गुरुवार, 1 मई 2025

छाया का सच

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"



शहर की चकाचौंध से दूर, एक रहस्यमयी गाँव था — धनपुर, जहाँ समय जैसे थम सा गया था।

यहाँ हर शाम ठीक 7:13 बजे, एक अजीब परछाईं पुरानी, वीरान हवेली से निकलती थी... और धीरे-धीरे गाँव के बीचोंबीच बनी उस टूटी लाइब्रेरी की ओर बढ़ती थी — फिर अचानक हवा में गायब हो जाती।


गाँव वाले इसे “छाया का श्राप” कहते थे।


कोई नहीं जानता था कि वो परछाईं किसकी है, क्यों आती है, और कहाँ जाती है। लेकिन एक बात सब मानते थे —

जो भी उस छाया का पीछा करता है, वो वापस नहीं लौटता।


इसे पढीये:

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अनया सेन, एक जिद्दी और निडर पत्रकार, अंधविश्वास के पीछे छुपे सच को सामने लाने का जुनून रखती थी। जब उसने धनपुर की कहानी सुनी, तो वही उसकी अगली रिपोर्ट बन गई।


गाँव में कदम रखते ही, उसे एक अलग सी ठंड महसूस हुई। हवा में कुछ था — जैसे वो उसे देख रहा हो।


“यहाँ मत आना चाहिए था,” गाँव के बुज़ुर्ग ने चेतावनी दी।

“यहाँ सिर्फ़ परछाईं नहीं, अधूरा बदला है।”


पर अनया ने उनकी बातों को अंधविश्वास समझकर नज़रअंदाज़ कर दिया।



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7:13 की रात


कैमरा हाथ में लिए अनया ने हवेली के बाहर डेरा जमाया।

धीरे-धीरे हवेली के भारी, जंग लगे दरवाज़े खुद-ब-खुद खुले...

और वही परछाईं बाहर निकली — धुंधली, लंबी, लेकिन इंसानी आकार से कुछ ज़्यादा अजीब।


कैमरे में कुछ नहीं था। स्क्रीन काली हो गई थी।


अनया घबराई, लेकिन पीछे नहीं हटी। उसने परछाईं का पीछा किया — वो उसे गाँव की पुरानी, जर्जर लाइब्रेरी तक ले गई।


लाइब्रेरी बंद थी… पर परछाईं अंदर चली गई।


अंदर पहुँचते ही, किताबों की एक पुरानी अलमारी अपने आप खुल गई और वहाँ छुपी एक पुरानी डायरी गिर पड़ी।


धूल भरी डायरी के पहले पन्ने पर नाम लिखा था —

"अर्जुन मेहरा"


15 साल पहले गायब हुआ एक लड़का — जिसकी गुमशुदगी पर गाँव ने चुप्पी साध ली थी।


डायरी के पन्नों में लिखा था:

"मैं ज़िंदा हूँ… या शायद नहीं। मेरी आत्मा इस हवेली में क़ैद है। जिसने मुझे मारा, वो अब भी ज़िंदा है — पर कोई मेरा यक़ीन नहीं करेगा। मुझे आज़ादी चाहिए।"


अनया का शरीर सिहर उठा।


तभी पीछे से किसी ने धीरे से उसका नाम लिया, “अनया...”


उसने तुरंत पलटकर देखा — कोई नहीं था।


पर हवा में एक फुसफुसाहट गूँजी — “अब तुम भी देख चुकी हो। अब तुम भी जुड़ चुकी हो।”


डरते-डरते अनया वापस लौट गई। अगली सुबह, लाइब्रेरी का दरवाज़ा खुला मिला, और मेज पर उसका कैमरा रखा था।


कैमरे में रिकॉर्डिंग चल रही थी, जिसमें एक लड़का मुस्कुराता हुआ कह रहा था:


“शुक्रिया, अनया... तुमने मुझे आज़ाद कर दिया। अब मैं जा रहा हूँ… लेकिन क्या तुम जा पाओगी?”



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अंत में:

गाँव वालों ने उस दिन पहली बार हवेली से रोशनी निकलती देखी। पर अनया… वो कभी नहीं लौटी।


सिर्फ एक बात बदल गई —

अब हर रात 7:13 बजे, दो परछाइयाँ दिखने लगी थीं।

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