गुरुवार, 8 मई 2025

वापसी — वो जो लौटकर आया

 

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"



भाग 1: दस्तक


नागपुर शहर के बाहरी छोर पर एक पुराना, उजाड़ बँगला खड़ा था — रामभवन विला।

कभी इस घर में रौनक थी, मगर अब दीवारें उखड़ी हुई थीं, खिड़कियों पर धूल और सन्नाटा पसरा रहता था।

इस घर के मालिक, रामभवन जी, एक प्रसिद्ध वकील थे — जिनकी 13 साल पहले रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी।

कहते हैं, वो अपनी आख़िरी रात किसी मुकदमे की फाइलें पढ़ते हुए अचानक बेहोश हुए और फिर कभी नहीं उठे।


मौत के बाद से ही पड़ोसियों का मानना था कि घर में कुछ अजीब-सा है।

कभी आधी रात में दरवाज़े पर दस्तक, तो कभी पुराने रेडियो का अपने आप बजना।


आज की रात, 13 साल पूरे हो गए थे।

और फिर से वही दस्तक सुनाई दी — ठक… ठक… ठक…

पड़ोसी रमेश, जो ठीक सामने वाले घर में रहते थे, खिड़की से झाँककर देखने लगे।

बँगले के मुख्य दरवाज़े पर कोई लंबी, काली परछाईं खड़ी थी। हाथ में कुछ कागज़ जैसा पकड़ा था


पढीए:


भाग 2: खत



अगली सुबह रमेश ने हिम्मत करके बँगले के दरवाज़े तक जाकर देखा।

वहाँ एक पुतिसरी मंजीर का दरवाजाराना, पीला पड़ा लिफाफा रखा था।

उस पर नाम लिखा था —

"रमेश अग्रवाल के लिए।"

हैरानी और डर के साथ रमेश ने लिफाफा खोला।

अंदर बस एक पंक्ति लिखी थी:


"मैं लौट आया हूँ… इस बार आख़िरी बार मिलने।

– रामभवन”


रमेश के हाथ काँपने लगे।

उन्होंने तुरंत पुलिस को बुलाया, लेकिन जांच में कुछ नहीं मिला। न कोई उँगलियों के निशान, न घर में कोई घुसपैठ के संकेत।

मगर उस रात से रमेश को अजीब सपने आने लगे। सपनों में रामभवन जी सफेद धोती और काले कोट में दिखाई देते — हाथ में वही लिफाफा लिए।



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भाग 3: आख़िरी मुलाक़ात


तीसरी रात रमेश की हालत और बिगड़ गई।

रात 12 बजे उनके दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक हुई।

डरते-डरते उन्होंने दरवाज़ा खोला — सामने वही परछाईं थी, मगर चेहरा साफ़ दिखाई दे रहा था।

रामभवन जी।

आँखें सुनी-सुनी, मगर चेहरे पर हल्की मुस्कान।


"रमेश… वो फाइल… मेरे कमरे की अलमारी में छुपी है… उसे अदालत में पहुँचा देना।"

ये कहकर वो धीरे-धीरे धुंध में विलीन हो गए।


अगली सुबह रमेश ने बँगले में जाकर अलमारी टटोली। सचमुच वहाँ एक पुरानी फाइल मिली — एक अधूरी केस फाइल, जो कभी रामभवन जी के आख़िरी केस से जुड़ी थी।

रमेश ने वो फाइल अदालत को सौंप दी।


और उसके बाद…

न बँगले से कोई आवाज़ आई, न दस्तक।

रामभवन जी का अधूरा काम पूरा हो चुका था।

उनकी आत्मा मुक्त हो चुकी थी।



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अंत


> कहते हैं, जब किसी का काम अधूरा रह जाता है, तो आत्मा लौटकर आती है — बस उसे पूरा करने के लिए।

और जब काम पूरा हो जाता है, तब सुकून से वो चली जाती है… हमेशा के लिए।


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