Rahasya katha: परछाई की प्यास

रविवार, 25 मई 2025

परछाई की प्यास

 

“A terrifying digital painting of a woman standing before a mirror, where her reflection appears as a decayed, demonic version of herself — inspired by the horror story ‘Parchayi Ki Pyaas’.”
“निहारिका की परछाई जो अब उसके जैसी नहीं रही...”

मैं निहारिका हूं। उम्र 27 साल, पेशे से डिजिटल आर्टिस्ट। अकेले रहना पसंद है — इसलिए मुंबई की भीड़ से थोड़ी दूर, मीरा रोड के एक पुराने बिल्डिंग में किराये का फ्लैट लिया था।

सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन एक चीज़... बदलने लगी थी।

शुरुआत बहुत मामूली थी। मैं जब बाथरूम के आइने में खुद को देखती, तो कुछ अजीब सा लगता। जैसे... मेरी परछाई मुझसे थोड़ी धीमे हिल रही हो।


जैसे वो मेरी नक़ल नहीं, कुछ और हो।

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मैंने सोचा शायद थकान है। स्क्रीन पर घंटों काम करना, नींद कम लेना — सब असर करता है। लेकिन फिर धीरे-धीरे, मेरा डर गहराने लगा।


एक दिन सुबह, ब्रश करते वक्त मैंने देखा — आइने में मेरी परछाई ने मुझे आंख मारी।


मैं वहीं जम गई।


मैंने आंख नहीं मारी थी।

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उस रात मैंने नींद में किसी को अपनी सांस के पास महसूस किया। किसी ने कान में फुसफुसाकर कहा —

"अब बहुत हो गया निहारिका… अब मैं बाहर आऊंगी।"


मैं चीखते हुए उठी। पसीने से भीगी थी, पर खिड़कियां बंद थीं। कमरे में कोई नहीं था... सिवाय आइने के, जिसमें मेरी परछाई मुझे देख रही थी — मुस्कराते हुए।



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डर कर मैंने आइना दीवार से हटाया। पीछे हल्का खुरचाव था, जैसे किसी ने नाखून से कुछ लिखा हो —

"जो देखता है, वही दिखता है।"


उसी शाम मुझे इंटरनेट पर एक पुरानी कहानी मिली — "1997 में इसी बिल्डिंग में एक लड़की गायब हो गई थी, जिसका नाम रेवती था। उसे आखिरी बार वॉशरूम में आइने के सामने देखा गया था।"


तब से फ्लैट बंद था... जब तक मैंने नहीं किराये पर लिया।

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अब मेरा डर हकीकत बनने लगा। परछाई अब सिर्फ आइने तक नहीं थी — वो मेरे लैपटॉप की ब्लैक स्क्रीन में, गिलास में भरे पानी में, रात को बंद खिड़की के शीशे में दिखने लगी।


वो मेरा नाम पुकारती थी —

"निहा… रिका… निहा…"


एक रात, जब मैंने उससे पूछा, “तू कौन है?” तो उसने जवाब दिया:


"तू ही। बस वो वाली जो अंदर फंसी थी… अब बाहर आने की बारी है।"

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अगली सुबह मैं उठी, तो शरीर में अजीब जकड़न थी। खुद को देखने आइने के पास गई… पर आइने में जो खड़ी थी — वो मैं नहीं थी।


चेहरा वही, लेकिन आंखें अलग थीं — ठंडी, गहरी, प्यास भरी।


मैंने हाथ हिलाया — पर आइने वाली ने नहीं हिलाया।


वो अब बाहर थी। और मैं?


मैं अब परछाई बन चुकी थी।


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