आधी रात – Mystery of Night

 

“रात में शहर की ऊँचाई से दिखता एक आधुनिक अपार्टमेंट बिल्डिंग, जिसमें एक खिड़की से हल्की पीली रोशनी झाँक रही है।”
“हर चमकती खिड़की के पीछे एक कहानी होती है… और कुछ कहानियाँ सुनाई नहीं देतीं।”

बारिश थम चुकी थी, पर शहर अब भी भीग रहा था।

काँच की खिड़की पर पानी की बूंदें टप-टप गिरतीं, और हर बार उनमें से धुंधला-सा प्रतिबिंब झिलमिलाता — दीया का चेहरा।

वो अपने नए फ्लैट की बालकनी में खड़ी थी, पाँचवीं मंज़िल, अँधेरा आसमान और सामने दूर-दूर तक बस रोशनियों का समुंदर।

शहर के उस हिस्से में अब आवाज़ें भी थक चुकी थीं।

रात के साढ़े बारह बज रहे थे।

दीया ने कॉफ़ी का मग हाथ में लिया, और बालकनी से नीचे झांका।

नीचे की पार्किंग लगभग खाली थी — बस एक पुरानी नीली कार, जिसके ऊपर पानी की बूंदें जमकर लकीरें बना रही थीं।

अजीब बात ये थी — कार की अंदरूनी लाइट जल रही थी।

“शायद किसी ने दरवाज़ा ठीक से बंद नहीं किया होगा…” उसने सोचा।

वो कुछ देर देखती रही, फिर कंधे उचका कर अंदर लौट गई।

कमरे में बस एक लैम्प जल रहा था — गर्म पीली रोशनी में दीवारें फीकी लग रहीं थीं।

फर्श अब भी थोड़ा गीला था, शायद सफ़ाईवाले ने पोछा लगाया था।

फर्नीचर नया था, पर हवा में एक पुराना-सा बंदपन था — जैसे कमरे में किसी की सांसें अटकी हों।

वो सोफ़े पर बैठी, अपना फोन उठाया, और नोटिफिकेशन स्क्रॉल करने लगी।

सब कुछ सामान्य — कोई कॉल नहीं, कोई संदेश नहीं।

फिर अचानक फोन की स्क्रीन झिलमिलाई — एक ब्लैंक नोटिफिकेशन।

ना नाम, ना नंबर। बस एक सफ़ेद बॉक्स, और नीचे लिखा था:

“Are you awake?”

उसका दिल एक पल को थम गया।

“शायद network glitch है…” उसने खुद से कहा।

उसने स्क्रीन लॉक की — पर तब तक लैम्प की रोशनी एक पल के लिए झिलमिलाई।

जैसे किसी ने कमरे के कोने से हवा का झोंका फूँका हो।

उसने सिर उठाया —

सामने की दीवार पर एक छाया हिली थी।

न बहुत बड़ी, न बहुत साफ़… बस किसी के गुजरने जैसी।

लेकिन कमरे में और कोई नहीं था।

“Airflow होगा… balcony का पर्दा हिल रहा होगा।” उसने खुद को तसल्ली दी।

पर उसकी गर्दन सिहर उठी।

उसने धीरे से सिर मोड़ा —

बालकनी का दरवाज़ा बंद था। पर्दे भी स्थिर थे।

और तभी, नीचे कहीं से — वही कार का horn एक बार बजा।

धीमा, लेकिन इतना कि रात का सन्नाटा टूट गया।

अब वो खुद से नहीं बोल रही थी, बस सुन रही थी —

हर आवाज़, हर सांस, हर हलचल।

फ्रिज की गुनगुनाहट भी अब किसी फुसफुसाहट जैसी लग रही थी।

कमरे के कोने में लाइट की झिलमिलाहट फिर बढ़ी —

और काँच में, दीया का चेहरा दो बार दिखा।

एक उसका असली चेहरा —

और एक, ज़रा पीछे… जो मुस्कुरा रहा था।


सुबह की धूप हल्की-सी खिड़की पर पड़ी थी,

पर कमरे में अब भी रात की ठंड बाकी थी।

दीया ने आँखें खोलीं, सिर थोड़ा भारी था — जैसे नींद में किसी ने कानों में कुछ कहा हो।

कॉफ़ी बनाते वक्त उसकी नज़र फिर उसी बालकनी पर गई —

नीचे वही नीली कार अब नहीं थी।

वो कुछ पल देखती रही, फिर बुदबुदाई —

“किसी ने उठा ली होगी…”

पर बात वहीं खत्म नहीं हुई।

टेबल पर उसका फोन रखा था —

स्क्रीन पर “1 unread message” लिखा था।

उसने खोला —

संदेश फिर उसी unknown sender का था।

“You looked outside too long.”

दीया के हाथ ठिठक गए।

उसने फोन को एकदम से नीचे रख दिया।

“Spam होगा… या कोई prank…”

पर उसकी आँखें अपने-आप खिड़की की तरफ़ चली गईं।


अगले दिन ऑफ़िस में दिया का दिन सामान्य गुज़रा,

पर लौटते वक्त उसका ध्यान उस सोसाइटी के कॉरिडोर पर गया।

वो सीढ़ियाँ जहाँ लाइट हमेशा झिलमिलाती रहती थी —

आज भी वैसे ही थी, बस एक फ़र्क था।

तीसरी मंज़िल की दीवार पर अब एक पुराना नाम-पट्ट लगा दिखा —

धूल और जाले से ढका, लेकिन अक्षर अब भी पढ़े जा सकते थे।

उस पर लिखा था —

“Flat 503 – Mr. & Mrs. Mehta”

वो ठिठक गई।

उसका खुद का फ्लैट 503 ही था।

उसने सोसाइटी ऑफिस में पूछा,

पर वॉचमैन ने बस इतना कहा,

“मैडम, वहाँ पहले कोई बुज़ुर्ग कपल रहता था… पर वो तो कई साल पहले—”

वो रुक गया।

दीया ने भौंहें चढ़ाईं — “कई साल पहले क्या?”

वो बुदबुदाया, “...वो दोनों अब यहाँ नहीं हैं।”

“मतलब… मरे?”

वो बोला — “नहीं पता मैडम, कोई साफ़ नहीं बताता।”

रात फिर आई।

इस बार हल्की हवा के साथ — और कमरे में वैसी ही गंध फैली, जैसी पुरानी अलमारी में बंद कपड़ों से आती है।

दीया ने बालकनी का दरवाज़ा बंद किया और लैम्प जलाया।

पर जैसे ही वो मुड़ी —

टेबल पर उसका फोन vibrate हुआ।

Screen पर वही sender फिर से।

“Don’t close the balcony. I come from there.”

उसके हाथ काँप गए।

फोन उसके हाथ से गिरा और फर्श पर टकराया।

एक हल्की tap-tap की आवाज़ हुई —

काँच की ओर से।

धीरे-धीरे… जैसे कोई उंगली बाहर से खिड़की पर फेर रहा हो।

उसने सिर उठाया —

अंधेरे में, शीशे के उस पार,

कोई खड़ा था।

ना चेहरा दिखा, ना आँखें।

बस एक लाल दुपट्टे का कोना,

जो हवा में हिल रहा था।

वो पीछे हट गई, काँपते हुए सोफ़े तक पहुँची।

पर फिर सोफ़े के पीछे दीवार पर कुछ नज़र आया —

हल्का-सा निशान, जैसे किसी ने नाखून से कुछ लिखा हो।

दीवार पर लिखा था:

“We never left.”

“हल्की नीली रोशनी में दीया अपने कमरे में बैठी है, पीछे दीवार पर किसी के चलने की धुंधली परछाई दिखाई दे रही है।”
“कभी-कभी डर किसी आवाज़ से नहीं, अपने ही कमरे की खामोशी से होता है।”




उस रात हवा कुछ अजीब थी।

ना ठंडी, ना गर्म — बस भारी। जैसे किसी अदृश्य चीज़ का वज़न हवा में घुल गया हो।

दीया ने घड़ी देखी — 12:43 AM.

लैपटॉप अपने आप बंद हो चुका था। खिड़की के पर्दे हल्के हिल रहे थे, जबकि बाहर हवा का एक झोंका भी नहीं था।

वो उठकर पानी लेने गई।

जैसे ही उसने नल खोला, एक झिलमिलाहट सी दीवार पर पड़ी —

जैसे कोई रोशनी पलभर को चमकी हो।

उसने मुड़कर देखा —

बिलकुल वही शीशा।

बाथरूम के ठीक सामने वाला।

वो जो पहली बार शिफ्ट होने के दिन टूटा हुआ था, फिर अपने आप ठीक हो गया था।

उसका प्रतिबिंब अब भी वही था… बस आँखों में कुछ बदल गया था।

चेहरा उसका ही था —

पर मुस्कान किसी और की थी।

दीया ठिठक गई।

वो धीरे-धीरे पास गई, खुद को गौर से देखने लगी।

और तभी — शीशे के भीतर कुछ हिला।

उसने आँखें झपकाईं।

सब वैसा ही था।

पर अब दिल की धड़कनें तेज़ थीं।

उसने नल बंद किया, लाइट ऑफ की, और सीधे बेडरूम में चली गई।

कमरा शांत था।

सिवाय उस आवाज़ के —

“टक…टक…टक…”

कहीं कुछ टकरा रहा था।

वो फर्श पर झुकी, नीचे झाँका —

कुछ नहीं।

आवाज़ फिर आई —

इस बार अलमारी के अंदर से।

दीया का गला सूख गया।

उसने काँपते हाथों से अलमारी का हैंडल पकड़ा… धीरे-धीरे खोला…

अंदर सिर्फ कपड़े थे।

पर सबसे नीचे — फर्श पर गीले पैरों के निशान थे।

जैसे कोई अभी-अभी वहाँ खड़ा था।

दीया पीछे हटी — साँसें टूटी हुई थीं।

वो भागकर खिड़की की ओर गई, पर्दा हटाया —

नीचे सड़क बिलकुल खाली थी।

बस वो पुराना लैंपपोस्ट,

जिसकी रोशनी हर रात जलती-बुझती थी…

पर आज, वो लगातार जल रही थी —

और उसी रोशनी में, सड़क के किनारे एक साया खड़ा था।

वो अंधेरे में खोया हुआ था, पर शक्ल कुछ जानी-पहचानी लगी।

दीया का दिल थम गया।

वो वही थी —

जो शीशे में मुस्कुरा रही थी।

उसने पीछे मुड़कर देखा —

कमरे में फिर वही सन्नाटा।

फिर शीशे में कुछ हलचल हुई।

वो साया अब वहाँ था — शीशे के अंदर।

धीरे-धीरे हाथ बढ़ाता हुआ…

जैसे दीया के कंधे को छूने वाला हो।

दीया पीछे हटना चाहती थी —

पर पैर जैसे ज़मीन में धँस गए थे।

उसने चीख़ने की कोशिश की, पर आवाज़ नहीं निकली।

सिर्फ एक सिहरन…

जो उसकी रीढ़ से उतरकर दिल तक पहुँच गई।

और फिर —

शीशे की सतह दरकने लगी।

क्रैक... क्रैक...

हर दरार के साथ दीया का प्रतिबिंब बिखरता जा रहा था —

जैसे उसके भीतर का डर काँच से होकर बाहर आ रहा हो।

वो बेहोश होकर गिर पड़ी।

सुबह दरवाज़े पर दस्तक हुई।

“दीया बेटा, सब ठीक है?” — मिसेज़ मेहता की आवाज़ थी।

अंदर सब शांत था।

फर्श पर टूटा हुआ शीशा, और दीया सोफे पर बैठी हुई —

आँखें खोली हुईं, पर उनमें कुछ था… खालीपन।

“क्या हुआ था बेटा?” उन्होंने पूछा।

दीया ने धीरे से कहा —

“कुछ नहीं, बस... अपना चेहरा देखने गई थी।”

और मुस्कुरा दी —

ठीक उसी मुस्कान से, जो कल रात शीशे में थी।


रात के ढाई बजे का वक्त था।

दीया फिर जागी हुई थी।

कमरे की बत्तियाँ बंद थीं, सिर्फ़ सड़क की हल्की नारंगी रोशनी खिड़की से अंदर गिर रही थी —

और वही दीवार पर अजीब-सी आकृति बना रही थी।

वो आकृति... स्थिर नहीं थी।

कभी लंबी होती, कभी सिकुड़ जाती, जैसे कोई चल रहा हो —

पर बाहर सड़क पर कोई नहीं था।

दीया ने एक गहरी साँस ली, तकिये को सीने से लगाकर बैठ गई।

उसने खुद को समझाया, “ये बस रोशनी की परछाई है... कुछ नहीं।”

पर तभी —

कानों में सरसराहट हुई।

जैसे किसी ने बहुत धीरे से फुसफुसाया हो — “दीया…”

वो जम गई।

दिल धड़क उठा।

उसने कमरे की लाइट ऑन की — कुछ नहीं।

सिर्फ़ वही फर्नीचर, वही पर्दे, वही शांत दीवारें।

लेकिन अब कुछ अलग था —

उसके कमरे में एक गंध थी…

गीली मिट्टी और धुएँ की मिली-जुली गंध।

ऐसी गंध जो सिर्फ़ पुराने, सड़े हुए घरों में आती है।

वो धीरे से उठी, खिड़की की तरफ़ गई —

बाहर पूरा मोहल्ला शांत था।

दूर की बिल्डिंगों में बस एक-दो खिड़कियाँ जल रही थीं।

फिर उसने महसूस किया —

वो फुसफुसाहट अब अंदर थी।

“दीया… तुम लौट आई?”

आवाज़ एकदम उसके पीछे से आई।

वो पलटी —

कमरा खाली था।

पर उसके गले में जैसे कोई बर्फ-सी चीज़ अटक गई थी।

उसने डर के मारे मोबाइल उठाया, रिकॉर्डिंग चालू की।

“देखते हैं, आवाज़ आ रही है या नहीं…”

वो खुद से बुदबुदाई।

रिकॉर्ड बटन दबाकर कमरे में घूमने लगी —

हर कोना, हर परछाई, हर जगह —

पर आवाज़ बंद थी।

जब उसने रिकॉर्डिंग सुनी —

तो उसमें तीन सेकंड के लिए किसी के हँसने की आवाज़ थी।

धीमी, पर बेहद मानवीय।

वो पीछे हट गई।

हाथ काँपने लगे।

“ये मैं नहीं थी…”

वो खुद से कहती रही।

अगली रात, उसने तय किया —

“अब और नहीं। कल किसी को बुलाकर ये फ्लैट छोड़ दूँगी।”

लेकिन उस रात नींद नहीं आई।

फिर से वो सरसराहट, वो गंध, वो अहसास कि कोई पास है।

पर अब उसके अंदर कुछ बदल गया था।

वो डर नहीं रही थी…

वो सुन रही थी।

कभी वो आवाज़ दरवाज़े के पास से आती, कभी बाथरूम से, कभी दीवार के पीछे से।

कभी ऐसा लगता जैसे फर्श के नीचे कोई चल रहा हो।

फिर —

अचानक, उसके कमरे के कोने में रखे आईने में कुछ हलचल हुई।

दीया ने देखा —

आईने में उसका प्रतिबिंब खड़ा था…

लेकिन उस प्रतिबिंब की आँखें बंद थीं।

और चेहरा — थोड़ा मुस्कुरा रहा था।

वो हिली नहीं।

बस धीरे से आईने के पास गई।

“तुम कौन हो?” उसने कहा।

आईना शांत था…

फिर उसके भीतर हल्की सी दरार आई।

और उसी दरार से किसी ने बहुत धीरे कहा —

“तुम ही मैं हूँ।”

अगली सुबह, मीता आंटी ने दरवाज़ा खटखटाया —

कोई जवाब नहीं।

अंदर से बस एक हल्की सी आवाज़ आ रही थी —

जैसे कोई खुद से बातें कर रहा हो।

“दीया?”

वो बोलीं —

फिर भी कोई जवाब नहीं।

जब उन्होंने गार्ड की मदद से दरवाज़ा खुलवाया —

कमरा खाली था।

“एक आधुनिक फ्लैट के कमरे में रात का माहौल है, टेबल पर मोबाइल रिकॉर्डर चल रहा है और दीवार की तरफ से आती हल्की परछाई
“कभी-कभी सन्नाटा भी आवाज़ करता है… बस सुनने की हिम्मत चाहिए।”



अगले दिन पूरे फ्लैट में सन्नाटा था।

किराएदारों ने कहा, “वो लड़की शायद चली गई।”

मीता आंटी ने भी मान लिया, “ठीक ही हुआ... बेचैन आत्माएँ ऐसे ही जाती हैं।”

पर किसी ने ध्यान नहीं दिया —

कि रात होते ही उस कमरे की बत्ती अपने आप जल उठती थी।


तीन दिन बाद, उसी बिल्डिंग में नया किराएदार आया —

अनिरुद्ध, एक ग्राफ़िक डिज़ाइनर।

शहर के शोर से दूर, उसे यह सस्ता फ्लैट बिल्कुल सही लगा।

“शांत जगह चाहिए थी... यही ठीक है,” उसने कहा था।

शाम को मीता आंटी ने चाबी दी और बस इतना बोलीं,

“कमरा थोड़ा... अलग है बेटा, रात को रोशनी जलाकर ही सोना।”

अनिरुद्ध हँस पड़ा, “अरे आंटी, मैं तो रातभर लैपटॉप पर रहता हूँ।”

वो हँसी मीता आंटी को कुछ अजीब लगी,

पर उन्होंने कुछ नहीं कहा।

रात के करीब ग्यारह बजे, अनिरुद्ध ने सामान जमाया,

और हेडफ़ोन लगाकर काम करने बैठ गया।

कमरे में वही नारंगी बल्ब की रोशनी थी —

जो खिड़की से टेढ़े साए बना रही थी।

धीरे-धीरे जब उसकी आँखें थकने लगीं,

तो उसने कंप्यूटर बंद किया और पीछे झुका।

कमरा एकदम शांत था...

पर कुछ “सुनाई दे रहा था”।

हल्की सी सरसराहट…

जैसे दीवार के पीछे कोई उँगलियाँ चला रहा हो।

उसने कानों से हेडफ़ोन हटाए —

आवाज़ बंद।

वो फिर काम में लग गया।

दो मिनट बाद — वही आवाज़, इस बार ज़रा पास।

अबकी बार उसने स्पीकर बंद किए।

फिर भी — सरसराहट जारी थी।

धीरे-धीरे वो सरसराहट फुसफुसाहट में बदल गई।

“अनिरुद्ध…”

उसका नाम।

वो चौंक गया।

“कौन है वहाँ?” उसने कहा।

कमरा शांत।

पर उस सन्नाटे में कहीं बहुत गहराई से आवाज़ आई —

“यह मेरा घर है…”


सुबह होते ही उसने तय किया कि ये बस उसकी थकान है।

पर दिनभर जब भी वो उस आईने के सामने गया —

उसे अपना चेहरा थोड़ा अलग दिखता।

कभी आँखें गहरी, कभी मुस्कान टेढ़ी।

उसने खुद से कहा,

“दीवारें, छत, साया… सब दिखता है जब नींद कम होती है।”

पर उसी रात, जब उसने बत्ती बंद की —

आईने में कुछ हिला।

वो उठा, लाइट ऑन की,

और देखा — आईने के अंदर किसी ने उंगलियों से लिखा था:

“आवाज़ें कभी बाहर नहीं जातीं।”

वो वाक्य देखकर उसके बदन में ठंड उतर गई।

वो तुरंत कमरे से बाहर भागा,

पर दरवाज़ा नहीं खुला।

हैंडल घूमता था, पर ताला जैसे जाम हो चुका था।

अचानक मोबाइल की स्क्रीन अपने आप जल उठी।

रिकॉर्डिंग ऐप खुला था —

वही जो दीया ने इस्तेमाल किया था।

उसमें एक नई फ़ाइल थी:

“night_voices_2.amr”

उसने कांपते हाथों से प्ले दबाया।

सिर्फ़ एक आवाज़ सुनाई दी —

धीमी, पर स्पष्ट।

“तुम भी सुन सकते हो, है ना?”

और फिर एक हल्की हँसी —

वही जो दीया ने उस रात सुनी थी।


अगली सुबह दरवाज़ा खुला मिला।

फ्लैट खाली था।

सिर्फ़ आईने पर ताज़ा उंगलियों के निशान थे —

और वही वाक्य, थोड़ा अलग रूप में लिखा था:

“आवाज़ें अब बाहर नहीं जातीं —

वो अंदर बस जाती हैं।”

मीता आंटी दरवाज़े पर खड़ी बहुत देर तक देखती रहीं।

फिर उन्होंने धीरे से दरवाज़ा बंद किया,

और अपने आप से बोलीं —

“शायद अब ये घर किसी और की बारी का इंतज़ार कर रहा है।”


दो हफ्ते बाद, किसी कॉफ़ी शॉप में

एक लड़की बैठी थी — दीया।

कंधे

 पर वही बैग, चेहरा थोड़ा फीका।

लैपटॉप खोला, और फाइल नाम टाइप किया:

“The Silence.wav”

फिर खुद ही मुस्कुराई।

पास बैठी महिला ने पूछा —

“आपकी आवाज़ बहुत प्यारी है, पॉडकास्ट चल रहा है क्या?”

दीया ने उसकी तरफ़ देखा,

चेहरे पर वही टेढ़ी मुस्कान लौट आई।

“हाँ,” उसने कहा,

“आवाज़ें कभी बाहर नहीं जातीं… बस नई जगह ढूँढ लेती हैं।”


THE END


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