शरद का मौसम था — हवा में ठंडक घुलने लगी थी, और खेतों के ऊपर हल्का-हल्का कोहरा उतरने लगा था।
राघव उस दिन अपने पुराने गाँव जसपुरा से एक छोटी पोटली उठाकर पैदल निकल पड़ा था। घर की हालत ऐसी थी कि तीन दिन का राशन भी मुश्किल से पूरा होता। माँ बूढ़ी थी, और बापू सालों पहले गुज़र चुके थे। काम की तलाश में उसने आस-पास के कई गाँवों के चक्कर काटे थे, पर हर जगह एक ही जवाब मिला — “अब आदमी बहुत हैं, काम कम है।”
सुबह से शाम होने लगी थी, जब वो धनेरी नाम के गाँव पहुँचा। गाँव छोटा था, पर खेत बहुत बड़े-बड़े। गाँव के छोर पर एक ऊँचे बरगद के नीचे लोग बैठे थे — वहीं उसने सुना कि गाँव के ज़मींदार ठाकुर रामसेवक सिंह को खेतों में काम करने वाला आदमी चाहिए।
शाम को वह ठाकुर के घर पहुँचा। ठाकुर लंबा, मोटा आदमी था, सफेद धोती में, हाथ में हुक्का। उसने राघव को ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा —
“कहाँ से आया बे?”
“जसपुरा से... काम की तलाश में हूँ ठाकुरजी,” राघव बोला।
ठाकुर ने कुछ देर सोचा, फिर बोला — “खेतों में काम है। खाना यहीं मिलेगा। पर रहने की जगह नहीं।”
राघव ने सिर झुका लिया। तभी ठाकुर ने हुक्के की नली मुँह से हटाई — “एक पुरानी हवेली है गाँव के बाहर। सालों से कोई नहीं रहता वहाँ... अगर हिम्मत है तो रह ले।”
राघव ने बिना सोचे हामी भर दी।
“ठीक है,” ठाकुर ने कहा, “आज से ही शुरू कर।”
हवेली का पहला दिन
हवेली गाँव से थोड़ी ही दूर थी — लेकिन रास्ता ऐसा कि दिन में भी सुनसान लगे। खेतों के पार, एक पुराने बटवृक्ष के पीछे झाड़ियों से ढकी वो हवेली खड़ी थी। दीवारों पर काई जमी थी, खिड़कियाँ आधी टूटी हुईं, और दरवाज़े पर जंग लगा ताला जो अब भी लटक रहा था, जैसे किसी ज़माने की याद लिए।
राघव ने पहली बार जब वहाँ कदम रखा तो शाम ढल रही थी। हवा ठंडी थी, और अंदर जाते ही एक सड़ी-सी गंध आई — जैसे किसी ने बरसों से दरवाज़ा न खोला हो। उसने अपनी पोटली को कोने में रखकर सफाई शुरू की — फर्श पर धूल, छत से लटकते मकड़ी के जाले, और दीवारों पर पुराने कालिख के निशान।
उस रात पहली बार वह हवेली मे सोया
वो बहोत थका था, इसलिए उसे बडी गहरी नींद आई।
अब वह मन लगाके खेतों पर काम करने लगा। ठाकुर सहाब के यहां खाना भी पेट भर के मिलता था, ठाकुर सहाब भी बड़े अच्छे इंसान थे। राघव का दिन अच्छा गुजरा जाता था।
सुबह काम पर जाना, दिनभर खेतों में पसीना बहाना और रात को लौटकर हवेली में सो जाना — यही दिनचर्या थी। ठाकुर ने खाना भिजवाना तय कर दिया था, और गाँव के लोग भी अब उसे पहचानने लगे थे। इस तरहां से उसके वहा दो हफ्ते गुजर गये थे।
लेकिन... तीसरे हफ़्ते की एक रात कुछ अलग थी।
हवा बिल्कुल थमी हुई थी। कोई झींगुर तक नहीं बोल रहा था।
दिन भर के काम के कारण राघव थक कर बिस्तर पर लेटा था शांत, आँखें बंद थीं, तभी उसे लगा जैसे बाहर से घुँघरू बजने की हल्की सी आवाज़ आई।
पहले तो उसने सोचा, शायद कानों का धोखा हो।
पर आवाज़ दोबारा आई — इस बार ज़्यादा साफ़।
छनन... छनन...
वह उठ बैठा।
दरवाज़ा आधा खुला था। बाहर झाँका — धुंध में कुछ नज़र नहीं आया।
कुछ देर बाद सब फिर शांत हो गया।
वो मुस्कुराया — “कुत्ते या हवा होगी,” और फिर वह सो गया। फिर उसे कुछ याद नहीं। अगले दिन भी उसने खेतों में बहुत काम किया और थक कर रात को बिस्तर पर लेट गया, वह सोने की कोशीश कर रहा था की,
उसे लगा कोई धीमे-धीमे गुनगुना रहा है।
आवाज़ हवेली के पिछवाड़े से आ रही थी।
वह उठा, हाथ में लालटेन ली और बाहर गया — लेकिन जैसे ही पिछवाड़े पहुँचा, हवा का एक झोंका आया और लालटेन बुझ गई।
सन्नाटा... सिर्फ़ सन्नाटा। अब राघव की रातें ऐसे ही गुजर रही थी, हर रात कुछ ना कुछ होता रहता था पर राघव उन चीजों पर ध्यान नहीं देता था। वह एक तो दिनभर काम की वजह से थका होता था, इसलिए वह बस निंद चाहता था।
अमावस की रात
उसके दिन बीत रहे थे।
राघव ने इन सब चीज़ों को नज़रअंदाज़ करना सीख लिया।
पर फिर आई अमावस की रात — जब आसमान काला था, और चारों ओर घना सन्नाटा।
उस रात वह खेत से देर से लौटा था। ठाकुर के घर से खाना खाकर जब हवेली पहुँचा तो लगभग आधी रात हो चुकी थी।
हवेली में अँधेरा पसरा था, बस लालटेन की पीली लौ काँप रही थी।
जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, उसे लगा अंदर कुछ हलचल हुई है — जैसे कोई भागा हो।
वह हँसा, “शायद बिल्ली होगी।”
कपड़े बदले, और खाट पर लेट गया।
आँखें बंद की ही थीं कि किसी ने कान के पास बहुत धीरे कहा —
“सो मत…”
राघव ने झट से आँखें खोलीं — कोई नहीं था।
उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा।
वह करवट बदलकर लेटा, खुद को समझाया कि थकान का वहम है।
पर फिर वही एहसास — जैसे कोई उसके बिस्तर के पास खड़ा है।
धीरे से उसने आँखें खोलीं — धुंधलके में उसे लगा कोई आकृति खड़ी है, लेकिन जब उसने झटके से देखा, वहाँ कुछ नहीं था।
उसने चादर सिर तक खींच ली।
और तभी...
उसे महसूस हुआ, जैसे किसी ने उसके बिस्तर पर आकर बैठा हो।
खाट की लकड़ी चरमरा उठी।
उसकी साँसें तेज़ हो गईं।
वह चिल्लाना चाहता था, पर आवाज़ गले में अटक गई।
अचानक उसे महसूस हुआ कि कोई भारी चीज़ उसकी छाती पर बैठ गई है — इतनी भारी कि वो साँस नहीं ले पा रहा था।
उसकी आँखें खुलीं...
और जो उसने देखा, उसकी रूह काँप गई।
उसके ऊपर कोई बहुत बड़ा, काला साया झुका हुआ था — इतना ऊँचा कि उसका सिर छत के पास था।
वो चेहरा नहीं था... बस एक अंधेरा, जिसमें दो गहरी लाल आँखें चमक रहीं थीं।
वह हिल नहीं पा रहा था।
सिर्फ़ अपनी साँसें सुन रहा था — टूटी, अधूरी, घुटती हुई।
अचानक उस साए ने झुककर कुछ कहा —
“क्यों आया है यहाँ...”
राघव की आँखों से आँसू निकल पड़े।
उसने पूरी ताक़त लगाकर अपने हाथ हिलाए — और तभी वो साया हवा में घुल गया।
वह बिस्तर से गिरा, ज़मीन पर लुढ़क गया, और दरवाज़े की ओर भागा।
बाहर अँधेरा था, लेकिन वो बिना रुके भागता गया — खेतों से, झाड़ियों से, कीचड़ से होता हुआ सीधा ठाकुर के घर तक पहुँचा।
दरवाज़ा पीटते हुए बस इतना कह पाया —
“मालिक... हवेली में कोई है…”
सुबह जब गाँव वाले हवेली देखने गए — तो दरवाज़े पर वही ताला फिर लटक रहा था।
अंदर सब वैसा ही था — सिवाय उस जगह के, जहाँ राघव की खाट थी।
वहाँ लकड़ी पर गहरे निशान थे... जैसे किसी ने वहाँ बैठकर अपने पंजे गाड़ दिए हों।
उस दिन के बाद राघव कभी वहाँ नहीं गया।
लोग कहते हैं, उस रात के बाद वो अक्सर नींद में उठकर दरवाज़े की तरफ़ देखता है...
जैसे अब भी कोई उसे पुकार रहा हो —
“सो मत…”
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