Rahasya katha: " वह रेडियो अब भी बजता है..."

गुरुवार, 26 जून 2025

" वह रेडियो अब भी बजता है..."

 

लेटे हुए लड़के के पास मेज़ पर रखा पुराना रेडियो और पीछे खड़ा एक रहस्यमयी काला साया – डरावनी हिंदी कहानी का पोस्टर।
"वो एक पुराना रेडियो था — किसी ने गिफ्ट किया था।


 ये कोई कहानी नहीं…

ये वो रात है, जब मुझे पहली बार अपनी ही धड़कनों से डर लगा।


मेरी नाइट शिफ्ट खत्म हुई थी, और मैं ऑफिस से लौटकर थककर गिरा था।

वही कमरा – शहर की सीमा पर, अकेला मकान, तीन मंज़िलों पर बस मैं।


उस दिन मेरा बर्थडे था।

ऑफिस में किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन एक सहकर्मी अनुज ने चलते-चलते एक पैकेट दिया।

"पुराना है, पर चलता है… तुझे पसंद आएगा," उसने मुस्कुराकर कहा।

पैकेट खोलते ही धूल सी उड़ गई।

अंदर था एक पुराना, लकड़ी का, डायल वाला टेबल रेडियो।

मुझे बढ़ी खुशी हुई।


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मैंने रेडियो को साफ किया, प्लग लगाया… और यकीन नहीं हुआ –

आवाज़ बिलकुल साफ…

पुराने ग़ज़ल, Rafi, Kishore, गुलज़ार के इंटरव्यूज़…


शाम को काम के बाद रेडियो सुनना अब मेरी आदत बन गई थी।


हर रोज़ 11 बजे बिस्तर पे लेटकर गाने सुनते-सुनते सो जाता।

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 फिर आई वो रात… 7 जून की

उस दिन बिजली गई हुई थी।

चारों ओर सन्नाटा, छत पर पानी की धीमी टपक…

मैंने मोमबत्ती जलाई और रेडियो चालू किया।


अजीब बात ये थी —

बिजली नहीं थी… लेकिन रेडियो चल रहा था।


मैंने सोचा — शायद बैटरी होगी।


11:43 बजे – मैं ग़ज़ल सुनते-सुनते सो गया।


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 और फिर... आधी रात को

12:16 AM

"Trrrrhhhkk… khhhh… तू सुन रहा है न?"


मैंने आंखें खोलीं।

कमरा ठंडा हो चुका था, सांसें कुहासे जैसी निकल रही थीं।

रेडियो अपने आप ऑन था।


कोई आवाज़ नहीं… बस static…


फिर… एकदम साफ़ औरत की धीमी आवाज़ –


 "121.6 FM… मत पलटना…"

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 कमरे का माहौल देख

मैं कांप उठा।

बाहर तूफानी हवा, खिड़की खुद-ब-खुद खड़कने लगी।

टेबल पर रखी मोमबत्ती बुझ गई।


मेरे हाथ से मोबाइल गिर गया, उसकी लाइट अपने आप ऑन थी, और स्क्रीन पर कुछ लिखा था —

"जो तू सुन रहा है, वो मैं नहीं चाहती कि कोई और सुने…"


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 डर… भीतर तक उतर गया


मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।


रेडियो की आवाज़ अब मेरी तरफ़ नहीं, कमरे की दीवारों से टकरा रही थी।


जैसे कोई बाहर से बोल रहा हो…

या कोई अंदर से…


 “अब ये तेरा है… और तू मेरा है।”


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"उस रात कुछ भी सामान्य नहीं था..."

मैंने रेडियो की वो आवाज़ बंद करनी चाही,

पर रेडियो खुद बोल रहा था — "अब ये तेरा है…"


मेरी सांसें तेज़, दिल उखड़ता हुआ…

मैं रेडियो की तरफ़ बढ़ा ही था कि अचानक…


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 कड़कड़ाती बिजली

“धड़ाम!!!”

बिजली इतनी जोर से कड़की कि कमरे की सारी दीवारें थर्रा उठीं।

लाइट पहले ही जा चुकी थी…

अब तो खिड़की की तरफ से हलकी सी रौशनी आई —

सिर्फ एक सेकंड के लिए…


और उस एक सेकंड में…


मैंने उसे देखा।


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खिड़की के पास… एक लड़की का साया

भीगी हुई… सफेद साड़ी में…

बाल चिपके हुए, चेहरा झुका हुआ…

खिड़की के काँच पर उसके उंगलियों के निशान उभरे हुए।


मुझे कुछ समझ नहीं आया…

मैं डर के मारे हिल भी नहीं सका।


उसने धीरे से सिर उठाया —

उसके चेहरे पर न आँखें थीं… न होंठ… बस एक गड्ढा।


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 और फिर…

"ठक ठक ठक… ठक ठक ठक…"

दरवाज़ा हिलने लगा।

इतनी जोर से कि लगा — जैसे कोई जानवर दरवाज़ा तोड़ रहा हो।


"खोल... खोल ना... ठंड लग रही है…"


वो आवाज़ औरत की थी, पर इतनी भारी कि जैसे किसी गुफा से आ रही हो।

मैंने दरवाज़े की तरफ़ देखा –

दरवाज़ा खुद-ब-खुद अंदर की ओर झुक रहा था।


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 मैं पसीने में तर-ब-तर था…

मोमबत्ती बुझ चुकी थी…

कमरा अंधेरे में डूबा था…


रेडियो अब खुद से एक ही वाक्य दोहरा रहा था —

"121.6 FM… हर रात… 12:16 को…"


"121.6 FM… हर रात… 12:16 को…"


"121.6 FM… हर रात… 12:16 को…"


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 सारी रात… वही डर

खिड़की पर उसका साया, दरवाज़े पर वो दस्तक।

मैं कोने में सिकुड़कर बैठ गया, काँपता रहा…

मैंने कान बंद कर लिए, रेडियो को पलंग से नीचे फेंक दिया —

पर आवाज़ें बंद नहीं हुईं।


सिर्फ एक पल को चुप्पी हुई…

और तभी दीवार के पीछे से एक फुसफुसाहट आई:


 "तू अगले जन्म में मेरा था ना?... अब इस जनम में क्यों भाग रहा है?"


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सुबह की पहली किरण

जैसे-तैसे आँख लगी…

जब जागा, तो बाहर धूप थी।


कोई आवाज़ नहीं…

रेडियो टूटा हुआ पड़ा था… पर उसमें से फिर भी धीमी सरसराहट निकल रही थी।


मैं बिना कुछ समेटे भागा।

न चप्पल देखी, न ताला लगाया…


बस भागा।


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