जंगल का खौफ़ (अनदेखी परछाई)

 

“गढ़चिरौली के घने, हरे जंगल में 21 वर्षीय सिद्धार्थ अपने दो दोस्तों के साथ बैकपैक लेकर पैदल आगे बढ़ रहा है। सुबह की हल्की धुंध, ऊँचे साल के पेड़ और घनी हरियाली के बीच तीनों उत्साह और अनजान रहस्य की तरफ बढ़ रहे हैं।”
“ख़ामोशी जितनी गहरी… रहस्य उतना पुराना।”

जून की गर्मी अभी पूरी तरह उतरी भी नहीं थी, लेकिन गढ़चिरौली के जंगल में मॉनसून का पहला संकेत हवा में गीलापन भर चुका था।

धूप दिन में अभी भी तीखी थी, पर सुबह की नमी और रात की ठंडक मिलकर पूरे इलाके को एक अलग मौसम में ढाल रही थी—ऐसा मौसम जहाँ आवाज़ें दूर तक जाती हैं, और खामोशी उसके बाद और गहरी हो जाती है।

सिद्धार्थ 21 का था, शहर में कॉलेज खत्म होते ही एडवेंचर का भूत सवार था। सोशल मीडिया पर उसने “गढ़चिरौली – अनछुआ जंगल, अनदेखे रास्ते” वाला पोस्ट देखा और तय कर लिया—यही जगह है।

साथ में दो दोस्त थे।

सुमित – हर काम को मज़ाक में उड़ाने वाला, बातों में हल्का, पर किसी भी मुश्किल में भरोसेमंद।

करण – शांत, observation वाला, चीज़ें बोलने से पहले आँखों से पढ़ने वाला लड़का।

तीनों ने बैग बाँधा, बस पकड़ी, और एक दिन बाद उस किनारे पहुँचे जहाँ से असली दुनिया खत्म और जंगल शुरू होता था।

उनका base एक छोटा सा गाँव था—मुरकुर।

जंगल इससे करीब 7–8 किलोमीटर अंदर शुरू होता था। गाँव इतना शांत कि दिन में भी आवाज़ें गिनी जा सकती थीं।

कच्चे मिट्टी के घर, बरामदों में बुजुर्गों की धीमी बातें, दाल के तड़के की खुशबू, और गायों के गले में लटकती घंटियों की अलग-सी टनक, जो हवा में कहीं अटक जाती थी।

शाम को गाँव में एक ही आवाज़ गूँजती थी—साइकिल की चेन, चूल्हे की आग, या फिर पत्तों में हवा की सिसकारी।

सिद्धार्थ को यह शांति पसंद आई, लेकिन जंगल के किनारे जाने पर कुछ अलग महसूस हुआ।

जैसे वहाँ हवा चलती नहीं… धकेलती है।

जैसे जंगल में आवाज़ नहीं उठती… निगली जाती है।

पर रोमांच के आगे ऐसे एहसास हल्के पड़ जाते हैं।


अगली सुबह तीनों बिना गाइड लिए, GPS और पावर बैंक के भरोसे जंगल में उतर गए।

पहले दो घंटे सब सामान्य था—पेड़ों के बीच से आती धूप की सीढ़ियाँ, दूर उड़ते पक्षी, पैरों के नीचे सूखी लकड़ियों की चटक।

लेकिन 11 बजे के बाद उसे महसूस हुआ जिसे शब्द देना मुश्किल है—जंगल का स्वभाव बदल गया।

धूप वही थी, पर रंग हल्का फीका।

हवा वही थी, पर गति रुक-रुक कर।

आवाज़ें वही थीं, पर अब उनके बीच gaps बनने लगे थे।

ऐसे gaps जो असली नहीं लगते…

जैसे किसी ने pause दबा दिया हो।

कभी-कभी दूर से एक अनजानी ध्वनि आती—कोई पुकार नहीं, कोई जानवर नहीं, बस एक low frequency hum जैसा, और फिर सन्नाटा।

सुमित लगातार बात कर रहा था, पर पहली बार उसकी आवाज़ भी कुछ ढकी-सी लग रही थी।

करण बार-बार पीछे मुड़ता, बिना वजह नहीं, जैसे कुछ disturbance sense कर रहा हो।

सिद्धार्थ की नज़र अक्सर पेड़ों के बीच के खाली हिस्सों पर अटकने लगी, जहाँ कोई नहीं था… फिर भी कुछ था।

दोपहर के बाद जंगल घना होते-होते इतना कस गया कि 20 कदम आगे धुंधला दिखने लगा।

और फिर, पहली असली असहजता—

एक विशाल सेमल के पेड़ के नीचे उन्हें मिट्टी पर तीन पैर के निशान मिले,

लेकिन तीनों अलग-अलग समय के नहीं…

जैसे कोई वहाँ खड़ा था, फिर गायब हो गया, फिर वापस खड़ा हो गया।

पत्ते हल्के गीले थे, पर निशान सूखे।

कोई दूर तक कीड़ा भी नहीं बोल रहा था।

सिर्फ उनका साँस लेने की आवाज़ बची थी—और वो भी भारी लग रही थी।

“शाम के धुँधलके में सिद्धार्थ और उसके दोनों दोस्त जंगल के बीच ठहरे हुए हैं। पेड़ों के बीच गहरा अँधेरा है, पत्ते शांत हैं, हवा भी स्थिर। कुछ दिखाई नहीं दे रहा, लेकिन जंगल का माहौल किसी अनदेखी मौजूदगी का एहसास जगा रहा है।”
“जंगल की आँखें तब खुलती हैं… जब इंसान चुप हो जाता है।”


सूरज 5 बजे के आसपास छिपने लगा।

जीपीएस अचानक glitch कर गया—location एक ही जगह पर rotate हो रही थी।

अब सन्नाटा गूँजने जैसा महसूस हो रहा था।

जंगल अब background नहीं था… character बन चुका था।

और फिर रात उतरने लगी—धीरे नहीं, जैसे किसी ने curtain खींच दिया हो।

टॉर्च ऑन की, पर रोशनी 6–7 फीट से ज़्यादा नहीं जा रही थी, जैसे अंधेरा इसे खा रहा हो।

तभी पहली बार उन्होंने सुना—

पत्तों पर कदम… लेकिन दबे, हल्के, इंसानी नहीं।

रुकते… फिर बढ़ते… फिर गायब।

कोई जानवर इतना calculate नहीं चलता।

करण ने पहली बार आवाज़ निकाली—

पर वाक्य पूरा नहीं किया।

उससे पहले वही आवाज़ जंगल ने दोहरा दी… ठीक उसी टोन में।

तीनों का खून जम गया।

किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा।

पर तीनों समझ गए—

जो भी है… जंगल में अकेला नहीं है।

एक झापसा-सा movement दिखा—तेज़, low, पेड़ों के बीच से तैरता हुआ।

वजनदार नहीं, पैर ज़मीन पर कम छूता हुआ।

तीनों जंगल के अंदर भागने लगे—बिना दिशा, बिना रणनीति, सिर्फ survival instinct।

भागते-भागते सिद्धार्थ को लगा उसकी कमर के पीछे कोई साँस छोड़ रहा है—गर्म, रुक-रुक कर… जैसे कोई सूँघ रहा हो।

कान में blood rushing था।

पैर ज़मीन पर पड़ रहे थे, पर आवाज़ रबर की तरह गूँज रही थी।

रात अब अंधेरी नहीं… जीवित लग रही थी।

फ्लैश टॉर्च में कभी-कभी कुछ आकार बन जाता, पर पूरा नहीं


कोई आकृति, लेकिन hedge जैसी, मानवीय लेकिन विकृत।

सुमित गिरा—गत्राँक आवाज़ के साथ।

करण रुका, उठाने झुका, और तभी—

टॉर्च की light में चेहरे जैसा कुछ उभरा

लेकिन शार्प नहीं, blur-edged…

जैसे कोई image रेंडर होते-होते बिच में corrupt हो गया हो।

न आँख, न मुँह, बस intent।

सुमित चीखने वाला था—

आवाज़ निकली, लेकिन जंगल ने उसे निगल लिया।

“रात के बाद हल्की सुबह में सिद्धार्थ जंगल से बाहर एक कच्चे रास्ते पर अकेला खड़ा है। कपड़े मिट्टी और पत्तों से सने हैं, चेहरे पर गहरी घबराहट, आँखों में ठहरी दहशत। उसके दोस्त आसपास नहीं हैं, और वह ज़िंदा तो है… पर पहले जैसा नहीं।”
“वो बच गया… पर जंगल उसे कभी छोड़ नहीं पाया।”


वे एक सूखे नाले के किनारे गिरे।

वहाँ हवा स्थिर थी, पत्ते भी नहीं हिल रहे थे, लेकिन उपस्थिति अब उनके चारों ओर थी—एक pressure bubble की तरह।

आँखें अंधेरे में adjust होने लगीं तो सिद्धार्थ को लगा—

उनसे कुछ दूरी पर वो आकृति अब भी है, लेकिन अब छुप नहीं रही,

बल्कि देख रही है।

ऐसा देखना जो शरीर को नहीं… मन को पकड़ता है।

दिमाग के अंदर खरोंच छोड़ता हुआ।

न कोई दहाड़, न कोई हमला, न कोई ग़ुस्सा—

सिर्फ मौजूदगी।

जंगल की आवाज़ें बंद।

उनके अपने विचार भी बंद।

सांसें बस mechanically चल रही थीं।

करण की हालत statuesque थी—शरीर freeze, आँखें खुली, पुतलियाँ trembling।

सुमित बेहोश पड़ चुका था, साँस धीमी, पर ज़िंदा।

सिद्धार्थ ने चाहा चिल्लाए—

पर जैसे उसके गले से आवाज़ अलग कर दी गई हो।

और फिर…

वो आकृति धीरे-धीरे पीछे हटी।

ऐसे नहीं जैसे जा रही हो…

बल्कि जैसे फ्रेम से बाहर slide हो रही हो।

बिना मुड़े, बिना आवाज़, बिना footprint।

जंगल दोबारा सांस लेने लगा।

कीड़े वापस बोलने लगे।

हवा चल पड़ी।

टूटे हुए तीन इंसान सुबह 4 बजे गाँव के किनारे मिले—भीगे, मिट्टी में सने, खून सिर्फ खरोंचों का, पर सदमा आत्मा तक।

सुमित और करण बोल पाए।

पर सिद्धार्थ… नहीं।

डॉक्टरों ने कहा—shock induced selective mutism.

मानसिक आघात, इलाज संभव है।

पर सच ये था—

उसकी आवाज़ वापस उसके शरीर में थी,

पर दुनिया में नहीं बची थी।

कभी-कभी रात में वो जागकर हवा को देखता है,

ऐसे जैसे वहाँ फिर से कुछ खड़ा हो।

और जंगल…

आज भी नक्शे के किनारे पर शांत बैठा है—

न घाव दिखाता है, न शोर करता है,

बस रहता है।

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