![]() | |
"पलट कर मत देखना – इस डरावनी कहानी की तरह, यह चित्र एक सुनसान पहाड़ी रास्ते पर बढ़ते अकेले व्यक्ति के डर और रहस्य को दर्शाता है।" |
मैं सौरभ।
सरकारी सर्वे विभाग में काम करता हूं। आमतौर पर नक्शे बनाता हूं – शहरों, गाँवों, सुनसान जंगलों का।
पर इस बार कुछ अजीब हाथ में आया —
"भानखेर" गांव का नक्शा।
जंगलों के बीच, पहाड़ियों के नीचे बसा एक छोटा-सा गांव।
गूगल मैप में भी नहीं दिखता।
लेकिन फाइलों में उसका ज़िक्र था –
"गांव है, लोग हैं, लेकिन दस्तावेज़ नहीं हैं।"
मुझे भेजा गया वहां, अकेले।
गांव की सीमा पर एक टूटा-सा लकड़ी का बोर्ड था, जिस पर काले कोयले से लिखा था।
> ❝
जो गया, वो लौटा नहीं।
जो लौटा, वो अब इंसान नहीं।
पलट कर मत देखना।
❞
मैं हंसा।
गांवों में अक्सर ऐसी कहानियां होती हैं – भूत, चुड़ैल, आत्मा।
पर असली डर अंधविश्वास है, यही सोच कर अंदर गया।
गांव में सन्नाटा था।
घर कम थे, लोग कम और बोलने की हिम्मत तो जैसे किसी में थी ही नहीं।
जब एक बूढ़ी औरत ने मुझे पानी दिया, तो हाथ कांप रहे थे। मैंने पूछा —
"इतना डर क्यों है यहां?"
उसने बस एक बात कही —
"मत सुनो पीछे की आवाज़ें... वो अपनी नहीं होतीं।"
पहली रात वही सरकारी स्कूल में बिताई जहां मुझे ठहराया गया था।
सीलन भरी दीवारें, बंद खिड़कियां और... वो अजीब सपना।
> मैं एक संकरी पगडंडी पर चल रहा हूं।
पीछे कोई मुझे बुला रहा है — "सौरभ… रुको!"
आवाज़ मेरी मां की थी, लेकिन लहजा अजीब था।
मैं पलटा… और मेरी मां का चेहरा स्याह पड़ चुका था।
वो मुस्कुरा रही थी… पर आंखें नहीं थीं।
"अब तू भी मेरा ही है…"
और पढीये;
मैं घबरा कर उठा।
सीने पर बोझ था… और दूर से वही आवाज़ फिर आई —
"सौरभ…"
जब मैं गांव छोड़ने लगा, गांव की सबसे छोटी लड़की – करीब 9-10 साल की — मेरे पास दौड़ती हुई आई।
उसकी आंखें डरी हुई थीं।
"भैया, जाते हुए पीछे मत देखना… प्लीज़।"
मैं रुक गया।
पूछा, "क्यों?"
उसने बस इतना कहा:
"मेरे पापा ने देखा था। अब वो नहीं बोलते… बस खड़े रहते हैं…"
सुबह का वक़्त था।
मैंने अपना बैग कंधे पर टांगा और गांव से बाहर निकल पड़ा।
मेरे पैर उस कच्ची, सुनसान पहाड़ी पगडंडी पर बढ़ रहे थे — जो गांव से शहर तक जाती थी।
मैंने पीछे मुड़कर एक बार भी नहीं देखा।
क्योंकि अब कुछ अजीब-सा डर मेरे साथ चल रहा था।
आमतौर पर पहाड़ों में सुबह चिड़ियों की चहचहाहट होती है।
यहां… एक अजीब सन्नाटा था।
जैसे किसी ने पूरी वादी को चुप कर दिया हो।
और फिर, एक हल्की सी सिसकी सुनाई दी।
बहुत धीमी, बहुत पास से।
"सौरभ... रुक जा..."
आवाज़ एकदम मेरी मां की थी।
ठीक वैसे जैसे बचपन में बुखार में मुझे थपकी देती थीं।
मैं रुक गया।
साँसें थम गईं।
क्या ये सपना है?
क्या मेरी मां सच में यहां हैं?
या ये उसी डर का हिस्सा है?
मैंने खुद से कहा — "नहीं सौरभ, तुझे चेताया गया था। ये वही आवाज़ है जो सबको रोकती है।"
मैंने आंखें बंद कीं… तेज़ी से चलने लगा…
---
लेकिन डर सिर्फ आवाज़ नहीं था...
अब पैरों की आहट मेरे पीछे चल रही थी।
जैसे कोई नंगे पाँव मुझसे बिल्कुल पास चल रहा हो।
उसकी सांसों की आवाज़… मेरे कानों के बिल्कुल पास।
और फिर...
एक ठंडी, कांपती उंगलियाँ मेरी गर्दन पर आकर ठहर गईं।
---
उस क्षण... मैंने खुद को खो दिया
मेरे शरीर ने दिमाग की नहीं सुनी।
मैं… पलट गया।
और...
.....
पगडंडी खत्म हो चुकी थी।
उसके पीछे कोई रास्ता नहीं था।
गांव… शहर… पेड़… पहाड़ — कुछ भी नहीं।
सिर्फ एक अजीब काली धुंध, और मैं।
और मेरे सामने खड़ी मेरी मां — नहीं, वो मेरी मां नहीं थीं।
वो कुछ और थीं —
उनकी आंखों की जगह सिर्फ गहरे छेद, होंठ सिल दिए गए थे…
और उनके कानों से खून टपक रहा था।
उन्होंने धीरे से कहा:
"अब तू भी वही करेगा जो मैंने किया… रास्ता दिखा…"
--