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| “जहाँ शिक्षा रोशनी थी… वहीं अंधेरा भी अपनी राह देख रहा था।” |
गर्मी अपनी विदाई ले रही थी, लेकिन सातपुडा के अंदरूनी इलाकों में उमस अब भी सांसों से चिपकी रहती थी। वही मौसम था।
आदिवासी गाँव “कुंदरवाही” में नया स्कूल शिक्षक नियुक्त होकर आया था— अनिकेत देशमुख (28)।
अनिकेत पतला, गंभीर, पढ़ा-लिखा और आधुनिक सोच वाला युवक था।
उसने B.Ed, M.A. पूरी लगन से किया था, शहर में पला-बढ़ा था, और सोच बिल्कुल साफ़ थी—
“ज्ञान इंसान को डर से आज़ाद करता है।”
कुंदरवाही एक छोटा आदिवासी गाँव था।
बांस और मिट्टी से बने घर…
बिजली कभी रहती तो कभी नहीं…
रात इतनी काली कि आसमान का तारा भी अपनी रोशनी बचा कर रखे।
वैसे गाँव शिक्षा से दूर था, ज्यादातर लोग अनपढ़ ही थे।
अनिकेत को सरकारी क्वार्टर मिला था —
स्कूल के पास एक पुराना टिन-छत वाला,
पीछे धान के खेत और सामने जंगल, जिसके बारे में गाँव की हरेक जुबान चुप-सी रहती थी।
स्कूल के पहले दिन में सिर्फ 12 बच्चे आए थे।
नंगे पाँव, फटे लेकिन साफ कपड़े, आँखों में सीखने की भूख थी। गाँव के लोग अनिकेत को बड़ी इज़्ज़त देते थे—
शिक्षक थे, बाहरी दुनिया का ज्ञान लाए थे, इसलिए सम्मान था। पर वह एक बात बार बार अनिकेत को समझाते—
“रात में बाहर मत निकलना साहब… और निकलो तो जंगल की ओर तो बिल्कुल मत देखना।”
पर पहली बार यह बात उसे स्कूल के चौकीदार नारायण काका ने कही थी।
दोपहर थी, धूप कड़क थी, बात करते हुए काका की आवाज़ में कंपकंपी थी।
“साहेब, रात अलग है यहाँ की… इसलिए रात को घर से मत निकला करो।”
अनिकेत हँस पड़ा।
“अरे काका, जंगल है शेर-भालू होंगे, और क्या?”
नारायण काका ने लाल आँखों से उसे देखा, चिंता से।
“शेर-भालू दिख जाए तो जान बच सकती है साहेब…पर वो दिख गयी तो… जान भी नहीं बचती, और इंसान इंसान भी नहीं रहता।”
अनिकेत ने बात बदल दी।
गाँव की शाम वैसे जल्दी ढलती थीं।
6 बजते-बजते सड़कों पर कोई नहीं रहता, बस सन्नाटा… और दूर जंगल का साँस लेता अंधेरा।
पहले हफ्ते अनिकेत ने एक चीज़ नोटिस की—
कोई भी महिला रात में कपड़े बाहर नहीं सुखाती
बच्चे सूरज ढलते ही घर भर जाते
कुत्ते भी जंगल वाली दिशा में नहीं जाते और नाही भौंकते
और कभी-कभी… रात 12 के बाद हवा में एक रोती-सी आवाज़ आती थी
जब उसने सरपंच बाबू पटेल से पूछा, तो उससे भी वही जवाब मिला—
“रात में जंगल हमसे बड़ा हो जाता है, साहेब।”
अनिकेत को अब यह सिर्फ अंधविश्वास लगता था।
उसे लगा— अनपढ़ लोग हैं, डर को ही कहानी बना लिया है इन्होने।
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| “कुछ राहें सवालों से शुरू होती हैं… और खामोशी पर खत्म।” |
7वें दिन की, आधी रात।
कुंदरवाही सो चुका था।
अनिकेत की आँख खुली।
पता नहीं क्यों, लेकिन गहरी नींद में भी कुछ बेचैन-सा महसूस हो रहा था।
उसने मोबाइल देखा—
01:13 AM
कहीं से हल्की ठंडी हवा खिड़की से टकरा रही थी।
कोई आवाज़ नहीं।
फिर भी… मन भारी था, जैसे कोई देख रहा हो।
वह बाहर आ गया।
पूरा गाँव सो चुका था।
बिजली गुल थी, केवल आसमान चाँद की हल्की राख मिट्टी सी रोशनी दे रहा था।
उसने पहली बार जंगल की ओर देखा।
घना अंधेरा…
पेड़ों की लंबी परछाइयाँ…
नीरस सन्नाटा…
“लो भई, यही है वो भूतिया जंगल?”
उसने खुद से कहा और मुस्कुराया।
वह मुड़ने ही वाला था कि—
घुर्रर… घुर्रर…
नीचे से, किसी की भारी, गहरी, खिंची हुई साँस जैसी आवाज़ आई।
अनिकेत का शरीर स्थिर था।
नज़र जंगल की ओर।
फिर मौन।
“कोई जानवर होगा…”
उसने अपने तर्क की ढाल फिर से उठा ली।
मुड़ा—और
धड़ाम!
पीठ पर किसी ने जैसे भयंकर ताकत से धक्का दिया।
वह ज़मीन पर गिरा पडा।
मिट्टी मुंह में, कोहनी छिल गई।
पीछे देखा—तो कोई नहीं था।
उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई, पर दिमाग अब भी इंकार कर रहा था।
वह घर के अंदर लौटा, दरवाज़ा बंद किया और सो गया।
लेकिन…
उस रात के बाद उसे नींद कभी वैसी नहीं आई।
अगले दिन स्कूल में वह खड़ा पढ़ा रहा था, तभी उसे खिड़की के बाहर कुछ धुंधला-सा दिखा।
एक सफ़ेद, लंबा, फैली हुई आकृति।
चेहरा नहीं… बस धुंध।
पलक झपकाई—तो सब गायब।
दिमाग बोला—की थकावट है…
पर शरीर बोला— कुछ तो ग़लत है…
उस दिन के बाद अब रोज़ रात को उसे सपने आने लगे थे—
एक औरत, फटी साड़ी पहने
बाल ज़मीन तक
चेहरा धुंधलासा,
आवाज़… नहीं, बस साँस
सपने में वह बस उसे बस देखती रहती है।
और यह देखना, किसी छू लेने से ज़्यादा भारी था।
एक दिन उसने देखा—
उसके क्वार्टर के दरवाज़े के बाहर छोटे-छोटे पैरों के मिट्टी के निशान दिखाई दिए। उसने नारायण काका को दिखाया तो उसकी आँखें फैल गईं।
“साहेब… आपको बुलावा आया है। अब देर मत कीजिए… गाँव के पुजारी को बताना पड़ेगा।”
अनिकेत इस बार कुछ नहीं बोला।
पहली बार, उसके तर्क की दीवार में दरार थी।
गाँव के पुजारी, बिरसा भगत, बूढ़े, चेहरे पर पेंट की लकीरें, गले में काले हड्डियों की माला।
उन्होंने निशान देखे, आँखें बंद की, फिर धीरे से बोले—
“वो तुम्हें देख चुकी है। अब तुम्हारा लौटना मुश्किल है।”
अनिकेत की रीढ़ ठंडी हो गई।
“कौन…?”
बिरसा भगत ने जंगल की दिशा में उंगली उठाई—
“पहली औरत। जंगल की बेटी। जिसको गाँव चुड़ैल कहता है।”
उसके बाद उन्होंने बस इतना कहा:
अब ये घटनाएँ लगातार बढ़ रही थी—
रात में खिड़की पर उंगलियों से थपथपाहट
पानी के लोटे अपने आप गिर जाते
नींद में किसी के बाल उसे छूते
कान में फुसफुसाहट— “आ… जा…”
अनिकेत की हालत खराब होने लगी।
आँखों के नीचे काले घेरे बन गये थे।
बच्चे उसे देख कर डरने लगे थे।
गाँव वालों ने झाड़-फूँक, ताबीज़, धुआँ, हवन— सब किया।
पर चीज़ें कम नहीं… बढ़ती गईं।
उस रात आकाश में चाँद नहीं था।
चारो तरफ बस अँधेरा था।
अनिकेत बिस्तर पर जाग रहा था।
दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था।
कमरा ठंडा… पर पसीना गर्म।
तभी उसे बाहर वही आवाज़ सुनाई दी—
घुर्रर… घुर्रर…
इस बार दरवाज़े के ठीक बाहर से।
वह उठा, जैसे किसी सम्मोहन में खिंच गया हो।
दरवाज़ा खोला।
कुछ नहीं था।
पर उसके पैर अपने आप कदम उठा रहे थे…
जंगल की ओर। वह जंगल की तरफ जा रहा था।
जंगल के किनारे पहुँचकर अनिकेत रुका। सब तरफ ग था घना अंधेरा था, पेड़ शांत खड़े थे और फिर
तभी—
एक सफ़ेद आकृति… हवा में तैरती हुई…
चेहरा धुंध था, तेज़, चौड़ी… अमानवीय।
उसने हाथ उठाया…
धीमे… बहुत धीमे…
और अनिकेत की ओर इशारा किया—
“आ…”
बस उसके बाद जंगल में एक तेज चीख उठी पर जंगल ने वह आवाज़ दबा दी।
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| “जिस रात ने उसे पुकारा… उस रात ने उसे लौटा भी नहीं दिया।” |
अगले दिन जब अनिकेत घर में नहीं दिखा तो गाँव वालों ने खोज बिन शुरू की और दिनभर की खोज बिन के बाद आखिर उसे जंगल के भीतर एक पुरानी महुआ की जड़ के पास पाया गया—
शरीर उल्टा-सीधा
गर्दन एक ओर मुड़ी
आँखें खुली, बिना पलक
होंठ हल्के खुले, जैसे कुछ कहने वाला था
चेहरे पर डर नहीं… अवाक शून्य
जैसे आखरी पल में उसने कुछ ऐसा देखा था,
जो डर से भी बड़ा, शब्दों से भी बाहर था।
न कोई खून…
न चोट…
बस जीवन ग़ायब।
अंत
स्कूल बंद कर दिया गया।
क्वार्टर को ताला लगा दिया गया।
गाँव के लोग आज भी जंगल की ओर देखना टाल देते हैं।
और रात 1:13 बजे…
अगर गाँव जाग रहा हो,
तो लोग कहते हैं—
किसी शिक्षक के कदम अब भी जंगल की ओर जाते सुनाई देते हैं…

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