"आख़िरी सवारी"

"रात में रेलवे स्टेशन से बाहर निकलता हुआ आदमी, पीछे 3-4 नशे में लड़के उसका पीछा करते हुए।"
"रात के सन्नाटे में, डर कदमों की आहट से और गहरा हो गया।"

 कभी-कभी ज़िंदगी ऐसे मोड़ पर ले आती है जहाँ तर्क और अनुभव बेकार हो जाते हैं।

कुछ किस्से ऐसे होते हैं जो न तो सिर्फ़ अफ़वाह होते हैं और न ही पूरी सच्चाई…

ये कहानी भी ऐसी ही एक रात की है, जो अब तक अनकही है।


      रात के लगभग 11:30 बजे थे।

अजय की ट्रेन लेट हो गई थी, वरना वो इस वक़्त तक अपने घर पहुँच चुका होता।

दफ्तर में अचानक एक ज़रूरी काम अटक गया था, और बॉस के गुस्से के डर से उसे रुकना पड़ा।

थका हुआ, भूखा और चिड़चिड़ा-सा अजय प्लेटफ़ॉर्म से बाहर निकला।

तो उसके दिमाग़ में सिर्फ़ यही चल रहा था –

"काश, आज छुट्टी ले लेता… तो ये हालत न होती।"


प्लेटफ़ॉर्म की टिमटिमाती लाइट्स, खामोश बेंचें और घड़ी की टक-टक उसे जैसे और अकेला महसूस करा रही थीं।

जेब में मोबाइल था, पर नेटवर्क गायब।

घर कॉल नहीं कर पा रहा था।

गली में कदम रखते ही लगा जैसे पूरा शहर सो गया हो और सिर्फ़ वो ही जाग रहा हो।

उसके अंदर एक अजीब-सी बेचैनी फैलने लगी।

वह कुछ कदम ही चला था कि पीछे से दबे-कुचले जूतों की आवाज़ आने लगी।

उसने मुड़कर देखा – चार-पाँच लड़के, नशे में धुत, हाथ में बीयर की बोतलें।

उनमें से एक बोला –

“ओ हीरो… कहाँ जाने की जल्दी है?”

अजय का गला सूख गया।

दिल में डर का एक ज्वार उमड़ने लगा।

कदम तेज़ हुए… पर लड़कों की हँसी और नज़दीक आती गई।

"सुनसान सड़क पर खड़ा पुराना रिक्शा, रिक्शावाला यात्री को बैठने का इशारा करता हुआ।"
"जहाँ उम्मीद खत्म हो जाती है, वहीं से अनजाना सफ़र शुरू होता है


अचानक ट्रिंग-ट्रिंग की एक आवाज़ ने माहौल बदल दिया।

एक पुरानी-सी रिक्शा सड़क के मोड़ से निकलकर उसके पास आकर रुकी।

रिक्शावाला बोला –

“बैठिए साहब, देर रात अकेले चलना ठीक नहीं।”

उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जैसे बरसों की थकान और अपनापन हो रहा था।

अजय झिझका, पर बदमाशों की बढ़ती आहट ने उसे मजबूर कर दिया।

वो जल्दी से रिक्शा में बैठ गया।

पीछे खड़े लड़के अचानक जैसे जड़ हो गए… उनकी आँखों में अजीब-सा डर दिखाईं दे रहा था।

लड़कों से दुर जाते ही अजय की जान‌ में जान आई, रिक्शा आगे बढ़ने लगी, चाँदनी धुँधली थी, सड़कें सुनसान, वीरान गलिया सिर्फ़ पहियों की चरमराहट और रिक्शे के झटके।

अजय ने धीरे से पूछा –

“भाई… इतनी रात को आप यहाँ कैसे?”

रिक्शावाला बिना नज़र घुमाए बोला –

“सवारी को घर पहुँचाना… मेरा फ़र्ज़ है साहाब।”

उसकी बातें कम थीं, पर उनमें गहराई थी।

अजय को लगा – वो जैसे सिर्फ़ उसकी परेशानी नहीं, बल्कि उसके डर को भी समझ रहा हो।


करीब आधे घंटे बाद रिक्शा उसके घर के सामने रुकी।

अजय उतरते ही बोला –

“कितना हुआ?”

रिक्शावाला मुस्कुराया –

“साहब… मेरे लिए यही काफी है कि आप सही-सलामत घर पहुँच गए।”

उसकी मुस्कान अजीब थी – दयालु भी और रहस्यमयी भी।

अजय ने दोबारा नज़र डाली, पर उतनी देर में वो रिक्शा अंधेरे में ऐसे गुम हो गई जैसे कभी आई ही न हो।


सुबह अजय ने मोहल्ले के बुज़ुर्गों से रात की वह बात बताई, तो सब बुजुर्ग जैसे चुप हो गए।

फिर उन्हीं में से एक ने कहा –

“बेटा, जीसे तुमने देखा वो गणेश था। पाँच साल पहले उसी रास्ते पर उसकी एक्सीडेंट में मौत हो गयी थी।

लोग कहते हैं, उसकी आत्मा कभी-कभी उस रास्ते पर दिखती है। वह लोगों को बचाती है जो मुसीबत में फँस जाते हैं।”

अजय के हाथ काँप गए।

उसके कानों में अब भी रिक्शे की घंटी गूँज रही थी।

रात की सवारी, जो उसे घर तक लाई थी, क्या वाकई इंसान नहीं थी?

"अगले दिन वही आदमी सोच में डूबा है, पीछे कुछ बुज़ुर्ग दिखाई दे रहे है।"
"उस रात का सच… अब भी उसके मन में एक सवाल बनकर बैठा था।"


उस रात की याद आज भी अजय को नींद में जगा देती है।

वो सोचता है –

"अगर गणेश सचमुच मर चुका था, तो कल रात दिखी सच मे उसकी आत्मा थी।

आख़िरी सवाल

👉 क्या वाकई आत्माएँ अधूरे काम पूरे करने लौटती हैं,

या फिर ये सिर्फ़ इंसान के डर और भरोसे की रचना है?

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