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| "चौधरी हवेली में रहस्यमयी हलचल…क्या छुपा है दीवारों के पीछे?" |
शहर की सबसे व्यस्त सड़क पर आज सुबह अजीब सी हलचल थी।
लोगों की नज़रें चौधरी हवेली की ओर लगी थीं।
पुलिस वैन और एंबुलेंस हवेली के आंगन में खड़ी थीं।
गेट के बाहर भीड़ जमा थी, हर कोई कानाफूसी कर रहा था —
“सुना है...दीनानाथ चौधरी...अब इस दुनिया में नहीं रहे।”
“कत्ल हुआ है...या कुछ और?”
पर हवेली की ऊँची दीवारों और पीले टेप से घिरे आंगन के भीतर जो राज़ दफ्न था, वह किसी ने नहीं जाना था।
अचानक एक काली जीप वहां आकर रुकी।
दरवाज़ा खुला और उतरे इंस्पेक्टर अविनाश सावंत।
गहरी निगाहें, सधी हुई चाल और चेहरे पर वही आत्मविश्वास, जिसने उन्हें शहर का सबसे सख़्त और सबसे मंजा हुआ अफसर बनाया था।
हवेली के आंगन में मौजूद पुलिसकर्मी तुरंत सलामी देने लगे।
सहायक महेश जाधव उनके पास आया और धीमे स्वर में बोला —
“सर...कमरा सील कर दिया है। परिवार हॉल में है। और...”
उसने ज़रा झुककर कहा, “मामला साफ़ नहीं लग रहा।”
अविनाश ने हल्की भौंहें चढ़ाईं।
“साफ़ मामले मेरे पास आते ही नहीं, महेश। चल, दिखा।”
अध्याय 3 – कमरे का मंजर
चौधरी हवेली के ऊपर वाले हिस्से में, दीनानाथ का निजी कमरा।
दरवाज़े पर पीली पट्टी लगी थी, लेकिन अंदर जाते ही दृश्य ने दिल दहला दिया।
अलमारी के दरवाज़े टूटे पड़े थे।
फ़र्श पर बिखरे कांच के टुकड़े चमक रहे थे।
मेज़ पर आधे-अधूरे कागज़ फैले थे, जैसे हवा में उड़े हों।
और कमरे के बीचोंबीच...खून के गहरे धब्बे।
अविनाश कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा।
उसकी आदत थी — अपराध स्थल से पहले उसकी धड़कन सुनने की।
फिर उसने धीरे-धीरे चारों ओर चलना शुरू किया।
महेश ने पीछे से कहा, “सर, लगता है चोरी और उसके बीच ही हत्या हुई।”
अविनाश झुका, टूटा हुआ कांच उठाया, पलट कर देखा और हल्की मुस्कान दी।
“महेश...सीधा मत सोच। जितना सीधा दिखे, उतना उलझा हुआ होता है।”
नीचे हॉल में परिवार जमा था।
बड़ा बेटा अरुण — आँखों में गुस्सा, जैसे दुनिया से लड़ने को तैयार।
बहू रीना — बेहद खामोश, नज़रों में कुछ ऐसा जिसे वह छुपाना चाहती हो।
छोटा बेटा मयंक — पसीने से भीगा, होंठ कांप रहे थे।
बहू सुजाता — चुपचाप एक कोने में बैठी, जैसे रोना चाहकर भी रो न पा रही हो।
और सबसे अलग खड़ा गंगाराम — पुराना वफादार नौकर, आँखों में आँसू, लेकिन उन आँसुओं में अजीब-सा आक्रोश भी।
अविनाश ने एक-एक चेहरे को गौर से देखा।
किसी ने सच छुपाया था।
पर कौन?
अध्याय 5 – फॉरेंसिक रिपोर्ट
दोपहर को फॉरेंसिक टीम की रिपोर्ट आई।
महेश ने कागज़ थमाते हुए कहा, “सर...ये पढ़िए।”
रिपोर्ट ने सबको चौंका दिया।
लिखा था —
“दीनानाथ चौधरी की मृत्यु खून बहने से पहले हो चुकी थी।
यानी उनके सिर पर वार होने से पहले ही उनकी सांसें थम चुकी थीं।”
अविनाश ने रिपोर्ट को बार-बार पढ़ा।
“मतलब...खून सिर्फ दिखाने के लिए था।”
कमरे में गहरी खामोशी छा गई।
ये कत्ल...उससे कहीं ज़्यादा पेचीदा था जितना दिख रहा था।
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| "शहर का सबसे मंज़ा हुआ इंस्पेक्टर — हर सुराग की तलाश में।" |
अगले तीन दिन अविनाश ने हवेली की हर दीवार, हर खिड़की, हर कागज़ छान डाला।
लेकिन तस्वीर धुंधली ही रही।
कभी शक अरुण पर जाता, कभी मयंक पर, कभी रीना के चेहरे पर कोई अजीब-सी चमक दिखती...
और गंगाराम की चुप्पी सबसे ज़्यादा खटकती।
पर सबूत?
कहीं भी साफ़ सबूत नहीं मिल रहा था।
उस रात अविनाश देर तक अपने ऑफिस में बैठा रहा।
टेबल पर फैली रिपोर्ट्स, फोटो और नोट्स...पर कोई कड़ी जुड़ नहीं रही थी।
वह बुदबुदाया —
“ये हत्या नहीं...एक खेल है। और मैं उस खिलाड़ी को पहचान नहीं पा रहा।”
रात गहराते ही अविनाश ने फोन उठाया।
एक नंबर डायल किया जो बहुत कम लोग जानते थे।
दूसरी तरफ़ से ठंडी, गहरी आवाज़ आई —
“बहुत दिनों बाद याद किया, अविनाश?”
अविनाश ने थकान भरी सांस ली।
“रजनीश...इस केस में मेरे अनुभव कम पड़ रहे हैं।
मुझे तेरी नज़र चाहिए।”
कुछ देर खामोशी रही।
फिर आवाज़ आई —
“कल सुबह...मैं वहीं मिलूंगा।”
अध्याय 8 – असली जासूस की दस्तक
अगली सुबह हवेली के बाहर एक काली कार आकर रुकी।
दरवाज़ा खुला और बाहर निकला लंबा, गहरे रंग का कोट पहने, तीखी आँखों वाला आदमी।
लोग उसे उसके असली नाम से नहीं जानते थे।
दुनिया उसे सिर्फ़ एक नाम से पहचानती थी —
जासूस रजनीश।
उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी।
उसने हवेली की ओर देखा और धीरे से कहा —
“हर मकान अपने अंदर राज़ छुपाता है...चलो, देखते हैं इस हवेली ने क्या छुपा रखा है।”
जासूस रजनीश ने हवेली में कदम रखते ही एक लंबी सांस खींची।
“यहाँ...ख़ामोशी भी शोर मचा रही है,” उसने धीरे से कहा।
अविनाश उसके साथ कमरे की ओर बढ़ा।
रजनीश चलते-चलते हर कोने को नज़र से टटोलता रहा —
सीढ़ियों पर जमी हल्की धूल, खिड़कियों पर ताले का निशान, और फ़र्श पर अजीब-सा खुरचाव।
कमरे में पहुँचकर उसने फर्श पर बने खून के दागों को देखा।
झुककर हथेली से हल्का सा छुआ, फिर सूंघा।
“दिलचस्प…” वह बुदबुदाया।
“ये खून...बिल्कुल ताज़ा है, पर जिस्म ठंडा होने के बहुत पहले गिराया गया।”
अविनाश ने चौंक कर उसकी ओर देखा।
“मतलब…?”
रजनीश सीधा खड़ा हुआ।
उसकी आँखों में चमक थी।
“मतलब ये कि जो मौत दिख रही है…वो असलियत नहीं है।
कातिल ने सिर्फ़ खेल रचा है।”
कमरा एकदम खामोश हो गया।
अविनाश की आँखें सिकुड़ गईं।
“तो फिर...मरने से पहले दीनानाथ के साथ हुआ क्या था?”
रजनीश मुस्कराया।
“यही तो पता लगाना है, मेरे दोस्त। और जवाब…इन दीवारों में ही छुपा है।”
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नीचे हॉल में परिवार बैठा था।
रजनीश ने सबको गौर से देखा।
हर चेहरा एक मुखौटे के पीछे छिपा था।
उसने सबसे पहले बड़े बेटे अरुण पर नज़रें टिकाईं।
अरुण बार-बार अपनी उंगलियाँ मरोड़ रहा था।
गुस्से से भरी आँखें, लेकिन उन आँखों में कहीं डर भी छुपा था।
रजनीश ने अचानक पूछा —
“कल रात आप कब सोने गए थे?”
अरुण थोड़ा झेंपा।
“जी…करीब ग्यारह बजे।”
“और तब आपके पिता जाग रहे थे?”
अरुण ने निगाहें झुका लीं।
“जी…हाँ। वो अपने कमरे में थे।”
रजनीश ने बस हल्की मुस्कान दी, और कोई सवाल नहीं किया।
लेकिन अविनाश ने गौर किया —
अरुण के माथे पर पसीना आ गया था।
रात को जब सब जा चुके थे, रजनीश अकेले हवेली के आँगन में टहल रहा था।
उसने अपनी पॉकेट से छोटा-सा लेंस निकाला और सीढ़ियों के पास झुक गया।
वहाँ धूल पर हल्के-हल्के जूतों के निशान थे।
वह बुदबुदाया —
“ये निशान...अरुण के जूतों से मेल नहीं खाते।
ना ही मयंक के।
तो फिर...ये किसके?”
अचानक पीछे से आवाज़ आई।
“रजनीश!”
अविनाश खड़ा था।
“क्या मिला?”
रजनीश ने लेंस जेब में रखा और मुस्कराया।
“सिर्फ़ इतना कि...हत्यारा परिवार का है भी, और नहीं भी।”
अविनाश ने हैरत से उसकी ओर देखा।
“मतलब?”
रजनीश ने धीरे से कहा —
“मतलब ये कि...ये हत्या दो लोगों की साझेदारी का खेल है।
एक घर के भीतर से...और एक बाहर से।”
हवेली के ड्रॉइंग रूम में गहरी रात उतर आई थी।
बाहर सन्नाटा, सिर्फ़ दीवार घड़ी की टिक-टिक।
अंदर एक-एक करके सबको बुलाया गया।
माहौल ऐसा था जैसे किसी अदालत में गवाही हो रही हो।
पहला गवाह – गंगाराम
वफादार नौकर गंगाराम सामने आया।
उसका चेहरा झुका हुआ था, आँखों में आँसू अटके हुए।
अविनाश ने सख़्ती से कहा —
“गंगाराम, तुमने चौधरी साहब को आखिरी बार कब देखा था?”
गंगाराम हकलाते हुए बोला —
“साहब…रात को खाना खाकर अपने कमरे में चले गए थे।
मैंने ही पानी रख दिया था। उसके बाद मैं रसोई में सो गया।”
रजनीश ने अचानक बीच में पूछा —
“रसोई में? हमेशा वहीं सोते हो?”
गंगाराम चौंका।
“जी…नहीं। ज़्यादातर बाहर के बरामदे में। पर उस दिन…ठंड लग रही थी।”
रजनीश की आँखें चमक उठीं।
“ठंड?…सितंबर की इस उमस भरी रात में?”
गंगाराम ने तुरंत नज़रें झुका लीं।
अविनाश ने नोटबुक पर कलम चलाई।
दूसरी गवाह – रीना
बड़ी बहू रीना कमरे में आई।
उसकी चाल में सधा हुआ संतुलन था, लेकिन आँखें बार-बार इधर-उधर भाग रही थीं।
अविनाश ने नरमी से पूछा —
“भाभीजी, आप अपने ससुर से कैसी बातें करती थीं?”
रीना ने लंबी सांस ली।
“सच कहूँ तो…हमारे रिश्ते बहुत अच्छे नहीं थे।
साहब हमेशा हम पर शक करते थे, पैसों को लेकर, घर के ख़र्चों को लेकर।
लेकिन…मैं उन्हें कभी नुकसान नहीं पहुँचा सकती।”
रजनीश ने टेबल पर पड़े काग़ज़ात की ओर इशारा किया।
“ये दस्तावेज़…इन पर आपका साइन है।”
रीना का चेहरा फक पड़ गया।
“वो…वो तो अरुण के कहने पर…मैंने…”
अविनाश ने भौंहें चढ़ा दीं।
रीना का चेहरा पसीने से भीग चुका था।
तीसरा गवाह – मयंक
छोटा बेटा मयंक काँपते हुए अंदर आया।
उसकी आँखों में नींद की कमी और बेचैनी साफ़ झलक रही थी।
अविनाश ने तेज़ स्वर में कहा —
“कल रात तुम कहाँ थे?”
“जी…मैं अपने कमरे में था।”
“कोई देख सकता है?”
“न-नहीं सर…”
रजनीश धीरे से आगे झुका।
“मयंक, तुम झूठ बोल रहे हो। तुम्हारी शर्ट पर हल्की-सी मिट्टी लगी थी…जबकि तुम कहते हो कि कमरे से बाहर ही नहीं निकले।”
मयंक के होंठ काँपे।
लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
बस खामोश खड़ा रहा।
रात गहराती गई, पूछताछ खत्म हुई।
पर हवेली की हवा और भारी हो गई थी।
रजनीश बाहर बरामदे में खड़ा तारों की ओर देख रहा था।
अविनाश उसके पास आया।
“कुछ मिला?”
रजनीश मुस्कराया।
“बहुत कुछ। पर अभी आधा-अधूरा है।
इतना तय है कि इस हवेली में कोई न कोई ऐसा है जो ज्यादा जानता है, लेकिन बोल नहीं रहा।”
अविनाश ने पूछा —
“तो अगला कदम?”
रजनीश ने धीरे से कहा —
“अब हमें…लाश से पूछना होगा।”
अविनाश चौंक गया।
“मतलब?”
रजनीश ने धीमे स्वर में कहा —
“मतलब, पोस्टमार्टम से जितना छुपा है, हमें उतना खुद देखना होगा।
दीनानाथ चौधरी की लाश…अब तक सबसे बड़ा सबूत बनी हुई है।”
अगली सुबह, पोस्टमार्टम हॉल।
ठंडी मेज़ पर दीनानाथ चौधरी की देह रखी थी।
कमरे में सिर्फ़ अविनाश, रजनीश और फॉरेंसिक अफ़सर मौजूद थे।
डॉक्टर ने धीरे से कहा —
“देखिए, शरीर पर चोट के निशान ज़रूर हैं, लेकिन मौत इनसे नहीं हुई।
असल वजह है…ज़हर।”
रजनीश की आँखें सिकुड़ गईं।
“किस तरह का ज़हर?”
“धीमा असर करने वाला।
ऐसा ज़हर जो खाने में मिलाया जाए तो मौत धीरे-धीरे आती है, और लगने लगता है जैसे दिल का दौरा पड़ा हो।”
अविनाश ने कड़वाहट से सांस ली।
“मतलब किसी ने जानबूझकर…धीरे-धीरे मौत दी।”
रजनीश ने लाश के हाथ पर बने नीले निशान को गौर से देखा।
“और ये…ये ज़हर छुपाने के लिए सिर पर वार किया गया।
ताकि लगे कि खून ही वजह है।”
कमरे की हवा अचानक भारी हो गई।
अब साफ़ था —
ये कोई हादसा नहीं, बल्कि सोची-समझी साज़िश थी।
रजनीश और अविनाश ने परिवार को फिर से हॉल में बुलाया।
इस बार उनकी आँखों में शिकारी की पैनी नज़र थी।
रजनीश ने धीमे स्वर में कहा —
“दीनानाथ चौधरी के पास काफ़ी क़र्ज़ था।
लेकिन उनकी मौत से पहले एक बड़ी बीमा पॉलिसी निकाली गई थी…किसी और के नाम पर।”
सब चौंक उठे।
रजनीश ने काग़ज़ मेज़ पर पटका।
“ये पॉलिसी…रीना चौधरी के नाम थी।”
रीना का चेहरा एकदम सफेद पड़ गया।
“न-नहीं! मैं…मैंने कुछ नहीं किया!”
अविनाश गरजा —
“तो ये साइन तुम्हारे नहीं हैं?”
रीना कांपने लगी।
“मैंने…मैंने अरुण के कहने पर किया था।
उसने कहा ये बस औपचारिकता है…”
अरुण खड़ा हो गया।
“झूठ! ये सब झूठ है! पॉलिसी का मुझे कुछ नहीं पता!”
रजनीश मुस्कराया।
“सही है, अरुण।
पॉलिसी का आइडिया तुम्हारा नहीं था…पर तुम इसमें शामिल थे।
क्योंकि कल रात तुम्हारे जूते के निशान कमरे के पास मिले।”
अरुण हकलाने लगा।
“मैं…मैं तो बस…पापा से बात करने गया था…”
रजनीश ने मेज़ पर एक शीशी रखी।
“और ये बोतल?
ये तुम्हारे कमरे से मिली…ज़हर की।”
हॉल में खामोशी छा गई।
अरुण अब काँप रहा था।
उसके होंठों से टूटा हुआ सच निकला।
“हाँ…हाँ मैंने ही…खाना में मिलाया था।
लेकिन…मैं अकेला नहीं था।”
सभी ने हैरानी से उसकी ओर देखा।
अरुण की आवाज़ भर्रा गई।
“ये सब…गंगाराम के बिना मैं कर ही नहीं सकता था।
उसने ही रास्ता दिखाया, ज़हर लाया…और कहा कि पापा कभी हमारा कर्ज़ नहीं चुका पाएँगे।
अगर वो मरेंगे…तो सब कुछ हमारा होगा।”
सभी नज़रें गंगाराम पर टिक गईं।
वह अब तक चुप खड़ा था, लेकिन उसकी आँखों में नफ़रत की आग जल रही थी।
वह गरज कर बोला —
“हाँ! मैंने किया!
ज़िंदगीभर उनकी वफ़ादारी की…और उन्होंने मुझे क्या दिया?
बचपन से उनकी गालियाँ, अपमान, और सिर्फ़ टुकड़े!
जबकि ये हवेली…ये दौलत…मेरे हक़ की थी!
क्योंकि असली बेटा मैं हूँ…उनका नाजायज़ बेटा!”
सब दंग रह गए।
रीना ने मुँह पर हाथ रख लिया, मयंक काँप उठा।
गंगाराम चीख रहा था —
“हाँ! उन्होंने मुझे नौकर बना कर रखा…और अपने असली बेटों को राजकुमार!
मैंने कसम खाई थी…उन्हें ऐसे मरूँगा कि सब सोचते रह जाएँ!”
अविनाश आगे बढ़ा और उसकी कॉलर पकड़ ली।
“लेकिन अब तू जेल में सोचेगा, गंगाराम।”
पुलिसकर्मी उसे पकड़कर ले गए।
अरुण को भी साथ ले जाया गया, क्योंकि उसने गुनाह में साथ दिया था।
शाम ढल चुकी थी।
हवेली के बाहर बेंच पर अविनाश और रजनीश बैठे थे।
हाथ में चाय के कप थे।
अविनाश ने गहरी सांस ली।
“हर बार सोचता हूँ…सब आसान होगा।
लेकिन हर केस सिखा देता है कि इंसानियत से बड़ा कोई रहस्य नहीं।”
रजनीश मुस्कराया।
“इंसानियत?
नहीं अविनाश…लालच।
यही हर कत्ल की जड़ है।”
दोनों चुप हो गए।
सिर्फ़ चाय की भाप हवा में उठ रही थी।
दूर हवेली की दीवारें फिर से खामोश हो चुकी थीं…
लेकिन उनकी खामोशी अब हमेशा के लिए खून का रहस्य सुनाती रहेगी।
✨ समाप्त ✨

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