तहख़ाना – एक माँ और बेटी की डरावनी कहानी

 कुछ दरवाजे ऐसे होते हैं, जिसे खोलने से पहले हजार बार सोचना चाहीए। जांच पड़ताल करनी चाहीए, नहीं तो मुसीबतें खड़ी हो जाती है

"रात में धुंध से घिरा एक पुराना जर्जर घर जिसकी खिड़कियाँ टूटी हुई हैं और दरवाज़े पर जंग लगा ताला है।"

"कभी-कभी सबसे डरावनी कहानियाँ उन्हीं घरों में छुपी होती हैं जहाँ कोई रहना नहीं चाहता।"


इतना गहराई से कि लोग भूल जाएँ।

पर सच कभी मिटता नहीं… वह सरसराहट, खरोंच, फुसफुसाहट बनकर लौटता है। ऐसी ही एक कहानी है माया की, जिसने ऐसे तहखाने का दरवाजा खोल मुसीबत मोल ली और अपनी और अपने बच्ची की जान खतरे में डाल दी


माया, उम्र तीस के आसपास, हाल ही में उसका तलाक सुवा था। अपनी शादी के टुटने से वह काफी दुखी थी , पर उसके पास एक वजह थी ज़िने की —उसकी दस साल की बेटी रिया।

रिया मासूम थी, पर माँ के दर्द को अच्छेसे समझने लगी थी।

माया एक छोटे दफ़्तर में काम करती थी। तनख़्वाह कम थी, ऊपरसे खर्चे...बेटी की पढ़ाई, खाना, कपड़े—अभी उसे मेंटेनेंस नहीं मिला था, सबकी ज़िम्मेदारी अब उस पर थी। बड़ी भागदौड थी। वह जब भी शाम को काम पर से घर लौटती तो चेहरे पर थकान साफ़ झलकती, लेकिन रिया को देखती तो उसके होंठों पर मुस्कान आ जाती।

   कुछ दिन पहले ही माया ने एक पुराना घर किराए पर लिया था, १ बीएचके का घर था। किराया भी कम था और कभी जरूरत हो तो ऊपर का कमरा भी इस्तेमाल करने की इजाजत थी।‌ उस घर मे एक तहखाना भी था जिसका दरवाज़े पर ताला लगा हुआ था। माया को कम रेंट पर एक अच्छा घर मिला था।

माया और रीया वहां रहने आये थे, सब कुछ सामान्य ही था। रात को खाना खाने के बाद दोनों सो गये थे।

पर जैसे ही आधी रात हुई अचानक “खर्र-खर्र… खच-खच” जैसी आवाज़ आने लगी।

जैसे किसी नुकीली चीज़ से लकड़ी पर खरोंच की जा रही हो।

माया उठी, खिड़की से बाहर झाँका। बाहर अंधेरा था, हल्की हवा बह रही थी।

उसने खुद को समझाया—“कोई बिल्ली या चूहा होगा।” और वापस से सो गई। वह रात गुजर गई, अगले दिन रिया को स्कूल छोड़ वह दफ्तर चली गई और श्याम को घर आई। दिन अच्छा गुजरा था। रात को दोनो फिर खाना खाकर सो जाते है

पर आधी रात होते ही फिर वही आवाज सुनाई देने लगी।

अब तो हर रात का यह सिलसिला बन गया था।


एक दिन रिया ने माया से कहा—

“मम्मी, नीचे कोई है क्या? मुझे लगता है कोई चलता है।”

माया हँसकर बोली—“पगली! ये पुराना घर है, लकड़ी चरमराती है। कुछ नहीं है।”

पर उसके दिल में भी हल्की बेचैनी घर करने लगी थी।

जब वह रसोई में होती, तो अक्सर लगता कोई सीढ़ियों पर खड़ा है।

पीछे मुड़कर देखती—खाली जगह।

फिर खुद को डाँटती—“मैं भी पागल हो रही हूँ शायद।”

"अंधेरे में नीचे जाती पुरानी लकड़ी की सीढ़ियाँ, अंत में जंग लगे लोहे का तहख़ाने का दरवाज़ा।"
"हर खरोंच, हर आवाज़, किसी अदृश्य रहस्य की ओर बुलाती थी।"


एक दोपहर ऑफिस की छुट्टी थी। रिया स्कूल में थी।

घर शांत था।

माया ने सोचा, चलो आज नीचे सफाई कर दूँ।

वह सीढ़ियों से उतरी और उसी बंद दरवाज़े तक पहुँची।

दरवाज़ा पुराना और जंग लगा था। उसपर ताला लगा था। उसने वह ताला तोड डाला।

थोड़ा ज़ोर लगाया तो—“चर्र… चर्र…” दरवाज़ा खुल गया।

अंदर अंधेरा था, भारी नमी और घुटन से भरी हवा ।

दीवारें गीली थीं, सीलन से सड़ रही थीं।

माया ने टॉर्च जलाई। धूल, मकड़ी के जाले, टूटी-फूटी चीज़ें।

कुछ ख़ास नहीं था।

लेकिन अजीब यह था कि वहाँ खड़े होते ही उसका सिर भारी होने लगा।

जैसे कोई न दिखने वाला बोझ उस पर डाल दिया गया हो।

गला सूखने लगा।

दिल ने कहा—“बस, ऊपर चलो।”

उसने दरवाज़ा फिर से बंद कर दिया और फौरन सीढ़ियाँ चढ़कर बाहर आ गई ।


उसके बाद से अब सब कुछ बदलने लगा।

रात में खरोंच की आवाज़ और तेज़ हो गई।

रिया कई बार चिल्लाकर उठती—“मम्मी, कोई मुझे बुला रहा है।”

चीज़ें अपने-आप जगह से खिसकने लगीं। एक बार तो उनकी खाने की थाली सुबह तहख़ाने के दरवाज़े के सामने मिली।

माया ने लाख समझाने की कोशिश की कि ये सब उसका वहम है।

पर उसके भीतर अब एक डर बैठ चुका था—

उसने तहख़ाना खोलकर ग़लती कर दी थी।


एक रात जब माया नींद में थी... कि अचानक दरवाज़े की “ठक-ठक” आवाज़ से जाग उठी। रिया के कमरे नहीं थी। माया कमरे से बाहर आई तो रिया बाहर खड़ी थी और उसकी नज़र सीढ़ियों की ओर टिकी थी।

“मम्मी… वहाँ कोई खड़ा है।”

माया ने सीढ़ियों की तरफ देखा तो सीढ़ियाँ खाली थीं।

पर उसने देखा कि दीवार पर हल्की परछाई दौड़ी और गायब हो गई। माया ने उसपर ध्यान नहीं दिया, पर दिया को इस तरहां से रात को उठकर बाहर आने से मना किया‌ और उसे अंदर ले गई।


अगले दिन रिया ने अजीब सी हरकत की।

वह खेलते-खेलते तहख़ाने के दरवाज़े के पास जाकर फुसफुसाई —

“हाँ… मैं आऊँगी।”

माया ने देखा और चौंक गई —

“रिया! किससे बात कर रही थी?”

रिया सहमकर बोली — “कोई नहीं मम्मी… बस खेल रही थी।”

पर उसकी आँखों में कुछ छुपा हुआ था। अब माया को उस घर में काफी अजीब सा लग रहा था। फिर 

उसी रात माया ने एक ख्वाब देखा —

वह तहख़ाने में खड़ी है, और कोई औरत पीछे से धीमे स्वर में कह रही है —

“बेटी को मेरे पास भेज दो।”

एक शाम ऑफिस से लौटकर माया ने देखा, रिया की कॉपी तहख़ाने के पास पड़ी थी।

उस पर उँगलियों के लाल धब्बे थे, जैसे किसी ने खून से छुआ हो।

माया का दिल काँप उठा।

वह दरवाज़े के पास गई। कुंडी अपने आप “खटाक” से हिलने लगी।

और अंदर से वही खरोंचने की आवाज़ आई, अब इतनी जोर से कि पूरा दरवाज़ा काँपने लगा।

अब घर का माहौल दमघोंटू हो गया था।

रिया बार-बार कहती — “मम्मी, मुझे नीचे जाना है।”

रात को घर की सारी बत्तियाँ अपने-आप बंद हो जातीं।

और तहख़ाने से किसी के रोने और गाने जैसी आवाज़ आती।

एक रात तो माया ने देखा, की रिया नींद में उठी और सीढ़ियों से नीचे जा रही थी।

उसकी आँखें बंद थीं, पर कदम सीढ़ी-दर-सीढ़ी तहख़ाने की ओर बढ़ रहे थे।

माया ने पूरी ताक़त से उसे पकड़ा और ऊपर खींच लायी।

पर उसी वक्त तहख़ाने का दरवाज़ा अपने आप खुल गया।

अंदर अंधेरे में किसी की दो सफ़ेद चमकती आँखें दिखीं।

एक माँ अपनी छोटी बेटी को सीने से लगाकर सहमी खड़ी है, पीछे अंधेरे में धुंधली औरत की परछाई दिखाई देती है।"
"प्यार ने उन्हें लड़ने की ताक़त दी, लेकिन तहख़ाने की परछाई अब भी पीछा कर रही थी।"


माया अब समझ चुकी थी कि भागना ही एकमात्र रास्ता है।

पर जैसे ही उसने रिया को उठाया, तहख़ाने से एक औरत की परछाई निकली — फटी हुई साड़ी, लंबा काला बाल, चेहरा अधजला।

उसकी आवाज़ कमरे में गूँजी —

“ये मेरी है… बेटी को ले मत जाओ…”

माया ने काँपते हाथों से दरवाज़ा खोला और रिया को लेकर भागी।

पीछे से उस परछाई ने ज़ोर से चीख मारी — ऐसी चीख कि खिड़कियाँ हिल गईं, शीशे टूट गए।


बरसात हो रही थी। माया और रिया सड़क पर भागते-भागते गिरते-पड़ते आगे बढ़े।

पीछे देखा तो घर की सारी खिड़कियाँ अपने आप बंद हो चुकी थीं।

तहख़ाने का दरवाज़ा खुला रह गया था, और अंदर से घुटी हुई कराहट सुनाई देती रही।

माया ने ठान लिया — अब चाहे कितनी मुश्किल हो, वे उस घर में कभी नहीं लौटेंगी।


बाद में माया को पता चला कि उस घर में सालों पहले एक औरत और उसकी बेटी को तहख़ाने में बंद कर जला दिया गया था।

लोग कहते थे, उनकी आत्माएँ अब भी किसी माँ-बेटी की तलाश में भटक रही हैं… ताकि उनकी अधूरी ज़िं

दगी पूरी हो सके।

और हर रात उस घर से अब भी वही खरोंचने की आवाज़ आती है…

“खर्र… खर्र…”


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें