पुणे में मेरी नौकरी लगी तो मैं बेहद खुश था।
बचपन से मुझे अकेलापन पसंद था — भीड़ से दूर, शांति में जीना।
एक छोटा सा कमरा लिया मैंने। पहली मंज़िल पर।
चारों तरफ हरियाली, और इतनी खामोशी कि अपनी ही साँसें भारी लगती थीं।
शुरुआत में सब ठीक था।
काम, लैपटॉप, और रात को Netflix।
पर कमरे में एक खाली कोना था… खामोश सा, अधूरा सा।
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तुम मानो या नहीं, कभी-कभी हम चीज़ें जानबूझकर खरीदते हैं, जिनकी ज़रूरत नहीं होती — बस ताकि कोई “साथ” महसूस हो।
OLX पर दिखी एक पुरानी फोल्डिंग कुर्सी —
काले रंग की, सीट पर हल्का सा कपड़ा फटा हुआ, और लोहे पर जंग की मोटी परत।
₹99 में थी।
मालिक ने कहा, “बस एक बार यूज़ हुई है… फिर किसी ने इस्तेमाल नहीं किया।”
शब्द अजीब थे… लेकिन मैंने नज़रअंदाज़ किया।
मैंने कुर्सी खरीद ली।
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मैंने उसे उस कोने में रखा, जहाँ रात में अक्सर बैठकर मैं चाय पीता था।
पर अब मैं बेड पर ही बैठा रहा।
कुर्सी उस कोने में… थोड़ी अजीब सी लग रही थी — जैसे उसके आने से कमरे का संतुलन बदल गया हो।
रात को 2:46 पर नींद खुली —
हल्की सी चर्ररर…
कुर्सी हिली थी।
मैंने देखा — हिल रही थी… बिल्कुल हल्के से, जैसे कोई उठकर चला गया हो।
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हर रात… वही आवाज़।
हर सुबह… कुर्सी थोड़ी अलग जगह पर मिलती।
मुझे यकीन था — कोई है यहाँ।
पर कमरा बंद रहता था। कोई खिड़की भी नहीं जिससे हवा अंदर आए।
मैंने एक रात फ़ोन से रिकॉर्डिंग की।
सुबह जब देखा…
कुर्सी 3:00 बजे खुद-ब-खुद खुलती है, जैसे कोई उस पर बैठता हो।
फिर 3:08 पर… घुटनों जैसी आकृति कुर्सी पर हल्के से उभरती है।
और फिर वो धीरे से मेरी तरफ घूमती है…
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हाँ, साँसें।
एकदम धीमी… गरम साँसे।
जैसे कोई बिलकुल मेरे पास खड़ा हो, और मैं न देख पाऊँ।
कई बार तो ऐसा लगा जैसे जब मैं कंप्यूटर पर बैठा होता,
कोई मेरे बालों को देख रहा होता… बहुत करीब से।
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खामोशी।
अगले दिन दीवार पर लिखा था —
"अब तुझे जानने की ज़रूरत नहीं… बस बैठ जा, एक बार।"
मैं काँप उठा।
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उस रात बिजली नहीं थी।
कमरे में घुप अंधेरा। सिर्फ चाँद की हल्की सी रौशनी।
कुर्सी वहीं थी, मेरी तरफ घूरती हुई —
बंद, लेकिन जैसे साँस ले रही हो।
मैं खिंचता चला गया…
और बैठ गया।
फोल्डिंग कुर्सी मुड़ी नहीं। मैं मुड़ गया।
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