धरणगांव का सन्नाटा
महाराष्ट्र के सतपुड़ा की तलहटी में बसा धरणगांव… नाम जितना शांत, इतिहास उतना ही रक्तरंजित। पहाड़ियों से घिरा ये गांव बाहर से देखने पर किसी पेंटिंग-सा दिखता — मिट्टी के घर, पीपल के पेड़ की छांव, और हर शाम मंदिर की घंटियों की गूंज।
लेकिन पिछले एक साल में इस गांव की पहचान बदल गई थी। अब यह गांव ‘रुदनखेत’ के नाम से जाना जाने लगा था।
रुदनखेत… यानी ‘रुदन’ का खेत।
हर रात जैसे ही अंधेरा गहराता, गांव के बाहरी खेतों से बच्चे की कराहती रुलाई सुनाई देती। शुरू में लोगों ने सोचा कोई अनाथ बच्चा होगा… लेकिन फिर एक के बाद एक 9 लोगों की मौतें हुईं। और हर बार मृतक की लाश सुबह खेतों या कुएं के पास मिलती — चेहरे पर खौफ, शरीर पर नाखूनों और दांतों के गहरे निशान।
गांववालों के लिए ये अब किसी भूख से तड़पते पिशाच की कहानी से कम नहीं था।
गांव की सबसे बुजुर्ग औरत — नानीबाई — अक्सर कहतीं:
"ये कोई आम भूत नहीं… ये तो किसी मासूम की अतृप्त आत्मा है, जिसे कभी ज़िंदा ही मिट्टी में दफना दिया गया था।"
गांव वालों ने हवन किए, पुजारियों और तांत्रिकों को बुलाया, पर कोई असर नहीं हुआ।
पढीये:
अर्जुन की प्रतिज्ञा
अर्जुन — गांव का सबसे साहसी युवक, उम्र 28 साल। पढ़ा-लिखा था, शहरों की नौकरी छोड़कर लौटा था। उसकी छोटी बहन गीता भी उन्हीं मौतों की शिकार हो गई थी।
गीता की लाश खेत के पास मिली थी। चेहरा काला पड़ा था, आंखें फटी हुईं — जैसे उसने अपनी मौत से भी बदतर कुछ देखा हो।
गीता की चिता जलाने के बाद, अर्जुन के भीतर कुछ टूट गया। उसने पंचायत के बीच सबके सामने कहा —
"मैं इस रुदनखेत के पीछे की सच्चाई को जानकर रहूंगा। डरकर घरों में छुपने से ये खत्म नहीं होगा। मैं आज रात उस आवाज़ की ओर जाऊंगा।"
उसकी मां ने उसे एक पुराना ताबीज दिया — कहा गया कि उसमें पवित्र राख और देवता की शक्ति है।
अर्जुन ने अपने साथ लालटेन, लाठी और वह ताबीज लिया। और रात 12 बजे, गांववालों की डरी निगाहों के बीच खेतों की ओर निकल पड़ा।
रुदनखेत का आमना-सामना
रात गहरी थी। खेतों के चारों ओर धुंध थी, जैसे कोई अदृश्य आवरण। अर्जुन की हर सांस भारी थी। तभी… वो रुलाई।
बिलकुल मासूम बच्चे की रुलाई — मगर उसमें ऐसी बेचैनी थी कि रूह कांप जाए।
अर्जुन लालटेन उठाकर आवाज़ की ओर बढ़ा। तभी सामने झाड़ियों से एक आकृति निकली।
एक पांच-छह साल के बच्चे की आकृति… पर उसका चेहरा…!
— आंखें गड्ढों जैसी खाली, नाखून लंबे और लोहे जैसे, और मुंह इतना बड़ा कि जैसे इंसान का सिर निगल ले। चमड़ी राख के रंग की, और पैरों के पंजे उलटे।
वह आकृति हौले-हौले अर्जुन की ओर बढ़ी। हवा में बदबू घुल गई — सड़ी हुई मिट्टी, खून और धुएं की मिलीजुली गंध।
अर्जुन ने डरते हुए ताबीज को आगे बढ़ाया।
जैसे ही ताबीज उसकी ओर आया, उस जीव की चमड़ी जलने लगी। वह चीत्कार कर पीछे हट गया। उसी पल अर्जुन के चारों ओर धुंध से नौ छायाएं उभरीं।
— वे वही नौ लोग थे, जिनकी मौत हुई थी। वे आत्माएं थीं। उनके चेहरे पीले और डूबे हुए थे, पर आंखों में कोई करुण पुकार थी।
एक छाया ने अर्जुन के कान में फुसफुसाया:
"मुक्त करो… हमें मुक्त करो… कुएं में सत्य है…"
श्राप का इतिहास
अर्जुन भागता हुआ गांव लौटा और सुबह होते ही बुजुर्गों को इकट्ठा किया। नानीबाई ने गहरी सांस ली और बोलीं:
"70 साल पहले इस गांव में एक तांत्रिक आया था। उसने दावा किया था कि गांव की समृद्धि के लिए नरबली चाहिए। उस तांत्रिक ने एक यतीम बच्चे को पकड़कर इस पुराने कुएं में ज़िंदा दफना दिया। उसी मासूम की आत्मा — जो न्याय की प्यासी है — आज रुदनखेत बन गई है।"
गांववालों ने मिलकर वो पुराना कुआं खोदना शुरू किया। कई घंटे की मेहनत के बाद वहां से एक छोटी हड्डियों की गठरी मिली — और एक लोहे का ताबीज जो कभी उस बच्चे के गले में रहा होगा।
अर्जुन ने गांव के पुजारी के साथ मिलकर उस आत्मा की शांति के लिए तर्पण और यज्ञ करवाया। कुएं के पास दीपक जलाए गए। और उस रात पहली बार न रुलाई सुनाई दी, न कोई मौत हुई।
रुदनखेत को मुक्ति मिल चुकी थी।
अंत का आरंभ
कुछ महीनों बाद गांव की रौनक लौट आई थी। लोग खेतों में जाने लगे थे। लेकिन अर्जुन की आंखों में अब भी कुछ अजीब झलकता था।
वो कहता था —
"मैंने उस रात जो देखा, वो सिर्फ एक प्रेत नहीं था। वो मनुष्य की निर्दयता से जन्मा श्राप था। जब तक इंसान मासूमों पर अन्याय करेगा, कहीं न कहीं कोई और रुदनखेत जन्म लेगा…"
गांव के पुराने कुएं के पास अब भी हर पूर्णिमा की रात एक दीया जलता है — शायद उस आत्मा की शांति के लिए।
पर गांव वाले जानते हैं… डर कभी पूरी तरह खत्म नहीं होता। वो बस सो जाता है।
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