बिना पलक झपकाए।

मैं उल्टे पाँव भागा।


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🌄 सुबह – जब सीढ़ियों पर पानी के निशान थे...

सुबह जब नीचे उतर रहा था, तो सीढ़ियों पर गीले पैरों के निशान थे — जो टंकी की दिशा से नीचे मेरे दरवाज़े तक आए थे… और फिर लौट गए।


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अब चार दिन हो चुके हैं।
मैं छत पर नहीं गया।

लेकिन हर रात 12:13 पर वही गाना अब मेरे कमरे के अंदर सुनाई देता है।

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"वो तीसरी टंकी अब खाली नहीं रही... अब उसमें कुछ है। और शायद… वो मुझे पहचान चुका है।"

गुरुवार, 26 जून 2025

" वह रेडियो अब भी बजता है..."

 

लेटे हुए लड़के के पास मेज़ पर रखा पुराना रेडियो और पीछे खड़ा एक रहस्यमयी काला साया – डरावनी हिंदी कहानी का पोस्टर।
"वो एक पुराना रेडियो था — किसी ने गिफ्ट किया था।


 ये कोई कहानी नहीं…

ये वो रात है, जब मुझे पहली बार अपनी ही धड़कनों से डर लगा।


मेरी नाइट शिफ्ट खत्म हुई थी, और मैं ऑफिस से लौटकर थककर गिरा था।

वही कमरा – शहर की सीमा पर, अकेला मकान, तीन मंज़िलों पर बस मैं।


उस दिन मेरा बर्थडे था।

ऑफिस में किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन एक सहकर्मी अनुज ने चलते-चलते एक पैकेट दिया।

"पुराना है, पर चलता है… तुझे पसंद आएगा," उसने मुस्कुराकर कहा।

पैकेट खोलते ही धूल सी उड़ गई।

अंदर था एक पुराना, लकड़ी का, डायल वाला टेबल रेडियो।

मुझे बढ़ी खुशी हुई।


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मैंने रेडियो को साफ किया, प्लग लगाया… और यकीन नहीं हुआ –

आवाज़ बिलकुल साफ…

पुराने ग़ज़ल, Rafi, Kishore, गुलज़ार के इंटरव्यूज़…


शाम को काम के बाद रेडियो सुनना अब मेरी आदत बन गई थी।


हर रोज़ 11 बजे बिस्तर पे लेटकर गाने सुनते-सुनते सो जाता।

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 फिर आई वो रात… 7 जून की

उस दिन बिजली गई हुई थी।

चारों ओर सन्नाटा, छत पर पानी की धीमी टपक…

मैंने मोमबत्ती जलाई और रेडियो चालू किया।


अजीब बात ये थी —

बिजली नहीं थी… लेकिन रेडियो चल रहा था।


मैंने सोचा — शायद बैटरी होगी।


11:43 बजे – मैं ग़ज़ल सुनते-सुनते सो गया।


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 और फिर... आधी रात को

12:16 AM

"Trrrrhhhkk… khhhh… तू सुन रहा है न?"


मैंने आंखें खोलीं।

कमरा ठंडा हो चुका था, सांसें कुहासे जैसी निकल रही थीं।

रेडियो अपने आप ऑन था।


कोई आवाज़ नहीं… बस static…


फिर… एकदम साफ़ औरत की धीमी आवाज़ –


 "121.6 FM… मत पलटना…"

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 कमरे का माहौल देख

मैं कांप उठा।

बाहर तूफानी हवा, खिड़की खुद-ब-खुद खड़कने लगी।

टेबल पर रखी मोमबत्ती बुझ गई।


मेरे हाथ से मोबाइल गिर गया, उसकी लाइट अपने आप ऑन थी, और स्क्रीन पर कुछ लिखा था —

"जो तू सुन रहा है, वो मैं नहीं चाहती कि कोई और सुने…"


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 डर… भीतर तक उतर गया


मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।


रेडियो की आवाज़ अब मेरी तरफ़ नहीं, कमरे की दीवारों से टकरा रही थी।


जैसे कोई बाहर से बोल रहा हो…

या कोई अंदर से…


 “अब ये तेरा है… और तू मेरा है।”


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"उस रात कुछ भी सामान्य नहीं था..."

मैंने रेडियो की वो आवाज़ बंद करनी चाही,

पर रेडियो खुद बोल रहा था — "अब ये तेरा है…"


मेरी सांसें तेज़, दिल उखड़ता हुआ…

मैं रेडियो की तरफ़ बढ़ा ही था कि अचानक…


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 कड़कड़ाती बिजली

“धड़ाम!!!”

बिजली इतनी जोर से कड़की कि कमरे की सारी दीवारें थर्रा उठीं।

लाइट पहले ही जा चुकी थी…

अब तो खिड़की की तरफ से हलकी सी रौशनी आई —

सिर्फ एक सेकंड के लिए…


और उस एक सेकंड में…


मैंने उसे देखा।


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खिड़की के पास… एक लड़की का साया

भीगी हुई… सफेद साड़ी में…

बाल चिपके हुए, चेहरा झुका हुआ…

खिड़की के काँच पर उसके उंगलियों के निशान उभरे हुए।


मुझे कुछ समझ नहीं आया…

मैं डर के मारे हिल भी नहीं सका।


उसने धीरे से सिर उठाया —

उसके चेहरे पर न आँखें थीं… न होंठ… बस एक गड्ढा।


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 और फिर…

"ठक ठक ठक… ठक ठक ठक…"

दरवाज़ा हिलने लगा।

इतनी जोर से कि लगा — जैसे कोई जानवर दरवाज़ा तोड़ रहा हो।


"खोल... खोल ना... ठंड लग रही है…"


वो आवाज़ औरत की थी, पर इतनी भारी कि जैसे किसी गुफा से आ रही हो।

मैंने दरवाज़े की तरफ़ देखा –

दरवाज़ा खुद-ब-खुद अंदर की ओर झुक रहा था।


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 मैं पसीने में तर-ब-तर था…

मोमबत्ती बुझ चुकी थी…

कमरा अंधेरे में डूबा था…


रेडियो अब खुद से एक ही वाक्य दोहरा रहा था —

"121.6 FM… हर रात… 12:16 को…"


"121.6 FM… हर रात… 12:16 को…"


"121.6 FM… हर रात… 12:16 को…"


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 सारी रात… वही डर

खिड़की पर उसका साया, दरवाज़े पर वो दस्तक।

मैं कोने में सिकुड़कर बैठ गया, काँपता रहा…

मैंने कान बंद कर लिए, रेडियो को पलंग से नीचे फेंक दिया —

पर आवाज़ें बंद नहीं हुईं।


सिर्फ एक पल को चुप्पी हुई…

और तभी दीवार के पीछे से एक फुसफुसाहट आई:


 "तू अगले जन्म में मेरा था ना?... अब इस जनम में क्यों भाग रहा है?"


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सुबह की पहली किरण

जैसे-तैसे आँख लगी…

जब जागा, तो बाहर धूप थी।


कोई आवाज़ नहीं…

रेडियो टूटा हुआ पड़ा था… पर उसमें से फिर भी धीमी सरसराहट निकल रही थी।


मैं बिना कुछ समेटे भागा।

न चप्पल देखी, न ताला लगाया…


बस भागा।


रविवार, 22 जून 2025

“फोल्डिंग कुर्सी: जो एक बार बैठा… वो कभी नहीं उठा”

 

"Hindi horror story poster of a haunted folding chair bought from OLX, with eerie shadows and blood stains."

पुणे में मेरी नौकरी लगी तो मैं बेहद खुश था।

बचपन से मुझे अकेलापन पसंद था — भीड़ से दूर, शांति में जीना।


एक छोटा सा कमरा लिया मैंने। पहली मंज़िल पर।

चारों तरफ हरियाली, और इतनी खामोशी कि अपनी ही साँसें भारी लगती थीं।


शुरुआत में सब ठीक था।

काम, लैपटॉप, और रात को Netflix।


पर कमरे में एक खाली कोना था… खामोश सा, अधूरा सा।


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तुम मानो या नहीं, कभी-कभी हम चीज़ें जानबूझकर खरीदते हैं, जिनकी ज़रूरत नहीं होती — बस ताकि कोई “साथ” महसूस हो।


OLX पर दिखी एक पुरानी फोल्डिंग कुर्सी —

काले रंग की, सीट पर हल्का सा कपड़ा फटा हुआ, और लोहे पर जंग की मोटी परत।


₹99 में थी।

मालिक ने कहा, “बस एक बार यूज़ हुई है… फिर किसी ने इस्तेमाल नहीं किया।”


शब्द अजीब थे… लेकिन मैंने नज़रअंदाज़ किया।

मैंने कुर्सी खरीद ली।

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मैंने उसे उस कोने में रखा, जहाँ रात में अक्सर बैठकर मैं चाय पीता था।

पर अब मैं बेड पर ही बैठा रहा।

कुर्सी उस कोने में… थोड़ी अजीब सी लग रही थी — जैसे उसके आने से कमरे का संतुलन बदल गया हो।


रात को 2:46 पर नींद खुली —

हल्की सी चर्ररर…


कुर्सी हिली थी।

मैंने देखा — हिल रही थी… बिल्कुल हल्के से, जैसे कोई उठकर चला गया हो।



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हर रात… वही आवाज़।

हर सुबह… कुर्सी थोड़ी अलग जगह पर मिलती।


मुझे यकीन था — कोई है यहाँ।

पर कमरा बंद रहता था। कोई खिड़की भी नहीं जिससे हवा अंदर आए।


मैंने एक रात फ़ोन से रिकॉर्डिंग की।


सुबह जब देखा…


कुर्सी 3:00 बजे खुद-ब-खुद खुलती है, जैसे कोई उस पर बैठता हो।

फिर 3:08 पर… घुटनों जैसी आकृति कुर्सी पर हल्के से उभरती है।

और फिर वो धीरे से मेरी तरफ घूमती है…



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हाँ, साँसें।


एकदम धीमी… गरम साँसे।

जैसे कोई बिलकुल मेरे पास खड़ा हो, और मैं न देख पाऊँ।


कई बार तो ऐसा लगा जैसे जब मैं कंप्यूटर पर बैठा होता,

कोई मेरे बालों को देख रहा होता… बहुत करीब से।


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खामोशी।


अगले दिन दीवार पर लिखा था —

"अब तुझे जानने की ज़रूरत नहीं… बस बैठ जा, एक बार।"


मैं काँप उठा।

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उस रात बिजली नहीं थी।

कमरे में घुप अंधेरा। सिर्फ चाँद की हल्की सी रौशनी।


कुर्सी वहीं थी, मेरी तरफ घूरती हुई —

बंद, लेकिन जैसे साँस ले रही हो।


मैं खिंचता चला गया…

और बैठ गया।


फोल्डिंग कुर्सी मुड़ी नहीं। मैं मुड़ गया।

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रविवार, 15 जून 2025

खंडहर घर और खजाना – एक सच्ची रोमांचक खोज

  

"खंडहर घर में खजाना खोजता बच्चा – मिट्टी की दीवारों और पुराने माहौल में रोमांच का दृश्य"
एक उजाड़ खंडहर, एक बच्चा, और एक रहस्यमयी खजाना…

  हर किसी के बचपन में कुछ ऐसी घटनाएँ होती हैं जो समय के साथ धुंधली नहीं होतीं, बल्कि और भी गहरी होती जाती हैं। गर्मियों की एक ऐसी ही छुट्टी में, जब मैं अपने नानाजी-नानी के गाँव गया था, तब मेरे साथ कुछ ऐसा घटा जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया। यह सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसा अनुभव था जिसने मेरे बचपन की सोच को एक अलग दिशा दी।

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गाँव छोटा था, पर बहुत ही सुंदर। खेत, कुएँ, आम के पेड़, और वो मिट्टी की सोंधी खुशबू — सब कुछ बहुत अलग और आत्मीय लगता था। नानाजी का घर भी वैसा ही था, पुराना पर मजबूत। आँगन में एक बड़ा-सा पेड़ था, जिसकी छाँव में नानाजी अक्सर खटिया डालकर बैठा करते थे। मैं वहीं खेलता-कूदता रहता।

     एक दिन, खेलते-खेलते मैं नानाजी के घर से थोड़ी दूर एक पुरानी मिट्टी की हवेली में पहुँच गया। गाँव के लोग कहते थे कि वो घर बरसों से खाली पड़ा है। उसके मालिक कब के शहर चले गए थे। ऊपर से वो बस एक सामान्य सा पुराना घर था, लेकिन अंदर जाकर ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी समय में वहाँ बहुत रौनक रही होगी।

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मै पूरे घर में घूमने लगा। कमरे मिट्टी के, दीवारें थोड़ी झुकी हुई और धूल से ढँकी थीं। एक कमरे में एक पुरानी लकड़ी की अलमारी थी, जो अब जर्जर हो चुकी थी। मैं उसकी ओर बढ़ा, तभी मेरी नज़र ज़मीन पर गई। कुछ चमक रहा था। झुककर देखा — वो एक अजीब सा सिक्का था। पीला, भारी और देखने में सोने जैसा।

मैंने वह सिक्का उठाया और चुपचाप अपनी जेब में रख लिया। घर लौटकर देर तक उसे देखता रहा। वो चमकता था, जैसे उसमें कोई रहस्य छुपा हो।

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 मैअगले दिन फिर से उसी घर में गया। इस बार तो जैसे कोई मुझे खींचकर वहाँ ले जा रहा था। और वहाँ पहुँचकर फिर वही हुआ — ज़मीन पर धूल में एक और वैसा ही सिक्का मिला। अब मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई थी। क्या ये संयोग था? या कुछ और?

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तीसरे दिन जब मैं वहाँ पहुँचा, तो घर की एक दीवार पर मेरी नज़र पड़ी। वो दीवार बाकी सब से ज़्यादा कमजोर लग रही थी, जैसे गिरने को हो। तभी मुझे दीवार में से कुछ झाँकता हुआ दिखा — कुछ गोल, मिट्टी में दबा हुआ।

मैं उत्सुकता में दीवार कुरेदने लगा। थोड़ी मेहनत के बाद एक घड़ा बाहर आया। उसका मुँह बंद था, लेकिन वजन से महसूस हुआ कि उसमें कुछ है। मैंने जैसे-तैसे उसे बाहर निकाला और खुशी तुम उठा.. उसके अंदर ढेरे सारे सिक्के वैसेही जैसे मुझे मिले। मैं दौड़ते हुए  नानाजी के पास गया और उन्हें वहां ले आया।

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    नानाजी जब मेरे साथ वहां पर आये, तो उनकी आँखें भी चमक उठीं। वह हैरानी से बस देखते रहे, चमचमाते सिक्के, दर्जनों की संख्या में। उन्होंने सिक्कों को हाथ में लेकर देखा, यह तुम्हे कहा मिले उन्होने पुछा, मैं सब बता दिया। बिना कुछ बोले फिर उन्होने उस घड़े को उठाया और घर लाकर अनाज वाले कोठे में छिपा दिया।

उन्होंने मुझसे कहा कि इस बारे में मै किसी को कुछ न बताऊँ — न नानी को, न गाँव में किसी को। मैं चुप रहा। वो रात मैं नानाजी से लिपटकर सो गया, जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर दिया हो।

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अगले दिन नानी कहीं बाहर गई थीं। नानाजी ने मुझे बुलाया और कहा, "चलो, ज़रा फिर से देखते हैं।"

हमने कोठा खोला। घड़ा बाहर निकाला।

पर जैसे ही घड़े का ढक्कन हटाया गया — हम दोनों सन्न रह गए।

अब वहाँ सिक्के नहीं थे। सिर्फ काले कोयले थे। हम हैरान रह गए। कल जो सिक्के चमक रहे थे, आज वो गायब थे।

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नानाजी ने कुछ नहीं कहा। घड़े को वापस कोठे में रख दिया और उस बारे में फिर कभी बात नहीं की।

मैं भी चुप रहा। नानी को नहीं बताया। वो सिक्के कहाँ गए — ये सवाल आज भी मेरे मन में है।

क्या वो खज़ाना असली था? क्या कोई देख रहा था और उसने बदल दिया? या वो कुछ ऐसा था जो सिर्फ बच्चों को ही दिखता है?

रविवार, 8 जून 2025

"परछाई का पीछा – देवराज राणा की जासूसी कहानी"

 

"देवराज राणा पर आधारित हिंदी जासूसी कहानी 'परछाई का पीछा' का बुक कवर जिसमें डार्क कोट और सिगार के साथ गंभीर चेहरा दिखाया गया है"

मुंबई की सर्द और गीली दोपहर थी। सड़कें पानी से भरी थीं, और आसमान में काले बादल उमड़ रहे थे।

देवराज राणा अपनी छोटी-सी ऑफिस की खिड़की के पास बैठा सिगार के कश ले रहा था। दीवारों पर पुराने केसों की फाइलें, कुछ अंधेरे में डूबे फोटोग्राफ, और एक कोना जिसमें 9 साल पहले का एक अधूरा फोल्डर रखा था — “परछाई”।

उस केस ने उसे तोड़ा था।

तभी दरवाज़ा खुला।

भीगी नीली साड़ी में एक औरत भीतर आई, चेहरे पर थकान और आँखों में डर।

“मेरा नाम अनामिका शेखर है,” उसने धीमी आवाज़ में कहा।

“मेरे भाई विवेक तीन दिन से लापता हैं। उन्होंने ये चिट्ठी छोड़ी…”

देवराज ने चिट्ठी ली:

 "अगर मैं गायब हो जाऊँ, तो समझ लेना — परछाई वापस आ गई है।"

उसका दिल एक पल को रुक गया।

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9 साल पहले, एक रहस्यमयी कातिल "परछाई" ने मुंबई में 4 हत्याएं की थीं — बिना कोई सबूत छोड़े, बिना कोई चेहरा दिखाए।

सिर्फ देवराज उसकी चाल पहचानता था — धीमी, छाया जैसी, लेकिन तेज़ और घातक।

आखिरी केस में परछाई एक छोटी लड़की को लेकर गायब हो गया था। देवराज ने उसका पीछा किया था, लेकिन एक विस्फोट में सब कुछ खत्म हो गया — केस, सबूत, और देवराज का भरोसा खुद पर।

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देवराज ने अनामिका का केस लिया। उसने विवेक की गतिविधियाँ ट्रेस कीं।

विवेक एक NGO के ज़रिए ट्रैफिकिंग रैकेट की तह में जा रहा था। लेकिन NGO नकली निकली।

सीसीटीवी फुटेज में जो दिखा, वो देवराज के रोंगटे खड़े कर देने वाला था —

एक लंबा आदमी, काले कोट में, धीमी चाल में चलते हुए… ठीक वैसे ही जैसे 9 साल पहले "परछाई" चलता था।


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देवराज ने उस बिल्डिंग का पीछा किया जहां विवेक आखिरी बार गया था — एक वीरान गोदाम।

भीतर अंधेरा था। हर कदम पर खतरा। फिर एक आवाज़ गूंजी:

"तू फिर आ गया... राणा?"

देवराज के शरीर में सिहरन दौड़ गई।

छाया से एक चेहरा निकला —

वही जिसने 9 साल पहले उसे जलती इमारत में बंद कर दिया था। वही जो मरा हुआ समझा गया था।

लेकिन अब वो ज़िंदा था —

नकाब में छिपा, मगर चाल से पहचाना गया — परछाई।

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गोदाम में चालों का खेल शुरू हुआ।

परछाई ने पूरा ट्रैप तैयार किया था — वो जानता था कि देवराज आएगा।

लेकिन देवराज राणा अब पुराना देवराज नहीं था।

उसने उस दिन के बाद हर केस, हर क़दम, हर मूव को उस छाया की चाल के हिसाब से पढ़ना शुरू किया था।

एक घंटा चला वो खेल — शब्दों से, डर से, चालों से।

आखिरकार, देवराज ने उसी आग से जवाब दिया —

गोदाम में आग लगाई, और छाया को उसी आग में घसीट लिया।

इस बार वो भाग नहीं सका। उसका नकाब जला... चेहरा दिखा।

वो कोई और नहीं, बल्कि खुद विवेक शेखर था।


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विवेक असल में उस रैकेट का हिस्सा था। वो ही "परछाई" बनकर उन बच्चों को गायब करवा रहा था।

जब NGO का नाम बाहर आने लगा, उसने खुद को लापता दिखाया — ताकि किसी को शक न हो।

पर अनामिका को उसकी आँखों में कुछ अलग दिखा था — डर नहीं, अपराधबोध।

वो देवराज को लाकर अपनी आत्मा को शांत करना चाहती थी — शायद अनजाने ही।

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दो दिन बाद देवराज फिर अपनी खिड़की के पास बैठा था।

सिगार की राख गिरती रही, बाहर बारिश रुक चुकी थी।


अनामिका चुपचाप आई, और एक लिफाफा रखा —

"मेरे भाई को माफ मत कीजिए। लेकिन आपको धन्यवाद, कि आपने उसकी परछाई को खत्म किया।"


देवराज कुछ नहीं बोला।

उसने वो पुराना फोल्डर उठाया… और पहली बार उसमें लिखा:

 “परछाई अब नहीं लौटेगी।”


समाप्त

"रात का रास्ता: जो लौटने नहीं देता"

  सर्दी की चुभन और बाइक की आवाज़ बस यही साथ थी मेरे। रात के करीब 1:40 बजे होंगे… मैं वापस घर लौट रहा था एक दोस्त की शादी से — सड़क बिल्कु...