धोबी का कुत्ता

 

“भूतिया गांव की रात में कुएं के पास अकेला खड़ा धुंध में डूबा कुत्ता, रहस्यमय सन्नाटे और डरावनी कहानी का प्रतीक”
"‘धोबी का कुत्ता’ – एक रहस्यमय गांव की दहशतभरी रात, जहां डर की परतें धीरे-धीरे खुलती हैं।"

मध्य भारत के छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सीमा पर बसा एक छोटा-सा गाँव था — नरझरा। नाम जितना सीधा, किस्से उतने ही टेढ़े। जंगलों से घिरा ये गाँव, दूर से शांत और सरल लगता था, लेकिन गाँववालों के बीच एक पुरानी कहावत चलती थी — “नरझरा में हर जीव की दो परछाइयाँ होती हैं, एक जीती और एक मरी।”
इस गाँव की सबसे डरावनी जगह थी — पुराना घाट। वहीं बसा था एक उजड़ा सा धोबीघर, जिसे अब लोग ‘भूतों का घर’ कहते थे।

बात है सावन महीने की। गाँव में बारिशें जल्दी शुरू हो गई थीं और नरझरा का नदी घाट तेज़ बहने लगा था। धोबी समाज का परिवार जो वर्षों पहले उस घाट पर कपड़े धोता था, अब गाँव से कहीं दूर जा चुका था — कहते हैं, उनके परिवार का कुत्ता पागल हो गया था और उसी ने मालिक को नोच खाया था।
कुत्ते का नाम था — कालू। गाँववालों का मानना था कि वो कुत्ता अब भी उस उजड़े धोबीघर में भटकता है।
लेकिन कुत्तों की उम्र कितनी होती है? 12-15 साल?
कालू को मरे हुए 35 साल हो चुके थे। फिर भी, हर अमावस्या की रात घाट पर कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आती थी।

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गाँव में कुछ बच्चे क्रिकेट खेलते हुए पुराने घाट तक पहुँच गए। वहीं एक लड़का — राकेश, सबसे तेज़ और निडर, धोबीघर के पास गया और मज़ाक में ज़ोर से बोला:
“ए कालू कुत्ते! अगर तू सच में है तो आ जा!”
उसी शाम, राकेश के घर का दरवाज़ा तीन बार खरोंचा गया। जब माँ बाहर निकली, तो कोई नहीं था — लेकिन आँगन में पानी से सना कुत्ते का पंजे का निशान था।
धीरे-धीरे गाँव में डर फैलने लगा। रातों में कुत्तों का हिंसक भौंकना, मवेशियों की मौत, और बच्चों का नींद में चिल्लाना आम हो गया।

एक दिन गाँव की बुज़ुर्ग — माई तुलसी, जिसने उस धोबी परिवार को जाते देखा था — बोली:
“वो कुत्ता, सिर्फ़ कुत्ता ना था। वो उनके बेटे की आत्मा को अपने साथ बांधे रखे था। धोबी के बेटे की मौत कुएँ में डूब कर नहीं, कालू के साथ उस घर में ही हुई थी...”
लोग डरने लगे — और तब एक जवान मास्टरनी, संगीता, जो हाल ही में शहर से आई थी, उसने कहा, “भूत नहीं होते, डर होते हैं जो बस दिमाग में रहते हैं।”
उसने खुद जाकर अमावस्या की रात धोबीघर में रुकने की ठानी।

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रात के बारह बजे, हवा एकदम शांत हो गई थी। धोबीघर में टॉर्च की मद्धम रोशनी में, संगीता अंदर बैठी थी — अकेली।
तभी खटाक से एक कोना गिरा — एक पुरानी चप्पल लुड़क कर बाहर आई।
और फिर आया वो — कानों को चीरता हुआ भौंक, जिसे सुनकर खून जम जाए।
दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया।
संगीता ने मोबाइल निकाला — पर कोई नेटवर्क नहीं। टॉर्च भी बुझ गई।
अचानक उसके गले के पास गर्म सांसों की सी सनसनाहट महसूस हुई।
काला साया… दो आँखें जो बिल्कुल कुत्ते की थीं — पर इंसानों जैसी गहरी।
एक पल को लगा कि वो जानवर नहीं... कोई फँसी हुई आत्मा थी।
सुबह गाँववालों ने दरवाज़ा तोड़ा, तो संगीता अंदर बेहोश मिली — पर ज़िंदा। उसके हाथ में एक पुरानी तस्वीर थी — धोबी का परिवार और वो कुत्ता।

तस्वीर के पीछे लिखा था —
“कालू ने अपने मालिक की जान नहीं ली थी। असली हत्यारा उसका मामा था, जो संपत्ति चाहता था। कालू ने सच छिपा लिया... और खुद बेकसूर मारा गया।”

गाँववालों ने उसी घाट के पास एक छोटा-सा मंदिर बनाया और तस्वीर वहीं रख दी।
उसके बाद कभी भी कुत्ते की आवाज़ नहीं आई।


धोबी का कुत्ता, ना इधर का था, ना उधर का — जैसे वो कहावत,
“धोबी का कुत्ता ना घर का ना घाट का।”
लेकिन उसका भटकना किसी भूत की वजह से नहीं, अन्याय के बोझ से था।

अब शायद वो साया चैन में है।


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