"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"
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कमरा नं 13 – जहां मनोज को डर की वो रात मिली जिसे वह कभी भूल नहीं सकता। |
“ मैं हूं... मनोज।
और जो मैं बताने जा रहा हूं, वो कोई कहानी नहीं है।
ये मेरे साथ सच में हुआ था।
आज भी जब वो रात याद करता हूं तो पसीना छूट जाता है, सांस रुकने लगती है...”
जून की शुरुआत थी। गर्मी से हालत खराब थी, लेकिन काम छोड़ना मेरे बस की बात नहीं थी। कंपनी ने मुझे रांची भेजा था – एक ज़रूरी क्लाइंट से मिलकर नया प्रोडक्ट दिखाने। मैं गया। दिनभर की भागदौड़ के बाद मीटिंग जबरदस्त रही। क्लाइंट इतना इंप्रेस हुआ कि बोला, "मैं खुद पुणे आकर ऑर्डर दूंगा।"
मैं बहुत खुश था। बॉस को फोन किया, वो भी खुश। सब कुछ जैसे मेरी मेहनत का इनाम दे रहा था।
पर शाम होते-होते कहानी बदलने लगी…
मैंने सोचा एक रात रुककर सुबह की ट्रेन से लौट जाऊं। लेकिन रांची जैसे शहर में, उस दिन पता नहीं क्यों, एक भी होटल में कमरा नहीं मिला। थक हारकर मैं शहर के बाहर एक सस्ते से लॉज में चला गया। पुराना, सुनसान इलाका। बाहर कुत्ते भौंक रहे थे, सड़कें वीरान थीं। लेकिन मुझे बस सोना था, कुछ और नहीं।
कमरे में घुसते ही अजीब सी महक आई — जैसे बासी कपड़े और सीलन की मिली-जुली बदबू। बाथरूम का दरवाज़ा चरमराया, पंखा धीमे-धीमे घिसटता हुआ चल रहा था। मैंने खुद को समझाया – "थक गया हूं... बस नींद लेनी है।"
रात को खाना खाकर पलंग पर लेट गया। पत्नी को फोन किया, बातें करने लगा। तभी...
एक धीमी सी आवाज़। जैसे कुछ खिसक रहा हो।
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मैंने ध्यान नहीं दिया। लेकिन फिर बाथरूम का दरवाज़ा — जो मैंने बंद किया था — अपने आप धीरे से खुल गया...
आवाज़ आई – "च्र्र्रर्र्र..."
और अंधेरे से... कोई चीज़ बाहर आई।
एक काली, झुकती-सी परछाई, जो ज़मीन पर रेंगते हुए आ रही थी। बिल्कुल चुपचाप।
मैं अब भी फोन पर लगा था, बेखबर।
वो चीज़... मेरे पलंग के पास आई... और धीरे से नीचे घुस गई।
कमरे की हवा एकदम भारी हो गई। जैसे कोई अंदर आकर बैठ गया हो।
फिर सब शांत।
और अचानक –
एक झटका।
पलंग को किसी ने नीचे से इतनी ताकत से मारा कि मैं उछल गया।
मैं घबरा गया, फोन गिर गया, बैठकर इधर-उधर देखा।
“कोई भूकंप?” मैंने खुद से पूछा।
और तभी फिर से एक ज़ोरदार धक्का।
इस बार ऐसा लगा जैसे कोई चीज़ मुझे पलंग से नीचे खींचना चाह रही हो।
मेरे हाथ-पैर कांपने लगे। पसीना बहने लगा।
मैंने धीरे से पलंग के नीचे झांक कर देखा...
...और जो मैंने देखा... मैं वहीं जम गया।
दो लाल चमकती आंखें।
एक काली आकृति, जो पूरी तरह इंसानी नहीं थी... पर कुछ थी।
वो घूर रही थी। बिल्कुल शांत। उसकी सांसों की आवाज़ मैं साफ़ सुन सकता था।
मुझे नहीं पता, वो कौन थी, क्या थी — लेकिन उसकी मौजूदगी ने मेरी आत्मा तक को जमा दिया था।
मैं पलंग से कूदकर दरवाज़े की ओर भागा, पागलों की तरह।
दरवाज़ा बंद था।
मैंने हैंडल खींचा, धक्का मारा, लात मारी – कुछ नहीं हुआ।
कमरा अब एक कब्र की तरह लगने लगा था... और मैं उसमें बंद था।
उस रात...
वो साया पूरे कमरे में घूमता रहा।
कभी लगता वो पीछे खड़ा है, कभी बगल में, कभी ऐसा लगा जैसे उसने मेरे बालों को छुआ...
दीवार पर उसकी परछाई लहराती थी, लेकिन कोई नहीं था।
पंखा अपने आप बंद हो गया। बल्ब फड़कने लगा। कमरे में सिर्फ मेरी डर से डूबी हुई सांसें थीं।
मैं पूरी रात एक कोने में सिकुड़ कर बैठा रहा, दांत किटकिटाते हुए, आंखें खोले हुए...
...क्योंकि जैसे ही आंखें बंद करता, वो साया और करीब आता।
सुबह की पहली रोशनी कमरे में आई, और अचानक –
सब शांत हो गया।
दरवाज़ा खुला।
मैं भागता हुआ रिसेप्शन पहुंचा, चेहरा सूखा, आंखें लाल। मैंने लड़खड़ाती आवाज़ में पूछा –
"ये कमरा... इसमें कुछ हुआ है क्या?"
रिसेप्शन वाला मुझे बस देखता रहा।
समाप्त
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