रविवार, 18 मई 2025

छठा कमरा— “आहट”

 

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"


"An eerie British-era hill resort with mist and a glowing red light over a mysterious door — horror story visual for 'Chhatha Kamra'."

“कुछ दरवाज़े सिर्फ दिखने के लिए होते हैं — उन्हें खोलना नहीं चाहिए...



हिमाचल की वादियों में बसा एक पुराना ब्रिटिश-कालीन रिसॉर्ट — ‘ग्लेन व्यू’।

विक्रम, सिम्मी और उनके दो बच्चे — आरुष और तान्या — शहर की भीड़ से दूर छुट्टियाँ बिताने यहाँ पहुँचे। रिसॉर्ट शांत था, मौसम सुहावना, और चारों तरफ हरियाली फैली थी।


रामदीन नामक एक बुज़ुर्ग कर्मचारी ने उनका स्वागत किया।

"कमरा नंबर पाँच तैयार है, साहब।"

"बाकी कमरे?" सिम्मी ने पूछा।

"सब बंद हैं, मैडम... रख-रखाव चल रहा है।"


कमरा सुंदर था — लकड़ी की छत, पुराने झूमर, और खिड़की से दिखती बर्फीली चोटियाँ। रिसॉर्ट की बनावट U-शेप थी, और कोने पर एक पुराना दरवाज़ा दिखता था... छठा कमरा, जिसके सामने हमेशा एक लाल बल्ब जलता रहता था।


पहली रात


सब थककर सो गए। तान्या खिड़की के पास बैठी खिलौनों से खेल रही थी। तभी उसे लगा जैसे सामने वाली दीवार के कोने से कोई देख रहा है।


वो माँ के पास गई — "मम्मी, उस आंटी को देखा?"

"कौन आंटी?"

"जो बाहर खड़ी थी। उसने कहा — 'खेलने आओ।'"

"तान्या, यहाँ कोई नहीं है। सपना देखा होगा।"


सिम्मी मुस्कराई, लेकिन उस मुस्कान में हल्की सी झिझक थी।


अगले दिन


सिम्मी जब सामान रख रही थी, उसे नोटिस हुआ कि तान्या का छोटा रेनकोट गायब है। उसे याद था — वो रैक पर रखा था। बाद में वो रेनकोट उसे लॉबी के एक कोने में पड़ा मिला, जो पूरी तरह गीला था... जबकि बाहर बारिश नहीं हुई थी।


टीवी कभी-कभी अपने आप ऑन हो जाता, और स्क्रीन पर बस सफेद झिलमिलाहट दिखती थी।

विक्रम ने हँसकर कहा, "पुराना सिस्टम है, होगा कुछ सिग्नल का मसला।"


पर सिम्मी की हँसी अब बनावटी थी। उसे लगता — कोई उनकी हर हरकत देख रहा है।


इसे भी पढीये;

तीसरी रात


तान्या फिर जागी। खिड़की के पास गई... और धीरे-धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ी।

"मम्मी ने मना किया था..."

एक फुसफुसाहट — "वो नहीं समझेगी... लेकिन तू समझेगी ना?"


उसके हाथ खुद-ब-खुद दरवाज़ा खोलने लगे। वो लॉबी की ओर चली। कोने पर हल्की रोशनी थी — छठे कमरे का दरवाज़ा खुला था... पहली बार।


वो अंदर चली गई। दरवाज़ा धीरे से बंद हो गया।


उधर, सिम्मी को अचानक नींद से झटका लगा। उसे लगा जैसे कुछ छूट गया हो। उसने तान्या को बिस्तर पर नहीं पाया।


"विक्रम! तान्या नहीं है!"


रात के दो बज रहे थे। हवाओं में सिहरन सी थी। सिम्मी और विक्रम रिसॉर्ट के हर कोने में तान्या को ढूंढ़ रहे थे।


"वो कहीं छिप गई होगी... शायद गेम खेल रही हो..."

विक्रम ने खुद को दिलासा दिया, पर उसकी आवाज़ कांप रही थी।


सिम्मी की नज़र लॉबी की उस ओर गई, जहाँ लाल बल्ब की मद्धम रोशनी छठे कमरे पर पड़ रही थी।

कमरा बंद था। लेकिन जैसे ही उसने उसके पास से गुज़रना चाहा — हवा का एक झोंका दरवाज़े को धीरे से खोल गया।


दरवाज़े के पीछे अंधेरा था।

भीतर से सर्द हवा निकली... और जैसे ही सिम्मी ने कदम बढ़ाया —


दरवाज़ा फिर बंद हो गया।


सिम्मी हड़बड़ाई। "विक्रम! शायद वो अंदर है!"


विक्रम ने खटखटाया, पर कोई जवाब नहीं। रामदीन को बुलाया गया।

वो एकदम सफेद पड़ गया — "माफ करना, साहब। वो कमरा... बंद ही रहना चाहिए।"


"पर हमारी बेटी—"


"जो उस कमरे में गया... कभी वैसा नहीं लौटा।"


पर सिम्मी नहीं रुकी। उसने खुद एक दीवार पर लटकी पुरानी चाबी निकाली, और दरवाज़ा खोला।


अंदर... सन्नाटा।


कमरा पुराना था, फर्श पर पुरानी लकड़ी की आवाज़ें, एक टूटा झूला, दीवारों पर पीलापन और सीलन की खुशबू।

पर वहाँ एक अजीब सी चुप्पी थी — जैसे कमरा सांस ले रहा हो।


एक कोने में पड़ा था — तान्या का टेडी बियर।


"तान्या?" सिम्मी ने आवाज़ दी।

कोई जवाब नहीं।


तभी दीवार पर लगे शीशे में सिम्मी ने देखा — पीछे एक छाया थी।

उसकी आकृति इंसानी थी, पर चेहरा... चेहरा धुंध था।


वो मुड़ी — वहाँ कोई नहीं था।


अचानक दीवार पर लटकी घड़ी की सूई गोल-गोल घूमने लगी।

सिम्मी का सिर चकराया, सांसें तेज़ हुईं।


तभी कमरे के कोने से धीमी सी आवाज़ आई —

"वो अब मेरी है..."


सिम्मी ने पलटकर देखा — एक परछाईं दीवार से अलग होकर ज़मीन पर रेंग रही थी... सीधी उसकी ओर।


विक्रम ने झट से सिम्मी को खींचा, और दोनों दरवाज़ा बंद कर बाहर भागे।

कमरा फिर से शांत हो गया — जैसे कुछ हुआ ही न हो।



---


अगली सुबह


तान्या अपने बिस्तर पर थी। आँखें खुली थीं, मगर होश में नहीं।

उसकी हथेली पर कुछ उभरा था — एक अधूरी आकृति, जैसे कुछ जल गया हो।


वो बोल नहीं रही थी, बस एक ही दिशा में देखे जा रही थी — उस कमरे की ओर।


गुरुवार, 15 मई 2025

कमरा नं. 13

 

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"

कमरा नं 13 में एक भारतीय व्यक्ति बिस्तर पर डर से कांपता बैठा है, पलंग के नीचे से एक काली परछाई रेंगती हुई निकल रही है।
कमरा नं 13 – जहां मनोज को डर की वो रात मिली जिसे वह कभी भूल नहीं सकता।



“ मैं हूं... मनोज।

और जो मैं बताने जा रहा हूं, वो कोई कहानी नहीं है।

ये मेरे साथ सच में हुआ था।

आज भी जब वो रात याद करता हूं तो पसीना छूट जाता है, सांस रुकने लगती है...”


जून की शुरुआत थी। गर्मी से हालत खराब थी, लेकिन काम छोड़ना मेरे बस की बात नहीं थी। कंपनी ने मुझे रांची भेजा था – एक ज़रूरी क्लाइंट से मिलकर नया प्रोडक्ट दिखाने। मैं गया। दिनभर की भागदौड़ के बाद मीटिंग जबरदस्त रही। क्लाइंट इतना इंप्रेस हुआ कि बोला, "मैं खुद पुणे आकर ऑर्डर दूंगा।"


मैं बहुत खुश था। बॉस को फोन किया, वो भी खुश। सब कुछ जैसे मेरी मेहनत का इनाम दे रहा था।


पर शाम होते-होते कहानी बदलने लगी…


मैंने सोचा एक रात रुककर सुबह की ट्रेन से लौट जाऊं। लेकिन रांची जैसे शहर में, उस दिन पता नहीं क्यों, एक भी होटल में कमरा नहीं मिला। थक हारकर मैं शहर के बाहर एक सस्ते से लॉज में चला गया। पुराना, सुनसान इलाका। बाहर कुत्ते भौंक रहे थे, सड़कें वीरान थीं। लेकिन मुझे बस सोना था, कुछ और नहीं।


कमरे में घुसते ही अजीब सी महक आई — जैसे बासी कपड़े और सीलन की मिली-जुली बदबू। बाथरूम का दरवाज़ा चरमराया, पंखा धीमे-धीमे घिसटता हुआ चल रहा था। मैंने खुद को समझाया – "थक गया हूं... बस नींद लेनी है।"


रात को खाना खाकर पलंग पर लेट गया। पत्नी को फोन किया, बातें करने लगा। तभी...


एक धीमी सी आवाज़। जैसे कुछ खिसक रहा हो।

इसे भी पढीए:

मैंने ध्यान नहीं दिया। लेकिन फिर बाथरूम का दरवाज़ा — जो मैंने बंद किया था — अपने आप धीरे से खुल गया...

आवाज़ आई – "च्र्र्रर्र्र..."


और अंधेरे से... कोई चीज़ बाहर आई।

एक काली, झुकती-सी परछाई, जो ज़मीन पर रेंगते हुए आ रही थी। बिल्कुल चुपचाप।

मैं अब भी फोन पर लगा था, बेखबर।

वो चीज़... मेरे पलंग के पास आई... और धीरे से नीचे घुस गई।


कमरे की हवा एकदम भारी हो गई। जैसे कोई अंदर आकर बैठ गया हो।

फिर सब शांत।


और अचानक –

एक झटका।


पलंग को किसी ने नीचे से इतनी ताकत से मारा कि मैं उछल गया।

मैं घबरा गया, फोन गिर गया, बैठकर इधर-उधर देखा।


“कोई भूकंप?” मैंने खुद से पूछा।


और तभी फिर से एक ज़ोरदार धक्का।

इस बार ऐसा लगा जैसे कोई चीज़ मुझे पलंग से नीचे खींचना चाह रही हो।


मेरे हाथ-पैर कांपने लगे। पसीना बहने लगा।


मैंने धीरे से पलंग के नीचे झांक कर देखा...


...और जो मैंने देखा... मैं वहीं जम गया।


दो लाल चमकती आंखें।

एक काली आकृति, जो पूरी तरह इंसानी नहीं थी... पर कुछ थी।

वो घूर रही थी। बिल्कुल शांत। उसकी सांसों की आवाज़ मैं साफ़ सुन सकता था।


मुझे नहीं पता, वो कौन थी, क्या थी — लेकिन उसकी मौजूदगी ने मेरी आत्मा तक को जमा दिया था।


मैं पलंग से कूदकर दरवाज़े की ओर भागा, पागलों की तरह।


दरवाज़ा बंद था।


मैंने हैंडल खींचा, धक्का मारा, लात मारी – कुछ नहीं हुआ।

कमरा अब एक कब्र की तरह लगने लगा था... और मैं उसमें बंद था।


उस रात...


वो साया पूरे कमरे में घूमता रहा।


कभी लगता वो पीछे खड़ा है, कभी बगल में, कभी ऐसा लगा जैसे उसने मेरे बालों को छुआ...


दीवार पर उसकी परछाई लहराती थी, लेकिन कोई नहीं था।


पंखा अपने आप बंद हो गया। बल्ब फड़कने लगा। कमरे में सिर्फ मेरी डर से डूबी हुई सांसें थीं।


मैं पूरी रात एक कोने में सिकुड़ कर बैठा रहा, दांत किटकिटाते हुए, आंखें खोले हुए...


...क्योंकि जैसे ही आंखें बंद करता, वो साया और करीब आता।


सुबह की पहली रोशनी कमरे में आई, और अचानक –

सब शांत हो गया।


दरवाज़ा खुला।


मैं भागता हुआ रिसेप्शन पहुंचा, चेहरा सूखा, आंखें लाल। मैंने लड़खड़ाती आवाज़ में पूछा –

"ये कमरा... इसमें कुछ हुआ है क्या?"


रिसेप्शन वाला मुझे बस देखता रहा।



समाप्त


रविवार, 11 मई 2025

रुदनखेत: खून का विलाप

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"



डरावनी रात में गांव का प्रेतात्मा, चमकती आंखों वाला भूत और पुराना कुआं — रुदनखेत: खून का विलाप कहानी का कवर फोटो।
एक गांव, एक श्राप… और एक ऐसा जीव जिसका रुदन मौत का पैगाम है।






धरणगांव का सन्नाटा

महाराष्ट्र के सतपुड़ा की तलहटी में बसा धरणगांव… नाम जितना शांत, इतिहास उतना ही रक्तरंजित। पहाड़ियों से घिरा ये गांव बाहर से देखने पर किसी पेंटिंग-सा दिखता — मिट्टी के घर, पीपल के पेड़ की छांव, और हर शाम मंदिर की घंटियों की गूंज।

लेकिन पिछले एक साल में इस गांव की पहचान बदल गई थी। अब यह गांव ‘रुदनखेत’ के नाम से जाना जाने लगा था।


रुदनखेत… यानी ‘रुदन’ का खेत।

हर रात जैसे ही अंधेरा गहराता, गांव के बाहरी खेतों से बच्चे की कराहती रुलाई सुनाई देती। शुरू में लोगों ने सोचा कोई अनाथ बच्चा होगा… लेकिन फिर एक के बाद एक 9 लोगों की मौतें हुईं। और हर बार मृतक की लाश सुबह खेतों या कुएं के पास मिलती — चेहरे पर खौफ, शरीर पर नाखूनों और दांतों के गहरे निशान।


गांववालों के लिए ये अब किसी भूख से तड़पते पिशाच की कहानी से कम नहीं था।

गांव की सबसे बुजुर्ग औरत — नानीबाई — अक्सर कहतीं:

"ये कोई आम भूत नहीं… ये तो किसी मासूम की अतृप्त आत्मा है, जिसे कभी ज़िंदा ही मिट्टी में दफना दिया गया था।"


गांव वालों ने हवन किए, पुजारियों और तांत्रिकों को बुलाया, पर कोई असर नहीं हुआ।


पढीये:


अर्जुन की प्रतिज्ञा


अर्जुन — गांव का सबसे साहसी युवक, उम्र 28 साल। पढ़ा-लिखा था, शहरों की नौकरी छोड़कर लौटा था। उसकी छोटी बहन गीता भी उन्हीं मौतों की शिकार हो गई थी।

गीता की लाश खेत के पास मिली थी। चेहरा काला पड़ा था, आंखें फटी हुईं — जैसे उसने अपनी मौत से भी बदतर कुछ देखा हो।


गीता की चिता जलाने के बाद, अर्जुन के भीतर कुछ टूट गया। उसने पंचायत के बीच सबके सामने कहा —

"मैं इस रुदनखेत के पीछे की सच्चाई को जानकर रहूंगा। डरकर घरों में छुपने से ये खत्म नहीं होगा। मैं आज रात उस आवाज़ की ओर जाऊंगा।"


उसकी मां ने उसे एक पुराना ताबीज दिया — कहा गया कि उसमें पवित्र राख और देवता की शक्ति है।

अर्जुन ने अपने साथ लालटेन, लाठी और वह ताबीज लिया। और रात 12 बजे, गांववालों की डरी निगाहों के बीच खेतों की ओर निकल पड़ा।



रुदनखेत का आमना-सामना


रात गहरी थी। खेतों के चारों ओर धुंध थी, जैसे कोई अदृश्य आवरण। अर्जुन की हर सांस भारी थी। तभी… वो रुलाई।

बिलकुल मासूम बच्चे की रुलाई — मगर उसमें ऐसी बेचैनी थी कि रूह कांप जाए।


अर्जुन लालटेन उठाकर आवाज़ की ओर बढ़ा। तभी सामने झाड़ियों से एक आकृति निकली।

एक पांच-छह साल के बच्चे की आकृति… पर उसका चेहरा…!

— आंखें गड्ढों जैसी खाली, नाखून लंबे और लोहे जैसे, और मुंह इतना बड़ा कि जैसे इंसान का सिर निगल ले। चमड़ी राख के रंग की, और पैरों के पंजे उलटे।


वह आकृति हौले-हौले अर्जुन की ओर बढ़ी। हवा में बदबू घुल गई — सड़ी हुई मिट्टी, खून और धुएं की मिलीजुली गंध।


अर्जुन ने डरते हुए ताबीज को आगे बढ़ाया।

जैसे ही ताबीज उसकी ओर आया, उस जीव की चमड़ी जलने लगी। वह चीत्कार कर पीछे हट गया। उसी पल अर्जुन के चारों ओर धुंध से नौ छायाएं उभरीं।

— वे वही नौ लोग थे, जिनकी मौत हुई थी। वे आत्माएं थीं। उनके चेहरे पीले और डूबे हुए थे, पर आंखों में कोई करुण पुकार थी।


एक छाया ने अर्जुन के कान में फुसफुसाया:

"मुक्त करो… हमें मुक्त करो… कुएं में सत्य है…"


 श्राप का इतिहास


अर्जुन भागता हुआ गांव लौटा और सुबह होते ही बुजुर्गों को इकट्ठा किया। नानीबाई ने गहरी सांस ली और बोलीं:

"70 साल पहले इस गांव में एक तांत्रिक आया था। उसने दावा किया था कि गांव की समृद्धि के लिए नरबली चाहिए। उस तांत्रिक ने एक यतीम बच्चे को पकड़कर इस पुराने कुएं में ज़िंदा दफना दिया। उसी मासूम की आत्मा — जो न्याय की प्यासी है — आज रुदनखेत बन गई है।"


गांववालों ने मिलकर वो पुराना कुआं खोदना शुरू किया। कई घंटे की मेहनत के बाद वहां से एक छोटी हड्डियों की गठरी मिली — और एक लोहे का ताबीज जो कभी उस बच्चे के गले में रहा होगा।


अर्जुन ने गांव के पुजारी के साथ मिलकर उस आत्मा की शांति के लिए तर्पण और यज्ञ करवाया। कुएं के पास दीपक जलाए गए। और उस रात पहली बार न रुलाई सुनाई दी, न कोई मौत हुई।

रुदनखेत को मुक्ति मिल चुकी थी।


अंत का आरंभ


कुछ महीनों बाद गांव की रौनक लौट आई थी। लोग खेतों में जाने लगे थे। लेकिन अर्जुन की आंखों में अब भी कुछ अजीब झलकता था।

वो कहता था —

"मैंने उस रात जो देखा, वो सिर्फ एक प्रेत नहीं था। वो मनुष्य की निर्दयता से जन्मा श्राप था। जब तक इंसान मासूमों पर अन्याय करेगा, कहीं न कहीं कोई और रुदनखेत जन्म लेगा…"


गांव के पुराने कुएं के पास अब भी हर पूर्णिमा की रात एक दीया जलता है — शायद उस आत्मा की शांति के लिए।

पर गांव वाले जानते हैं… डर कभी पूरी तरह खत्म नहीं होता। वो बस सो जाता है।


समाप्त।


गुरुवार, 8 मई 2025

वापसी — वो जो लौटकर आया

 

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"



भाग 1: दस्तक


नागपुर शहर के बाहरी छोर पर एक पुराना, उजाड़ बँगला खड़ा था — रामभवन विला।

कभी इस घर में रौनक थी, मगर अब दीवारें उखड़ी हुई थीं, खिड़कियों पर धूल और सन्नाटा पसरा रहता था।

इस घर के मालिक, रामभवन जी, एक प्रसिद्ध वकील थे — जिनकी 13 साल पहले रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी।

कहते हैं, वो अपनी आख़िरी रात किसी मुकदमे की फाइलें पढ़ते हुए अचानक बेहोश हुए और फिर कभी नहीं उठे।


मौत के बाद से ही पड़ोसियों का मानना था कि घर में कुछ अजीब-सा है।

कभी आधी रात में दरवाज़े पर दस्तक, तो कभी पुराने रेडियो का अपने आप बजना।


आज की रात, 13 साल पूरे हो गए थे।

और फिर से वही दस्तक सुनाई दी — ठक… ठक… ठक…

पड़ोसी रमेश, जो ठीक सामने वाले घर में रहते थे, खिड़की से झाँककर देखने लगे।

बँगले के मुख्य दरवाज़े पर कोई लंबी, काली परछाईं खड़ी थी। हाथ में कुछ कागज़ जैसा पकड़ा था


पढीए:


भाग 2: खत



अगली सुबह रमेश ने हिम्मत करके बँगले के दरवाज़े तक जाकर देखा।

वहाँ एक पुतिसरी मंजीर का दरवाजाराना, पीला पड़ा लिफाफा रखा था।

उस पर नाम लिखा था —

"रमेश अग्रवाल के लिए।"

हैरानी और डर के साथ रमेश ने लिफाफा खोला।

अंदर बस एक पंक्ति लिखी थी:


"मैं लौट आया हूँ… इस बार आख़िरी बार मिलने।

– रामभवन”


रमेश के हाथ काँपने लगे।

उन्होंने तुरंत पुलिस को बुलाया, लेकिन जांच में कुछ नहीं मिला। न कोई उँगलियों के निशान, न घर में कोई घुसपैठ के संकेत।

मगर उस रात से रमेश को अजीब सपने आने लगे। सपनों में रामभवन जी सफेद धोती और काले कोट में दिखाई देते — हाथ में वही लिफाफा लिए।



---


भाग 3: आख़िरी मुलाक़ात


तीसरी रात रमेश की हालत और बिगड़ गई।

रात 12 बजे उनके दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक हुई।

डरते-डरते उन्होंने दरवाज़ा खोला — सामने वही परछाईं थी, मगर चेहरा साफ़ दिखाई दे रहा था।

रामभवन जी।

आँखें सुनी-सुनी, मगर चेहरे पर हल्की मुस्कान।


"रमेश… वो फाइल… मेरे कमरे की अलमारी में छुपी है… उसे अदालत में पहुँचा देना।"

ये कहकर वो धीरे-धीरे धुंध में विलीन हो गए।


अगली सुबह रमेश ने बँगले में जाकर अलमारी टटोली। सचमुच वहाँ एक पुरानी फाइल मिली — एक अधूरी केस फाइल, जो कभी रामभवन जी के आख़िरी केस से जुड़ी थी।

रमेश ने वो फाइल अदालत को सौंप दी।


और उसके बाद…

न बँगले से कोई आवाज़ आई, न दस्तक।

रामभवन जी का अधूरा काम पूरा हो चुका था।

उनकी आत्मा मुक्त हो चुकी थी।



---


अंत


> कहते हैं, जब किसी का काम अधूरा रह जाता है, तो आत्मा लौटकर आती है — बस उसे पूरा करने के लिए।

और जब काम पूरा हो जाता है, तब सुकून से वो चली जाती है… हमेशा के लिए।


रविवार, 4 मई 2025

तीसरी मंज़िल का दरवाज़ा

 

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"




सातारा के पास मिरजगांव नामक एक पुराना गांव है। वहां एक विशाल लेकिन सुनसान देशमुख वाड़ा खड़ा है — सालों से वीरान, लेकिन कहानियों में ज़िंदा। गांववालों के मुताबिक इस वाड़े की तीसरी मंज़िल का दरवाज़ा कभी नहीं खोलना चाहिए। बीते सौ सालों में जिसने भी वो दरवाज़ा खोलने की हिम्मत की, वो कभी लौटकर नहीं आया।


माणिकराव जोशी — एक 28 साल का युवा पत्रकार, जो पुराने रहस्यों और लोककथाओं पर लेख लिखता था — उसे इस वाड़े की कहानी ने बेचैन कर दिया था। बरसात की एक अंधेरी शाम, जब आसमान में बिजली चमक रही थी और हवाएं डरावना संगीत बजा रही थीं, माणिकराव ने ठान लिया — वो उस तीसरी मंज़िल का दरवाज़ा खोलेगा।


रात के अंधेरे में जब वह वाड़े के भीतर घुसा, तो पुरानी लकड़ी की सीढ़ियों पर उसके कदमों की आवाज़ भी जैसे दम तोड़ रही थी। हर कदम के साथ एक ठंडी सांस उसके कानों में समा रही थी।


जब वह तीसरी मंज़िल पर पहुँचा, तो उसे महसूस हुआ कि वहां हवा ही नहीं थी — सिर्फ़ एक भयानक ख़ामोशी। दरवाज़े की दरारों से एक काला, चिपचिपा धुआं बाहर आ रहा था। दरवाज़े पर किसी अजीब भाषा में खुरच कर लिखा था —

"अगर आओगे… लौटोगे नहीं।"


माणिकराव ने हल्की-सी मुस्कान के साथ दरवाज़े को छुआ। जैसे ही दरवाज़ा खुला, एक बर्फ़-सी ठंडी हवा उसके चेहरे से टकराई। जो दृश्य उसने देखा, उसने उसके रोंगटे खड़े कर दिए।


अंदर सिर्फ़ अंधेरा नहीं था — वो अंधेरा जिंदा था।


दीवारों पर हज़ारों लाल-भूरे आंखें चमक रही थीं, जैसे हर दीवार किसी आत्मा से भरी हो। अचानक वो आंखें पिघलकर काले साये में बदल गईं। वो साये धीरे-धीरे ज़मीन पर रेंगने लगे। माणिकराव का शरीर जैसे पत्थर हो गया — वह हिल भी नहीं पा रहा था। उन सायों के बीच से एक भारी, फुसफुसाती आवाज़ आई — "तुम डरते हो…"


पढीये:

वो Nerus था — एक प्राचीन छाया प्रेत। वो इंसानी अपराधबोध, डर और पछतावे से पैदा होता है। Nerus का भोजन ही था इंसानों की यादें और उनका मानसिक संतुलन।


जैसे ही माणिकराव के मन में डर ने पहला बीज बोया, Nerus ने उसकी ओर देखा। उसकी साया जैसी उंगलियां उसके दिमाग़ में उतर गईं — और माणिकराव की सारी यादें खा गईं।

उसके माता-पिता, उसका नाम, उसका चेहरा, उसका अतीत — सबकुछ शून्य।


सिर्फ़ एक खाली खोल बचा… एक साया। और फिर तीसरी मंज़िल का दरवाज़ा धीरे से बंद हो गया।


अगली सुबह गांववालों को सिर्फ़ माणिकराव की टूटी कैमरा और नोटबुक मिली। नोटबुक के आख़िरी पन्ने पर बस एक ही वाक्य लिखा था —

"तीसरी मंज़िल का दरवाज़ा मत खोलना… Nerus अब भी जाग रहा है!"


गुरुवार, 1 मई 2025

छाया का सच

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"



शहर की चकाचौंध से दूर, एक रहस्यमयी गाँव था — धनपुर, जहाँ समय जैसे थम सा गया था।

यहाँ हर शाम ठीक 7:13 बजे, एक अजीब परछाईं पुरानी, वीरान हवेली से निकलती थी... और धीरे-धीरे गाँव के बीचोंबीच बनी उस टूटी लाइब्रेरी की ओर बढ़ती थी — फिर अचानक हवा में गायब हो जाती।


गाँव वाले इसे “छाया का श्राप” कहते थे।


कोई नहीं जानता था कि वो परछाईं किसकी है, क्यों आती है, और कहाँ जाती है। लेकिन एक बात सब मानते थे —

जो भी उस छाया का पीछा करता है, वो वापस नहीं लौटता।


इसे पढीये:

---


अनया सेन, एक जिद्दी और निडर पत्रकार, अंधविश्वास के पीछे छुपे सच को सामने लाने का जुनून रखती थी। जब उसने धनपुर की कहानी सुनी, तो वही उसकी अगली रिपोर्ट बन गई।


गाँव में कदम रखते ही, उसे एक अलग सी ठंड महसूस हुई। हवा में कुछ था — जैसे वो उसे देख रहा हो।


“यहाँ मत आना चाहिए था,” गाँव के बुज़ुर्ग ने चेतावनी दी।

“यहाँ सिर्फ़ परछाईं नहीं, अधूरा बदला है।”


पर अनया ने उनकी बातों को अंधविश्वास समझकर नज़रअंदाज़ कर दिया।



---


7:13 की रात


कैमरा हाथ में लिए अनया ने हवेली के बाहर डेरा जमाया।

धीरे-धीरे हवेली के भारी, जंग लगे दरवाज़े खुद-ब-खुद खुले...

और वही परछाईं बाहर निकली — धुंधली, लंबी, लेकिन इंसानी आकार से कुछ ज़्यादा अजीब।


कैमरे में कुछ नहीं था। स्क्रीन काली हो गई थी।


अनया घबराई, लेकिन पीछे नहीं हटी। उसने परछाईं का पीछा किया — वो उसे गाँव की पुरानी, जर्जर लाइब्रेरी तक ले गई।


लाइब्रेरी बंद थी… पर परछाईं अंदर चली गई।


अंदर पहुँचते ही, किताबों की एक पुरानी अलमारी अपने आप खुल गई और वहाँ छुपी एक पुरानी डायरी गिर पड़ी।


धूल भरी डायरी के पहले पन्ने पर नाम लिखा था —

"अर्जुन मेहरा"


15 साल पहले गायब हुआ एक लड़का — जिसकी गुमशुदगी पर गाँव ने चुप्पी साध ली थी।


डायरी के पन्नों में लिखा था:

"मैं ज़िंदा हूँ… या शायद नहीं। मेरी आत्मा इस हवेली में क़ैद है। जिसने मुझे मारा, वो अब भी ज़िंदा है — पर कोई मेरा यक़ीन नहीं करेगा। मुझे आज़ादी चाहिए।"


अनया का शरीर सिहर उठा।


तभी पीछे से किसी ने धीरे से उसका नाम लिया, “अनया...”


उसने तुरंत पलटकर देखा — कोई नहीं था।


पर हवा में एक फुसफुसाहट गूँजी — “अब तुम भी देख चुकी हो। अब तुम भी जुड़ चुकी हो।”


डरते-डरते अनया वापस लौट गई। अगली सुबह, लाइब्रेरी का दरवाज़ा खुला मिला, और मेज पर उसका कैमरा रखा था।


कैमरे में रिकॉर्डिंग चल रही थी, जिसमें एक लड़का मुस्कुराता हुआ कह रहा था:


“शुक्रिया, अनया... तुमने मुझे आज़ाद कर दिया। अब मैं जा रहा हूँ… लेकिन क्या तुम जा पाओगी?”



---


अंत में:

गाँव वालों ने उस दिन पहली बार हवेली से रोशनी निकलती देखी। पर अनया… वो कभी नहीं लौटी।


सिर्फ एक बात बदल गई —

अब हर रात 7:13 बजे, दो परछाइयाँ दिखने लगी थीं।

...........


छठा कमरा— “आहट”

  "चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जै...