गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

अंधेरा बंगला

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"



नागालैंड की घनी पहाड़ियों के बीच एक सुनसान इलाका था — 'चाहोरा घाटी'। यहाँ बरसों से कोई नहीं बसता था। घाटी के एक कोने में खड़ा था एक पुराना, टूटा-फूटा बंगला — "रायगढ़ हाउस"। स्थानीय लोग कहते थे कि ये बंगला एक अमीर अंग्रेज़ परिवार का था, लेकिन एक रात पूरी फैमिली रहस्यमयी ढंग से गायब हो गई। उसके बाद से किसी ने उस बंगले में पाँव तक नहीं रखा।

लोगों की मानें तो रात को बंगले से चीखने की आवाजें आती हैं, कभी-कभी किसी औरत की हँसी, और खिड़कियों से झांकती डरावनी परछाइयाँ। कोई कहता है वहां एक आत्मा रहती है, कोई कहता है खुद बंगला ही ज़िंदा है।

साहिल मल्होत्रा, एक फ्रीलांस फोटोग्राफर, को डर नहीं लगता था। उसे इन लोककथाओं में भी ज्यादा दिलचस्पी थी। उसने इंटरनेट पर बंगले के बारे में पढ़ा और एक रात वहाँ जाकर तस्वीरें लेने की ठानी। उसे उम्मीद थी कि अगर उसे कुछ असामान्य कैद हो गया, तो उसकी फोटोज़ वायरल हो सकती हैं — नाम, शोहरत और पैसा मिल जाएगा।

अगले ही दिन सुबह-सुबह वो अपनी जीप में कैमरा, ट्राइपॉड और कुछ ज़रूरी सामान लेकर निकल पड़ा। शाम ढलते-ढलते वो चाहोरा घाटी पहुंचा। रास्ता खराब था, लेकिन रोमांच उसके मन में डर से कहीं ज्यादा था।

जैसे ही उसने बंगले के गेट पर कदम रखा, हवा एकदम सर्द हो गई। पेड़ों की शाखाएं अजीब तरह से हिल रही थीं, जैसे उसे रोक रही हों। बंगले का लकड़ी का दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर घुप्प अंधेरा था, लेकिन उसकी आंखें धीरे-धीरे एडजस्ट हो गईं। छत से जाले लटक रहे थे, फर्श पर धूल की मोटी परत थी, और दीवारों पर समय की चुप्पी जमा हुई थी।

"परफेक्ट लोकेशन," साहिल ने बड़बड़ाते हुए ट्राइपॉड सेट किया।

कैमरा ऑन करके उसने कुछ तस्वीरें लेनी शुरू कीं। तभी... लेंस में एक हल्की सी हलचल दिखी। ज़ूम करके देखा तो एक सफेद साड़ी में कोई स्त्री खिड़की के पास खड़ी थी। उसका चेहरा साफ नहीं दिख रहा था।

साहिल ने पलटकर खिड़की की तरफ देखा — वहाँ कोई नहीं था।

.......

साहिल का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा था, पर उसने खुद को सँभाल लिया।

"शायद किसी चीज़ की परछाईं रही होगी," उसने खुद को समझाया।

लेकिन जैसे ही उसने कैमरे की स्क्रीन दोबारा देखी, उस औरत की तस्वीर बिल्कुल साफ़ दिख रही थी — वही सफेद साड़ी, खुले लंबे बाल, और झुका हुआ सिर।

"ये कोई छाया नहीं हो सकती," साहिल बड़बड़ाया।

उसने तस्वीर सेव की और बंगले की बाकी जगहों की तरफ बढ़ गया। अब वो पहली मंज़िल पर था। वहां एक लंबा गलियारा था, जिसके दोनों तरफ कमरे थे। दरवाज़े पुराने थे, कुछ आधे खुले, कुछ बंद। लकड़ी की ज़मीन पर उसके कदमों की आवाज़ गूंज रही थी।

पहला कमरा खोला — एक पुराना स्टडी रूम। धूल से भरे किताबों के शेल्फ, एक झूलती कुर्सी, और एक बंद खिड़की। जैसे ही उसने कमरे की तस्वीर लेनी चाही, कैमरा अपने आप बंद हो गया।

"बैटरी फुल थी अभी थोड़ी देर पहले!"

उसने बैटरी निकाली, दोबारा लगाई। कैमरा ऑन हुआ, लेकिन अब स्क्रीन पर अजीब सी लकीरें दिख रही थीं — जैसे किसी रेडियो की इंटरफेरेंस।

फिर अचानक स्क्रीन पर एक चेहरा उभरा — वही औरत! इस बार उसका चेहरा दिखा — उसकी आंखें बिल्कुल सफेद थीं, और होंठों पर एक डरावनी मुस्कान थी।

साहिल चौंककर पीछे हटा। पर जब उसने कैमरा नीचे किया, सामने कोई नहीं था।

वो भागकर नीचे लौटा, लेकिन मुख्य दरवाज़ा बंद हो चुका था — और अजीब बात ये थी कि बाहर की ओर नहीं, अंदर की ओर बंद!

अब वो सच में डर चुका था। खिड़कियों से बाहर देखने की कोशिश की, लेकिन हर खिड़की पर लोहे की जाली थी। मोबाइल नेटवर्क गायब था।

तभी एक कमरे से धीमी-धीमी गुनगुनाने की आवाज़ आई। जैसे कोई लोरी गा रहा हो...

"सो जा राजकुमारी, रात आई..."

उस आवाज़ में एक अजीब खिंचाव था — जैसे उसे पुकार रही हो।साहिल उस कमरे की ओर बढ़ा — और जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, कमरे में चारों तरफ बच्चों की तस्वीरें थीं। दीवार पर एक बड़ा सा पोट्रेट — एक औरत अपनी बच्ची को गोद में लिए हुए।

और पोट्रेट में जो औरत थी... वही थी जिसे साहिल ने कैमरे में देखा था।

.........

साहिल की सांसें तेज़ चल रही थीं। कमरे की दीवारों पर लगी हर तस्वीर उसे घूरती सी लग रही थी।

"ये... ये सब क्या है?" उसके मन में सवाल गूंजने लगे।

उसने पोट्रेट के नीचे लगे छोटे से नेमप्लेट को गौर से पढ़ा —

"एलिज़ा विल्सन व विद हेर डॉटर, मारिया — 1923"

तभी दीवार पर टंगी एक घड़ी, जो अब तक बंद थी, अचानक टिक-टिक करने लगी। और अगले ही पल… घंटी बजी — टन… टन… टन… बारह बार।

रात के ठीक बारह।

कमरे की सारी रोशनी एक झटके में बंद हो गई। साहिल का कैमरा ज़ोर से बीप करने लगा, और फिर एक तस्वीर अपने आप क्लिक हुई।

स्क्रीन पर जो दिखा, उसे देखकर साहिल की रीढ़ में ठंड दौड़ गई।

उस तस्वीर में वो खुद खड़ा था — लेकिन उसके पीछे, बिलकुल नज़दीक, एलिज़ा खड़ी थी — वही सफेद आंखें, वही मुस्कान।

वो पलटा — लेकिन कमरे में कोई नहीं था।

साहिल अब उस बंगले से निकलना चाहता था। पर कोई भी रास्ता खुला नहीं था। खिड़कियों पर जालियाँ, दरवाज़ा अंदर से बंद — वो फँस चुका था।

वो दौड़ते हुए हॉल की तरफ गया। वहाँ एक पुराना पियानो रखा था — और वो अपने आप बजने लगा।

"Twinkle twinkle..."

वो वही लोरी थी, जो थोड़ी देर पहले उसने सुनी थी।

अब उसे यकीन हो गया था — बंगले में कोई है। कोई आत्मा... और शायद वो सिर्फ़ मौजूद नहीं है — बल्कि जाग चुकी है।

एक मेज़ पर उसे एक पुरानी डायरी मिली — एक लेदर कवर्ड, भूरे रंग की।

उसने उसे खोला — पहला पन्ना अंग्रेज़ी में था:

> "29th October, 1923

मेरी बेटी मारिया को आज फिर वो सपना आया — जिसमें कोई काली छाया उसे ले जाने की कोशिश कर रही थी। जब मैंने उससे पूछा, तो उसने कहा, 'मम्मा, वो औरत मुझे बुलाती है… वो मुझे अपने साथ अंधेरे में ले जाना चाहती है।'

मैं डर रही हूँ। बंगले में कुछ है। मैंने अब यह तय किया है कि हम लंदन लौट जाएंगे… लेकिन शायद बहुत देर हो चुकी है।"

साहिल के हाथ काँप रहे थे।

तभी... दीवार पर लगी तस्वीरें अपने आप गिरने लगीं। हवा की एक तेज़ लहर पूरे कमरे में दौड़ गई।

और एक आवाज़ गूंजी — "तू भी उसे नहीं बचा पाएगा..."


---

साहिल ने जैसे-तैसे खुद को संभाला। उसकी आंखों में डर तो था, लेकिन साथ ही एक जिज्ञासा भी जाग चुकी थी — अगर एलिज़ा और उसकी बेटी की आत्माएं यहां फंसी हैं, तो क्यों? और कैसे?

डायरी के अगले पन्नों में लिखी बातें और भी डरावनी थीं:

> "31st October, 1923

आज मारिया गायब हो गई। मैंने पूरी हवेली छान मारी, लेकिन उसका कोई सुराग नहीं मिला। सिर्फ़ उसके कमरे में एक खिलौना पड़ा था — जो अपने आप हिल रहा था। मुझे लगता है, वही औरत उसे ले गई…

मैं आज रात इसे खत्म कर दूँगी…"


साहिल ने उस डायरी को जोर से बंद किया। तभी हॉल की दीवार में एक दरार सी उभर आई — जैसे वो किसी दरवाज़े की तरह खुलने को तैयार हो।

उसने पास जाकर दीवार को छुआ — और वो सच में खिसक गई।

पीछे एक संकरा सा तहखाना था — बिल्कुल अंधेरा।

वो टॉर्च लेकर नीचे उतरा। सीढ़ियाँ नमी और सड़े हुए लकड़ी की बदबू से भरी थीं। नीचे पहुंचते ही एक ठंडक ने उसे घेर लिया।

तहखाने में एक बड़ा दायरा था — और उसके बीच में बना था एक गोल घेरा, जिसमें कुछ अजीब से प्रतीक (symbols) बने हुए थे। बीच में एक पुराना, टूटा हुआ झूला था… और उस पर बैठी थी — एक छोटी बच्ची।

उसकी पीठ साहिल की तरफ थी।

साहिल ने कांपते हुए पूछा, "क… कौन हो तुम?"

बच्ची ने धीरे से गर्दन मोड़ी — और उसकी आंखें कोरे सफेद।

"मैं मारिया हूँ…" उसकी आवाज़ गूंजती हुई आई, "…माँ ने मुझे यहीं छोड़ा था… ताकि वो उस औरत को रोक सके…"

"कौन औरत?" साहिल ने हिम्मत करके पूछा।

"वो जो अंधेरे में रहती है… वो जो बच्चों की आत्मा खाती है… वो बंगले की असली मालकिन है।"

तभी तहखाने में तेज़ हवाएं चलने लगीं। झूले की रस्सी अपने आप हिलने लगी। छत से एक परछाई उतरी — लंबी, काली, डरावनी। उसका चेहरा नहीं था… सिर्फ़ खाली गड्ढों जैसी आंखें।

साहिल ने पीछे हटने की कोशिश की, पर वो परछाई अब हवा की तरह उसके आसपास घूम रही थी।

"तू भी इसे छोड़ कर नहीं जा पाएगा…!" वो आवाज़ गूंजी।

मारिया ने साहिल की तरफ देखा, और बोली — "मुझे इस घेरे से आज़ाद करो। तभी ये सब रुकेगा!"

साहिल ने जेब से कैमरे की फ्लैश लाइट निकाली — और जैसे ही परछाई करीब आई, उसने सीधा उसके चेहरे पर ज़ोरदार फ्लैश मारा।

एक पल के लिए सब कुछ उजाला हो गया।

चिल्लाहट… आग… और फिर… शांति।

जब साहिल को होश आया, वो बंगले के बाहर पड़ा था। सुबह हो चुकी थी। बंगला अब शांत था — जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

उसका कैमरा वहीं पास में पड़ा था। उसने उठाकर देखा — आखिरी तस्वीर वही थी, जहाँ वो तहखाने में खड़ा था, और मारिया मुस्कुरा रही थी।

लेकिन अब… तस्वीर की बैकग्राउंड में बंगला नहीं था। सिर्फ़ एक खाली मैदान था।

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साहिल कभी भी उस बंगले में नहीं गया दोबारा।

लेकिन जब उसने इतिहासकारों से बात की, तो एक बात सामने आई —

"रायगढ़ हाउस" असल में 1923 में एक रहस्यमयी आग में जलकर राख हो गया था। और तब से वहाँ सिर्फ़ एक खाली मैदान था…

तो फिर साहिल कहाँ गया था उस रात?

कोई नहीं जानता।



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समाप्त।





रविवार, 13 अप्रैल 2025

अधूरी नहीं — अध्वितीय: एक बेटी, एक मर्डर मिस्ट्री और अधूरी वसीयत का रहस्य

 



ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँकती नेहा के चेहरे पर बारिश की हल्की बूंदें थीं — बाहर का मौसम वैसा ही था जैसा उसके मन के अंदर।

कुछ अधूरा, कुछ ठहरा हुआ।

मोबाइल की स्क्रीन बार-बार बंद हो रही थी — कोई कॉल नहीं, कोई मैसेज नहीं।

अब कौन करेगा?


सुभाष मेहरा — उसका पापा — अब इस दुनिया में नहीं थे।


जब कॉल आया था कि पापा की तबियत बिगड़ी और फिर... उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया, तब वो कुछ पल के लिए समझ नहीं पाई थी कि क्या महसूस करे।

अंदर एक अजीब सा खालीपन था — जैसे कुछ छिन गया हो, पर शब्दों में बयान करना मुश्किल था।



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जब वो कोठी नंबर 17 पहुँची, तब दरवाज़ा पहले से खुला था।

अंदर रिश्तेदार बैठे थे, कुछ शोक में, कुछ औपचारिकता में।


घर के बीचोंबीच सफेद चादर से ढका एक शांत चेहरा — वही चेहरा जिसने उसे ज़िंदगी की पहली कहानी सुनाई थी, पहले ज़ख़्म पर मरहम लगाया था, पहले झूठ पर डाँटा था...

आज वो हमेशा के लिए चुप था।


नेहा घुटनों के बल बैठ गई।

"पापा... एक बार बोलो ना। सिर्फ एक बार।"


किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा।

"नेहा बेटा, हार्ट अटैक था। सब बहुत जल्दी हो गया। डॉक्टर ने कहा कुछ कर ही नहीं सकते थे।"


नेहा ने कुछ नहीं कहा। बस सिर झुका लिया।



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अंतिम संस्कार के बाद नेहा घर में अकेली रह गई।

रिश्तेदार लौट चुके थे।

घर... खामोश था।

कुछ ज़्यादा ही खामोश।


उसने पापा की पुरानी कुर्सी को देखा — जहाँ वो हर शाम बैठ कर किताब पढ़ते थे।

टेबल पर अभी भी अधूरी चाय थी।

पापा हमेशा कहते थे, "नेहू, चाय को आदर देना चाहिए। अधूरी चाय अपशगुन होती है।"


नेहा ने कप उठाया — कप में अब भी गुनगुनी गंध थी।

पर यह चाय की महक नहीं थी।


उसने सिर झटका, खुद को टोका —

"नेहा, तू अभी बहुत थकी हुई है। मत सोच ज़्यादा। पापा को शांति से जाने दे।"


उसने धीरे से पापा का कमरा खोला।

बिलकुल वैसे ही सजा हुआ था जैसे पापा रखते थे।

सब कुछ अपनी जगह — किताबें, चश्मा, दवाइयाँ... और एक डायरी।


नेहा ने डायरी उठाई, और यूँ ही पन्ने पलटने लगी।

कुछ सामान्य बातें थीं — दिनचर्या, मौसम, दवाओं के नाम, एक कविता...


फिर एक पन्ना आया — थोड़ा सा झुका हुआ अक्षर, जैसे हाथ काँप रहा हो।


"आज मन बेचैन है। लगता है कोई मेरे आसपास है।

पर कौन?"


नेहा की आँखें एक पल को ठहर गईं।

उसने वो पन्ना फिर पढ़ा।

"लगता है कोई मेरे आसपास है..."


क्या ये बस डर था?

या कुछ और?


वो चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई।

पलकों पर आँसू थे, लेकिन दिल में पहली बार एक हल्की सी हलचल...

शक।

.......

अगली सुबह, नेहा नींद से ऐसे जागी जैसे कोई उसे देर रात तक देखता रहा हो।

सपने में पापा की हल्की-सी आवाज़ गूंज रही थी —

"नेहू, किसी पर आँख मूंद कर भरोसा मत करना..."


उसने सिर झटका, “बस सपना था।”


लेकिन जब वो बिस्तर से उठी, तो खिड़की खुली हुई थी —

वही खिड़की जिसे पापा हर रात बंद करते थे।

ख़ास ताले वाला हैंडल अब ढीला लग रहा था।


उसने खुद को समझाया, “शायद बाई ने सफाई में खोल दी हो…”


पर बाई से पूछने पर जवाब मिला —

“मैडम, कल तो मैंने कुछ भी नहीं खोला। पापा ने ही मना किया था खिड़कियाँ छूने से।”


एक हल्का सा सिहरन नेहा के शरीर से गुज़र गई।



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नेहा अब घर का हर कोना फिर से देखने लगी — इस बार किसी याद के लिए नहीं, बल्कि कुछ ग़लत ढूँढने के लिए।


रसोई में वो वही कप मिला जिसमें पापा ने आख़िरी बार चाय पी थी।

उसमें से अब भी एक अजीब सी गंध आ रही थी — दवा जैसी।


उसने कप को पॉलिथीन में रखकर फ्रिज में रखा, सोच लिया कि पुलिस को दिखाएगी — अगर बात वहाँ तक पहुँची।



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पापा की डायरी फिर उसके हाथ में थी।

नेहा ने वो पन्ना दोबारा पढ़ा:

"लगता है कोई मेरे आसपास है..."

और ठीक उसी के नीचे किसी ने हल्के हाथ से कुछ लिखा था —

“K”


बस एक अक्षर।

K

क्या ये करण हो सकता है?


करण — चचेरा भाई।

जो पापा के बेहद क़रीब हुआ करता था, लेकिन पिछले दो साल से किसी बात पर दूर था।

वो अंतिम संस्कार में तो आया था, पर एक शब्द बोले बिना चला गया।



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नेहा ने पापा की अलमारी खोली।

सबकुछ करीने से रखा था — जैसे पापा हमेशा रखते थे।

पर नीचे की दराज़ से एक दस्तावेज़ का कोना झाँक रहा था।


वसीयत।


उसने वो फाइल निकाली —

अंदर के कागज़ पुराने और पीले थे।

पर आखिरी पन्ना नया था, अलग कागज़ पर छपा हुआ।


और उस पर साइन भी अलग थे — जैसे घबराहट में किए गए हों।


नेहा को याद आया — कुछ महीने पहले पापा ने फोन पर कहा था,

“मैं कुछ बदलाव कर रहा हूँ वसीयत में। तू आएगी तो सब दिखाऊँगा।”


लेकिन उन्होंने कभी दिखाया नहीं।


उस आख़िरी पन्ने पर नाम था — नेहा मेहरा

वह मुख्य उत्तराधिकारी थी।


पर जब करण का नाम फाइल में कहीं नहीं था, तब...


क्या पापा ने ये वसीयत करण से छुपाई थी?

या करण को इसका पता चल गया था?



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अचानक, अलमारी की पीछे की दीवार से एक कागज़ का टुकड़ा गिरा।

जला हुआ था, आधा राख बन चुका।


जो थोड़ा-सा बचा था, उसमें कुछ लिखा था:


"...अगर मुझे कुछ हो जाए तो समझ जाना कि..."


बाकी हिस्सा जल चुका था।


नेहा का गला सूख गया।

"पापा को शक था। वो कुछ कह रहे थे। किसी से डर रहे थे।"


उसने मोबाइल उठाया, कॉल लिस्ट देखी।


रात 1:23 AM — एक अननोन नंबर को कॉल किया गया था।

उस कॉल का कोई रिकॉर्ड अब फोन में नहीं था —

लेकिन फोन की बैकअप ऐप में वो एंट्री दिख रही थी।



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नेहा अब थक गई थी।

लेकिन अब वो सिर्फ दुखी बेटी नहीं रही थी —

अब वो एक सवाल ढूँढने वाली औरत बन गई थी।


"क्या पापा की मौत वाकई 'मौत' थी? या किसी ने उनकी कहानी अधूरी लिख दी?"


......



नेहा ने अब हर चीज़ को संदेह की नज़र से देखना शुरू कर दिया था।

पापा के पुराने कमरे की हर दराज़, हर तस्वीर, हर दस्तावेज़ — सब अब सबूत बन चुके थे।



---


उसने सबसे पहले करण को कॉल किया।


करण: “हाँ नेहा, बोल... सब ठीक है?”

नेहा (थोड़ा ठंडी आवाज़ में): “सब ठीक... बस कुछ बातें समझ नहीं आ रहीं।”

करण (हँसकर): “क्या बातें?”

नेहा: “पापा की वसीयत मिली… कुछ अजीब है उसमें।”

करण (एक पल की चुप्पी): “मैं बिज़ी हूँ नेहा, फिर बात करता हूँ।” — कॉल कट।


नेहा का शक और गहराया।

वो चुप क्यों हो गया?



---


उसने शम्भू को कॉल करने की कोशिश की — घर का पुराना नौकर।

मगर उसका नंबर बंद था।


पड़ोस की रेखा आंटी से पूछा, “शम्भू भैया आए थे अंतिम संस्कार में?”


रेखा आंटी ने सिर हिलाया, “नहीं बेटा। मैंने तो दो दिन पहले ही देखा था उन्हें, पापा के साथ बाहर जा रहे थे। फिर लौटे नहीं।”


ग़ायब? ऐसे कैसे?


नेहा को पापा की अलमारी में शम्भू का पेंशन फ़ॉर्म मिला — जो अधूरा था।

आख़िरी बार भरने की तारीख़ थी — उसी दिन, जिस दिन पापा की मौत हुई।


क्या शम्भू कुछ जानता था?



---


शाम को नेहा घर के CCTV चेक करने गई।

USB पोर्ट पर कैमरे की रिकॉर्डिंग स्टिक तो लगी थी...

पर वीडियो खाली था।


सिर्फ वही दिन मिसिंग था जब पापा मरे थे।


अब नेहा को यक़ीन हो चला था —

पापा की मौत एक सोची-समझी साजिश थी।



---


रात को, जब वो बालकनी में बैठी थी, अचानक गली में एक परछाईं भागती नज़र आई।


नेहा नीचे भागी, बाहर पहुँची —

कोई नहीं था।


पर फाटक के पास एक कागज़ गिरा था, उस पर उँगलियों के निशान थे —

और लिखा था:


"वो जो सबसे अपना लगता है, वही सबसे पहले धोखा देता है।"



---


अब बहुत हो चुका था।

नेहा ने अगली सुबह फ़ोन उठाया —


“हैलो... क्या मैं डीसीपी आरव राठौर से बात कर सकती हूँ? मुझे एक हत्या की रिपोर्ट करनी है। मेरे पिता की हत्या।”


......



"डीसीपी आरव राठौर बोल रहा हूँ। केस डिटेल्स भेजिए,"

फोन की दूसरी तरफ़ से सख़्त, थकी हुई लेकिन बेहद प्रोफेशनल आवाज़ आई।


नेहा ने सारी डिटेल्स, दस्तावेज़ों की तस्वीरें, डायरी की फोटो, वसीयत की कॉपी, और वो जलता हुआ कागज़ सब भेज दिए।



---


अगले दिन सुबह 9 बजे, कोठी नंबर 17 के बाहर एक सफेद SUV आकर रुकी।

उतरा एक लंबा, सीधा-सपाट आदमी — ग्रे शर्ट, पैनी निगाहें और आंखों में नींद की परछाइयाँ।


डीसीपी आरव राठौर।


“आपने कहा कि ये मर्डर है, पर सब कह रहे हैं हार्ट अटैक,” उन्होंने पहली बात में ही कह दिया।


नेहा ने कोई बहाना नहीं बनाया।

सीधे फाइल और डायरी सामने रख दी।


आरव ने एक-एक चीज़ ध्यान से देखी।

जब उसने चाय के कप की बात बताई, तो वो पहली बार थोड़ा रुका।


“आपने इसे संभाल कर रखा?”

“हाँ।”

“अच्छा किया। हम फॉरेंसिक को भेजते हैं।”



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आरव ने घर का मुआयना शुरू किया।

खिड़की का टूटा लॉक, खाली CCTV रिकॉर्डिंग, वसीयत के दो अलग-अलग हिस्से —

एक आम आदमी को ये सब सामान्य लगता, लेकिन आरव को नहीं।


“वसीयत पर ये साइन... कांपती हुई लाइनें।

किसी ने दबाव में साइन करवाए हों तो ऐसा ही होता है,” वो बड़बड़ाया।



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दोपहर तक पुलिस टीम शम्भू की तलाश में लग चुकी थी।

और उसी शाम नेहा के पास एक कॉल आया —


“शम्भू एक सस्ते लॉज में छिपा मिला है।

कहता है जान का डर है।”



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जब आरव ने शम्भू से पूछताछ शुरू की, उसका डर साफ़ था।


“साब, मैं कुछ नहीं कर सकता था...

मैंने देखा था... उस रात कोई आया था... पीछे के दरवाज़े से।

साहब चिल्ला रहे थे... पर आवाज़ दब गई... और फिर...”


“कौन आया था?” आरव ने सीधा पूछा।


शम्भू कांपते हुए बोला —

“...करण भैया।”



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अब शक नहीं रहा।

करण अब एक संदिग्ध नहीं, एक क्लू बन चुका था।



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आरव ने जाते-जाते नेहा से कहा —

“मैं केस में दिल नहीं लगाता... पर तुम्हारे पास जो हिम्मत है ना — वो दिखा रही है कि कुछ गड़बड़ है।

अब ये केस ‘सामान्य मौत’ नहीं, मौत की साजिश है।”



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शाम ढल रही थी।

घर की दीवारें अब भी पापा की यादों से भरी थीं, लेकिन नेहा अब सिर्फ एक बेटी नहीं, एक खोजकर्ता बन चुकी थी।



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फॉरेंसिक रिपोर्ट आई।


आरव ने खुद नेहा को फोन किया —

"चाय के कप में traces of digoxin पाए गए हैं — एक हृदयगति को धीमा करने वाली दवा, लेकिन अधिक मात्रा में जानलेवा।"


नेहा का दिल कांप गया।

"मतलब...?"

"मतलब तुम्हारे पापा की चाय में ज़हर था। और ये प्लान किया गया था।"


अब संदेह पूरी तरह हत्या में बदल चुका था।



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डीसीपी आरव ने करण को समन भेजा।

करण बड़ी सहजता से पुलिस स्टेशन आया —

सूट-बूट में, आत्मविश्वास से लबरेज़।


"आप मुझे क्यों बुला रहे हैं? मैं कोई अपराधी नहीं," उसने कहा।


"तो क्या आप हमें बता सकते हैं आप उस रात कहां थे जब सुभाष जी की मौत हुई?"

"घर पर था। अकेला।"


"कोई गवाह?"

"नहीं।"


आरव ने डायरी के पन्ने सामने रखे —

वो पन्ना जिसमें ‘K’ लिखा था।

करण की आँखों में एक झटका सा दिखा, पर चेहरा शांत रहा।


"आपका नाम K से शुरू होता है... संयोग?"


करण हँसा, "हो सकता है।"



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तभी एक और ट्विस्ट सामने आया।


नेहा ने पापा का पुराना ईमेल अकाउंट खोला।

पासवर्ड वही था जो पापा की पहली किताब का नाम था —

“छाया के पीछे”


इनबॉक्स में एक अधूरी मेल Drafts में थी —

किसी वकील को भेजी जानी थी।


Subject: वसीयत में बदलाव की सूचना

Message: “मैं अपनी बेटी को सब कुछ सौंपना चाहता हूँ। करण को पहले जितना दिया, उतना ही काफी है। हाल की घटनाओं ने मेरा भरोसा तोड़ा है…”


नेहा की आंखों से आंसू टपक पड़े।


पापा ने बदलाव किया था — और करण को इसका पता चल चुका था।



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आरव ने नेहा से कहा —

“करण को गिरफ़्तार करने के लिए हमारे पास अब सीधा सबूत चाहिए।

हमारे पास ज़हर की रिपोर्ट है, पर उसे चाय में डालते किसने देखा?”


नेहा एक पल को सोच में पड़ गई।


“CCTV तो खाली था... लेकिन क्या कहीं और कोई कैमरा काम कर रहा था?”



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नेहा ने पड़ोसी रेखा आंटी से पूछा —

“आंटी, आपकी बालकनी से हमारे घर का पिछला दरवाज़ा दिखता है ना?”


रेखा आंटी मुस्कुराईं —

“हाँ बेटा, और मैंने नया कैमरा लगवाया है — कामवाली चोरी करती थी।”


नेहा की साँसें थम गईं —

“उस दिन की रिकॉर्डिंग है?”



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रिकॉर्डिंग जब आरव ने देखी —

वीडियो में साफ दिखा: करण, रात 11:40 बजे, पिछले दरवाज़े से अंदर जा रहा है।


सबसे बड़ा सुराग मिल चुका था।



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अगले दिन करण को हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।

उसके चेहरे पर अब भी मुस्कुराहट थी, लेकिन वो अब एक हारा हुआ अपराधी था।


“नेहा,” उसने कहा, “मुझे लगा तुझे कुछ पता नहीं चलेगा...”


नेहा ने उसकी आँखों में देखा और कहा —

“तुमने मेरे पापा की ज़िंदगी ली — अब मैं तुम्हारा हर झूठ छीन लूंगी।”



.....


करण की गिरफ्तारी के बाद सब शांत था — बाहर भी, और नेहा के भीतर भी।

पर एक अधूरापन अब भी बाकी था।


पापा की डायरी, चाय का कप, जलता हुआ काग़ज़ —

इन सब ने सच्चाई को बाहर निकाला, लेकिन एक चीज़ अब भी रह गई थी:


नेहा का आखिरी अलविदा।



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तीन दिन बाद, नेहा घर की सफाई कर रही थी।

वो उसी कोने में पहुँची जहाँ पापा अक्सर बैठकर किताबें पढ़ा करते थे।


वहीं, बुकशेल्फ़ के पीछे एक पुरानी किताब मिली —

"छाया के पीछे" — पापा की पहली किताब।


नेहा मुस्कुराई, “तुम हमेशा यहीं हो न पापा...”


किताब के अंदर एक लिफाफा दबा हुआ था।


उस पर लिखा था —

"नेहू के लिए। सिर्फ तब खोलना जब लगे कि मैं चला गया हूँ..."



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हाथ कांपते हुए उसने वो लिफाफा खोला।

अंदर एक चिट्ठी थी — पापा की लिखाई में।



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प्रिय नेहू,

जब तू ये पढ़ेगी, शायद मैं न रहूँ।

मुझे नहीं पता मौत कैसे आएगी — अचानक या किसी चेहरे से जिसे मैं पहचानता हूँ।


पर अगर तुझे ये खत मिल गया है, तो समझ लेना, मैंने सब कुछ तुझ पर छोड़ दिया है।


मैं जानता हूँ, दुनिया सीधी नहीं होती — और रिश्ते तो और भी उलझे होते हैं।

करण कभी मेरा बेटा जैसा था, लेकिन जब लालच रिश्तों को निगलता है, तब इंसान की पहचान छिन जाती है।


मुझे तुझ पर पूरा यकीन है, कि तू सच्चाई को पहचान लेगी।

मैंने तेरी परवरिश सिर्फ एक बेटी की तरह नहीं, एक इंसान की तरह की है — जो डरती नहीं, लड़ती है।


तू मेरी सबसे बड़ी कहानी है, नेहू।

बाक़ी सब अधूरी थीं।


– पापा



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नेहा बहुत देर तक चुप रही।

आँखों से आंसू बहते रहे, लेकिन अब वो आंसू दुःख के नहीं थे —

सच्चाई की जीत के थे।



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पुलिस ने केस को “पूर्व नियोजित हत्या” करार दिया।

करण को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई।


शम्भू को सरकारी सुरक्षा और गवाह संरक्षण मिला।

आरव ने आखिरी मुलाकात में कहा —


"बहुत कम लोग होते हैं जो सच्चाई को अपनी जिद बना लेते हैं।

तुमने साबित किया — एक बेटी सिर्फ दुख में नहीं रोती, वो न्याय के लिए लड़ी भी जाती है।"



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कुछ महीने बाद।


नेहा पापा की अधूरी किताब पूरी कर रही थी —

नाम रखा:


"अधूरी नहीं — अध्वितीय"



THE END




गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

AUM-9: रहस्य का द्वार

 


नागपुर की सुबह में हल्की सी ठंड थी, लेकिन सावंत बिल्डिंग के बाहर पुलिस की गाड़ियों की लाइन और मीडिया की हलचल माहौल को और गरमा रही थी।


भीड़ से हटकर एक लंबी काली बाइक धीमे से पास आकर रुकी। चमड़े की जैकेट, आँखों पर काले चश्मे, और चेहरे पर अजीब सी शांति लिए एक शख्स बाइक से उतरा।


वो सीधे गेट के पास गया, जहां पुलिस कॉन्स्टेबल उसे रोकने ही वाला था कि ACP महाजन की नजर उस पर पड़ी।


“विक्रम?” महाजन ने चौंकते हुए कहा।


विक्रम ने चश्मा उतारा और हल्की सी मुस्कान के साथ बोला—

"कहा था न... जब तुम्हारे सारे तरीके फेल हो जाएं, तो मुझे याद करना।"


ACP ने सिर हिलाया—“तू वही पुराना है… वक्त से पहले और सवाल से आगे।”


विक्रम सावंत ग्रुप के ऑफिस में दाखिल हुआ। हर निगाह उसकी तरफ थी, पर वो सिर्फ एक कोने में रखे उस पुराने दीवार घड़ी को देख रहा था—उसकी सूई एक मिनट पीछे थी।


“यहाँ समय भी झूठ बोल रहा है…” विक्रम ने बुदबुदाया।


यही था उसका अंदाज़—छोटे इशारे, बड़ी बातें।


और इस बार मामला था सौ करोड़ का… और उससे भी ज़्यादा—एक ऐसे रहस्य का, जिसकी परतें अभी खुलनी बाकी थीं।



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विक्रम को केस में उतरे सिर्फ 15 मिनट ही हुए थे, लेकिन उसकी नज़रें पहले ही वो देख चुकी थीं, जो पुलिस वालों ने तीन दिन में नहीं देखा।


वो सावंत के केबिन में गया। दीवारों पर कीमती पेंटिंग्स, मेज पर इम्पोर्टेड सिगार का डब्बा, और पीछे एक बड़ा लॉकर—जो चुराई गई ‘चीज़’ का गवाह था।


पर विक्रम का ध्यान लॉकर पर नहीं गया।


उसकी नजर गई मेज पर रखे एक खाली कप पर… और फिर लॉकर के पास पड़े एक छोटे से टूटे हुए धागे पर।


वो झुका, धागा उठाया, और मुस्कुरा कर बोला—

"कभी-कभी चोरों से ज़्यादा सुराग बोलते हैं।"


ACP महाजन ने पूछा, "तू कहना क्या चाहता है?"


विक्रम सीधा रामकिशन सावंत की ओर मुड़ा, जो पीछे खड़ा था, चेहरे पर तनाव, पर आंखों में छुपी बेचैनी।


“रामकिशन जी,” विक्रम बोला, “आपको जितना डर चुराई गई चीज़ के खोने का है, उससे कहीं ज्यादा डर है उसके सामने आने का… क्यों?”


रामकिशन ने कुछ पल चुप रहकर कहा—

"क्योंकि वो चीज़ सिर्फ महंगी नहीं थी… वो सब कुछ खत्म कर सकती है।"


एक सन्नाटा छा गया कमरे में।


विक्रम ने एक धीमी आवाज़ में कहा—

"अब समझ में आया... ये सिर्फ चोरी नहीं... ब्लैकमेल है। और जिस दिन वो चीज़ सामने आई, किसी की दुनिया उजड़ जाएगी।"


अब विक्रम को तलाश थी उस चीज़ की, लेकिन उससे पहले वो ढूंढना चाहता था—वो पहला इंसान जो उस रात ऑफिस में दाखिल हुआ।


और उसकी खोज शुरू होती है… एक अधूरी सीसीटीवी फुटेज, एक नकली पास, और एक नाम जो रिकॉर्ड में था ही नहीं…



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विक्रम ने सीसीटीवी फुटेज को फ्रेम दर फ्रेम देखा। रात 2:16 पर कैमरे की एक झलक में, किसी की परछाई लॉकर के पास से गुजरती है। चेहरा नहीं दिख रहा… लेकिन चाल में कुछ खास था—संयमित, शांत… जैसे कोई डर नहीं था।


“ये प्रोफेशनल है,” विक्रम ने खुद से कहा।


फुटेज के साथ छेड़छाड़ हुई थी—लेकिन टेक्नोलॉजी का एक पुराना दोस्त, तिवारी, जिसने फुटेज से निकाल लिया एक फ्रेम—जिसमें दिख रही थी एक अंगुली पर नीले रंग की अंगूठी।


विक्रम ने उसे गौर से देखा।

"नीली अंगूठी... औरत है। और ये कोई आम औरत नहीं।"



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अगले दिन शाम, विक्रम पहुँचा एक पुरानी आर्ट गैलरी में—जहां शहर की रईस और राज़दार दुनिया मिलती थी। और वहीं, एक कोने में खड़ी थी वो।


ऊँची एड़ी, हल्का केसरिया दुपट्टा, और वही नीली अंगूठी।


विक्रम सीधा उसके पास गया।

“तुम्हारी अंगूठी बड़ी खास है।”


महिला मुस्कुराई—

“तुम्हारी नजर और भी खास है।”


नाम: आयशा नाइक।

पहचान: आर्ट कलेक्टर।

सच: पता नहीं।


विक्रम ने सीधा सवाल किया, “सावंत के ऑफिस में तुम क्या कर रही थीं उस रात?”


आयशा ने जवाब नहीं दिया। वो बस इतना बोली—

“जिस चीज़ की तुम तलाश कर रहे हो, विक्रम… वो अगर मिल भी गई, तो तुम्हें चैन नहीं मिलेगा।”


और वो चली गई।



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आयशा की कार दूर निकल गई, और वहीं एक बाइक पर बैठा नकाबपोश उसे फॉलो करने लगा…


विक्रम की आंखों ने सब देखा।


"अब असली खेल शुरू हुआ है…" उसने बुदबुदाते हुए कहा।


विक्रम ने आयशा का पीछा नहीं किया… क्योंकि उसे पता था—आयशा खुद उसे वहां ले जाएगी, जहां वो जाना चाहता है।


लेकिन उसने उस नकाबपोश को नहीं छोड़ा।


पुरानी गलियों से होती हुई कार एक सुनसान बंगले के पास जाकर रुकी। आयशा अंदर गई… और नकाबपोश एक मिनट बाद दीवार फांद कर पीछे से दाखिल हो गया।


लेकिन वहां पहले से कोई मौजूद था।


विक्रम।


“तुम फॉलो कर रहे हो, और मैं तुम्हें।”


नकाबपोश चौंक गया।


“अब बताओ,” विक्रम ने रिवॉल्वर निकालते हुए कहा, “तुम कौन हो और आयशा के पीछे क्यों हो?”


नकाबपोश ने नकाब उतारा।


नाम: कबीर

पहचान: "पूर्व खुफिया अधिकारी"

मकसद: “वो चीज़ सिर्फ चोरी नहीं हुई… उसे ढूंढने के लिए चुराया गया है।”


विक्रम ने आँखें तरेरीं—“मतलब?”


कबीर ने एक कागज़ निकाला—एक पुरानी, सड़ी हुई डायरी का पन्ना।


उस पर लिखा था—


"संरक्षित वस्तु - कोड: AUM-9

स्थान: सावंत भवन - ब्लॉक Z

संलग्न: ब्रह्म सर्कल"


विक्रम की आँखों में चमक आ गई।


AUM-9… यही वो 'चीज़' थी।


और 'ब्रह्म सर्कल'… एक गुप्त संगठन, जो भारत की प्राचीन संपदाओं की रखवाली करता था। किवदंती थी कि ये संगठन हजारों साल पुराना है… और इसकी सदस्यता सिर्फ चुने हुए लोगों को दी जाती थी।


रामकिशन, आयशा और अब कबीर—तीनों का इससे कोई न कोई कनेक्शन था।



---


आयशा बँगले की खिड़की से विक्रम और कबीर की बातचीत सुन रही थी… और धीरे से अपने फोन पर एक मैसेज टाइप कर रही थी—


“He knows about AUM-9. We need to activate Plan K.”



....


विक्रम के हाथ में डायरी का पन्ना था। उस पर लिखे कोड AUM-9 और शब्द ब्लॉक Z ने उसे सावंत ग्रुप की पुरानी फैक्ट्री तक पहुँचा दिया—एक सुनसान जगह, जिसे 15 साल पहले बंद कर दिया गया था।


चारों तरफ सन्नाटा। धूल जमी ज़मीन पर सिर्फ एक ताज़ा ट्रैक—कार के टायरों के निशान।


विक्रम मुस्कुराया, “कोई मुझसे पहले पहुँच चुका है…”


वो अंदर घुसा। पुरानी मशीनें, लोहे की सीढ़ियाँ, टूटे शीशे। लेकिन एक कोना साफ था… जैसे किसी ने हाल ही में इस्तेमाल किया हो।


दीवार में एक चौंकाने वाली चीज़ मिली—एक पत्थर का गोल चक्र, जिस पर अंकित था ‘ॐ’ का प्रतीक।

वो "ब्रह्म सर्कल" का चिन्ह था।


और नीचे खुदा था:


“अग्नि, जल, वायु – तीनों जब एक हो, द्वार खुलेगा।”


विक्रम ने आसपास देखा—तीन लीवर थे, जिनके पास चिन्ह बने थे: आग, पानी, हवा।


विक्रम को याद आया—ये एक टेस्ट है… एक गार्डियन लॉजिक।


उसने सही क्रम में लीवर खींचे—पहले हवा, फिर पानी, और अंत में अग्नि।


गूंजता हुआ शोर… और ज़मीन हिल गई।


एक सीढ़ी नीचे खुली।


विक्रम साँस रोक कर उतरा… और सामने था एक गुप्त बंकर—जहाँ बक्सों में बंद थे प्राचीन ग्रंथ, विचित्र कलाकृतियाँ, और बीच में एक कांच की केसिंग—जिसमें रखा था एक नीला क्रिस्टल जैसा पत्थर।


विक्रम के पास आते ही, केसिंग पर लाइट जल उठी… और पीछे से एक आवाज़ आई—


"AUM-9 को हाथ मत लगाना, वरना तुम वही देखोगे जो इंसानों को कभी नहीं देखना चाहिए…"


विक्रम ने मुड़कर देखा—आयशा, हाथ में गन, और चेहरे पर वो सन्नाटा जो सिर्फ उन्हें आता है, जो सच जानते हैं।



--



आयशा की आंखों में डर था, लेकिन उसका हाथ कांप नहीं रहा था।


“विक्रम, इस क्रिस्टल को छूना भी खतरे से खाली नहीं। ये सिर्फ एक चीज़ नहीं… ये ज्ञान का स्रोत है—जो सदियों से छिपा हुआ है।”


विक्रम ने शांत लहजे में कहा,

"सच से डर लगता है तो झूठ के पीछे क्यों भाग रही हो?"


आयशा चुप रही। बंकर की दीवारों पर बने चित्रों की ओर इशारा किया।


चित्रों में दिखाए गए थे—प्राचीन ऋषि, तंत्र-मंत्र, और एक नीली रोशनी जो दिमाग और आत्मा को एक साथ जोड़ने की शक्ति रखती थी।


“AUM-9 एक साधारण क्रिस्टल नहीं, ये एक प्राचीन मानसिक ऊर्जा एम्प्लीफायर है,” आयशा बोली।

“जिसके पास ये हो, वो दूसरों के विचार पढ़ सकता है, यादें देख सकता है, और उन्हें बदल भी सकता है।”


विक्रम अवाक रह गया।


“रामकिशन इस क्रिस्टल को बेचना चाहता था… वो नहीं जानता था कि ये किस हद तक खतरनाक है। ब्रह्म सर्कल ने उसे सिर्फ सुरक्षा के लिए सौंपा था।”


तभी बंकर के दरवाज़े ज़ोर से धड़धड़ाए।


कबीर आ गया था। पर वो अकेला नहीं था।


पीछे खड़े थे कुछ नकाबपोश लोग… "द वॉयस" के एजेंट्स—एक अंडरग्राउंड नेटवर्क जो दुनियाभर में गुप्त तकनीकें और मानसिक हथियार खरीदता-बेचता है।


विक्रम फौरन AUM-9 की केसिंग की ओर भागा, लेकिन आयशा ने गन उसकी ओर मोड़ दी।


"तुम ये नहीं समझते विक्रम… AUM-9 को दुनिया के सामने लाना मतलब हर इंसान की सोच को खतरे में डालना है!"


बंकर में अब तीन ताकतें थीं:


विक्रम – जो सच जानना चाहता था।


आयशा – जो उसे छुपाना चाहती थी।


द वॉयस – जो उसे बेचना चाहता था।



और अब शुरू होती है असली लड़ाई… सोच और शक्ति की।



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बंकर में माहौल ठंडा था, लेकिन हालात तप चुके थे।


विक्रम, आयशा और कबीर—तीनों के बीच खिंचाव अब तलवार की धार जितना नाज़ुक था।


द वॉयस के नकाबपोश एजेंट्स बंकर में घुस चुके थे। उनके पास हथियार थे, लेकिन विक्रम के पास… सोच थी।


“विक्रम,” कबीर चीखा, “हमें AUM-9 उन्हें सौंपना होगा… वरना यहाँ से कोई ज़िंदा नहीं जाएगा।”


“नहीं,” आयशा ने गुस्से से कहा, “अगर उन्होंने AUM-9 को छू भी लिया… दुनिया की हर सरकार, हर सिस्टम मिट जाएगा।”


विक्रम ने दोनों की तरफ देखा। और फिर धीरे से AUM-9 की केसिंग की ओर बढ़ा।


“मैं इसका इस्तेमाल करूंगा… लेकिन अपने तरीके से।”


उसने कांच तोड़ा, और नीले क्रिस्टल को हाथ में उठाया।


अगले ही पल… सब थम गया।


समय रुक गया। आवाजें गायब।

आंखों के सामने एक के बाद एक तस्वीरें तैरने लगीं—रामकिशन की डील, आयशा का दर्दनाक अतीत, कबीर का विश्वासघात, द वॉयस की असलियत।


AUM-9 ने विक्रम को हर एक का सच दिखा दिया था।


जब उसे होश आया, उसने देखा कि आयशा रो रही थी।


“अब तुम जान चुके हो… अब क्या करोगे?”


विक्रम ने क्रिस्टल को जमीन पर रखा और गन उठाई।


“मैं इसे किसी को नहीं दूंगा। न तुम्हें, न कबीर को, न इन मुखौटों को।"


और एक बटन दबाते ही बंकर में एक सेल्फ-डिस्ट्रक्ट प्रोटोकॉल एक्टिवेट हो गया—आखिरी सुरक्षा ब्रह्म सर्कल की।


“भागो!” उसने चिल्लाया।



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बंकर से बाहर आते ही सब कुछ ढह गया। धूल के गुबार में तीन परछाइयाँ थीं—विक्रम, आयशा और कबीर।


विक्रम की जेब में AUM-9 का एक टुकड़ा बचा था—कई टुकड़ों में टूटा, लेकिन अब शक्ति नहीं, चेतावनी बन चुका था।


वो बोला—


“कुछ सच, दुनिया के लिए नहीं होते। उन्हें बस सही समय का इंतज़ार करना पड़ता है।”


आयशा ने उसकी ओर देखा और मुस्कुरा दी।

“अब तुम समझ गए हो… क्यों मैं तुम्हें रोक रही थी।”



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कहानी समाप्त… लेकिन रहस्य नहीं।


क्योंकि AUM-9 का एक टुकड़ा अब विक्रम के पास है… और शायद, एक दिन फिर से उसका इस्तेमाल होगा।



रविवार, 6 अप्रैल 2025

मुर्गा मिस्ट्री – फार्म का फौलादी फौजी"



पकोड़ीपुर के पास ही एक छोटा-सा सुंदर गाँव था—चटपटपुर। यहाँ रहते थे मदनभाई, जिनका फार्म था पूरे गाँव में फेमस। फार्म में गायें थीं, भैंसे थे, बकरियाँ थीं… और सबसे अलग था एक खतरनाक मुर्गा—नाम नहीं था, लेकिन लोग उसे 'चिकन सिंह' कहते थे।


मदनभाई को जानवरों से ऐसा प्रेम था कि वो उनके साथ ही बैठते, खाते और कभी-कभी बातें भी करते। लेकिन मुर्गा चिकन सिंह—वो किसी से प्रेम नहीं करता था। उसकी ड्यूटी थी फार्म की रक्षा और उसमें वो बिल्कुल कमी नहीं रखता था।


अब कहानी में एंट्री होती है दामू की—गाँव का थोड़ा संदेहास्पद, थोड़ा चाय वाले के उधारी में डूबा आदमी। न जाने क्यों, जब भी दामू फार्म के पास से गुजरता, चिकन सिंह गुस्से से काँव काँव करता हुआ उसके पीछे पड़ जाता। दामू को देखकर जैसे उसकी पुरानी दुश्मनी जाग उठती थी।


एक दिन, दामू जैसे ही फार्म की दीवार के पास से गुज़रा, मुर्गा आया और सीधे उसकी लुंगी की पर अटैक किया! दामू भागा… और फिसलकर… सीधे किचड़ में जा गीरा। गाँव वाले हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।


लेकिन फिर कहानी में आता है एक रहस्यमयी मोड़…


एक सुबह मदनभाई फार्म पर पहुँचे और देखा कि फार्म का सारा सामान बिखरा पड़ा था! भूसा इधर, बाल्टी उधर, गाय हैरान, भैंस परेशान! लेकिन अजीब बात यह थी कि कोई भी जानवर गायब नहीं था।


फिर उनकी नज़र पड़ी…


उन्हें एक लुंगी और एक चप्पल, फार्म में पड़ी हुई देखी।


मदनभाई ने बिना देर किए पुलिस को बुलाया।

पुलिस आई, इंस्पेक्टर ने चश्मा ठीक किया और बोला,

“हम देख रहे हैं, केस थोड़ा... फाउल प्ले लग रहा है।"


पूरी जाँच हुई। कीसी सामान की चोरी नहीं हूई थी, जानवर भी यथास्थान थे… तो आखिर चोर आया किस लिए था?


तभी एक सुराग मिला—बकरी की रस्सी कटी हुई थी, और बाहर की मिट्टी पर किसी के नंगे पाँव के निशान थे… और मुर्गे के पंजों के गहरे खरोंच भी!


कुछ ही घंटों में चोर पकड़ में आ गया—और वो कोई और नहीं बल्कि दामू ही था!


दामू ने कबूल किया, “मुझे मदनभाई की बकरियाँ बहुत पसंद हैं… मतलब, उन्हें पालने के लिए… और थोड़ा बहुत बेचने के लिए भी।”


रात को वो चुपके से फार्म में घुसा। जैसे ही एक बकरी को लेकर भागने की कोशिश की, चिकन सिंह ने उसे देख लिया…


मुर्गा एक्टिवेट हो गया!


दामू की चीखें सिर्फ जानवरों ने नहीं, पड़ोसियों ने भी सुनी थीं।


वो इधर भागा, उधर गिरा…

लुंगी छूटी, चप्पल गिरी…

और बचकर जैसे-तैसे भागा।


जब पुलिस ने उसे पकड़ा, उसके हाथ में खरोंचें, चेहरे पर डर, और आँखों में एक ही डरावना सपना—मुर्गा!


पुलिस, गाँव वाले और खुद मदनभाई… सब हँस-हँसकर लोटपोट हो गए।


मदनभाई ने चिकन सिंह को “फार्म का सुपर सिक्योरिटी इंचार्ज” घोषित कर दिया।


अब कोई भी फार्म के पास आता है तो पहले मुर्गे को सलाम करता है।



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गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

Hounted bridge

"चेतावनी:  यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"




घने जंगलों और ऊँचे पहाड़ों के बीच बसा एक छोटा-सा गाँव, जिसका नाम था 'सावनपुर'। इस गाँव से होकर बहने वाली नदी पर बना एक पुराना पुल, जिसे लोग 'भूतिया पुल' कहते थे। वर्षों से यह पुल बदनाम था—रात में यहां कई दुर्घटनाएँ हो चुकी थीं, और लोग कहते थे कि वहां एक बूढ़े आदमी की आत्मा भटकती है। जो भी रात में उस पुल पर रुकता, उसे वह बूढ़ा लिफ्ट मांगता और फिर वह गायब हो जाता।


अजनबी जोड़ा


एक रात, शहर से आए एक नवविवाहित जोड़ा—राहुल और सिया—अपने सफर पर थे। उनका रास्ता उसी पुल से होकर गुजरता था। घड़ी ने बारह बजाए और चारों ओर सन्नाटा पसर गया। जैसे ही वे पुल पर पहुँचे, अचानक सामने एक वृद्ध व्यक्ति खड़ा हो गया। उसके कपड़े फटे थे, शरीर पर चोटों के निशान थे, और वह थरथरा रहा था।


"बेटा, क्या तुम मुझे मेरे घर तक छोड़ सकते हो?" बूढ़े ने धीमी आवाज़ में कहा।


राहुल और सिया ने एक-दूसरे की ओर देखा। बूढ़ा बेहद घायल और कमजोर लग रहा था। उन्हें डर तो लगा, लेकिन इंसानियत के नाते उन्होंने उसे अपनी गाड़ी में बैठा लिया।


अस्पताल की ओर


राहुल ने पूछा, "बाबा, आपका घर कहाँ है?"


बूढ़े ने काँपती आवाज़ में एक गाँव का नाम लिया। लेकिन सिया को उसकी हालत देखकर चिंता हुई और उसने सुझाव दिया कि पहले अस्पताल ले चलते हैं। बूढ़ा कुछ नहीं बोला, बस उनकी ओर देखता रहा।


अस्पताल पहुँचकर, डॉक्टरों ने उसका इलाज किया और कहा, "ये आदमी तो काफी पुरानी चोटों से पीड़ित लग रहा है, जैसे कोई सालों पहले दुर्घटनाग्रस्त हुआ हो।" राहुल और सिया को यह सुनकर थोड़ा अजीब लगा, पर उन्होंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।


घर का रहस्य


इलाज के बाद बूढ़े ने फिर से अपने गाँव जाने की इच्छा जताई। वे उसे बताए गए पते पर छोड़ आए और कुछ पैसे भी दिए ताकि वह अपना ध्यान रख सके। बूढ़े ने सिर्फ एक गहरी मुस्कान दी और घर के अंदर चला गया।


अगले दिन, जब राहुल और सिया फिर उसी रास्ते से गुजरे, तो उन्हें बूढ़े का हालचाल जानने की इच्छा हुई। वे उसी घर पहुँचे, पर वहाँ का नज़ारा देख उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई।


जहाँ पिछली रात एक ठीक-ठाक सा घर था, वहाँ अब एक उजड़ा हुआ खंडहर खड़ा था। धूल, जाले और टूटी हुई दीवारें… कुछ भी वैसा नहीं था जैसा पिछली रात देखा था।


सच्चाई का खुलासा


वे पास के एक चाय वाले से पूछते हैं, "बाबा, यहाँ जो बूढ़े रहते थे, वे कहाँ गए?"


चाय वाला हैरानी से उनकी ओर देखता है और कहता है, "बेटा, तुम कैसी बात कर रहे हो? यहाँ तो कोई नहीं रहता! कई साल पहले, एक बूढ़ा यहां था पर सावनपूर के पुल पर ह ईदुर्घटना में वह चल बसा। कहते हैं वह मदद के लिए चिल्लाता रहा, पर किसी ने भी उसकी मदद नहीं की। अगले दिन उसकी लाश उसी पुल के नीचे मिली थी। तब से उसकी आत्मा यहाँ भटक रही है। जो भी उसकी मदद नहीं करता, वह गायब हो जाता है।"










राहुल और सिया की सांसें अटक गईं। उनकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गई।


"पर… बाबा तो कल हमारे साथ थे, हम उन्हें अस्पताल भी  ले गये थे, उनके घावों पर पट्टी बंधवाई थी… हमने उन्हें पैसे भी दिए थे…!" सिया ने घबराते हुए कहा।


चाय वाले की आँखें बड़ी हो गईं, "शायद, तुम पहले इंसान हो जिन्होंने उसकी मदद की होगी। इसलिए उसने तुम्हें छोड़ दिया। शायद उसकी आत्मा को अब शांति मिल गई होगी…"


राहुल और सिया अब पीछे मुड़कर देखने लगे, पर वहाँ सिर्फ एक हल्की ठंडी हवा थी, जैसे कोई मुस्कुरा कर विदा ले रहा हो।




मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

Raman aur bhutiya saya

 

"चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जैसे कि रहस्यमयी घटनाएँ, मानसिक तनाव, या वयस्क विषयवस्तु। कृपया अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें और अपनी सुविधा के अनुसार इस कहानी का आनंद लें।"




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रमण एक शहर का लड़का था जिसे रोमांच और खोजबीन का बहुत शौक था। गर्मियों की छुट्टियों में वह अपने मामा के गांव आया, जो पहाड़ों के बीच बसा हुआ था—खूबसूरत, शांत और हरियाली से घिरा। लेकिन यह गांव रात होते ही अजीब और डरावना हो जाता था। कुछ तो राज था उस गांव का जो रमण के मन में जिज्ञासा पैदा कर रहा था।


पहली ही रात, खाने के बाद मामा ने उसे सख्त हिदायत दी—

"की चाहे कुछ भी हो, रात को कभी भी वह घर से बाहर ना जाये, चाहे कुछ भी हो।"


रमण को यह बड़ा अजीब लगा। शहर में तो वह रात को घूमने का आदी था। उसने इसका कारण पूछा, लेकिन मामा ने कुछ नहीं कहा बस वह रात को घर से बाहर ना निकले इतना ही कहा।


वह रहस्यमयी रात


अब रमण का मन जिज्ञासा से भर गया था। आखिर ऐसा क्या है  इस गांव में जिसके कारण उसे रात को घर से बाहर निकलने से मना कर दिया गया था? काफी सोचने के बाद रमण ने उसी रात बाहर निकलने की सोची, जब सब लोग सो गए, तब  रमण चुपचाप दबे पांव घर से बाहर निकल पड़ा।


वैसे रात ज्यादा हुई नहीं थी पर फीर भी गांव आधी रात वाले सन्नाटे में डूबा हुआ था। सारे घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ बंद थीं। गलियाँ भी बिल्कुल सुनसान थीं। यह सब देख रमण को थोड़ी घबराहट तो हुई, लेकिन उसके रोमांच के आगे यह डर फीका था,  वह आगे बढ़ गया।


   पर कुछ दूर चलने के बाद उसे अजीब-सी घुटन महसूस होने लगी। ठंडी हवा शरीर को कंपा रही थी। और उसे बड़ा अजीब-सा लगने लगा, उसे ऐसे लगा मानो कोई उसपर नजर रख रहा हो और उसका पीछा कर रहा हो। थोड़ी देर घुमने के बाद उसे लगा की उसे अब वापस जाना चाहीए और वह मुडा फिर तभी अचानक, चौराहे पर एक काला सायासा दिखा।


वह एक महिला जैसी आकृति थी… लेकिन जरा कुछ अजीब थी, वह रमण कोही देख रही थी।


तभी वह धीरे-धीरे रमण की ओर बढ़ने लगी। उसकी चाल अस्वाभाविक सी थी, जैसे वह हवा में तैर रही हो। उसकी आँखें चमक रही थीं, और चेहरा अंधेरे में धुंधला-सा दिख रहा था।


रमण का दिल अब तेजी से धड़कने लगा। उसे समझ नहीं आया कि क्या करे। इसलिए उसने पीछे हटने की कोशिश की, तभी वह साया और तेज़ी से उसकी ओर बढ़ने लगा।


भागने की कोशिश


यह देख रमण तो डर के मारे भागने लगा। वह अपने मामा के घर की तरफ दौड़ा, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से अब मामा का घर उसे कहीं नजर ही नहीं आ रहा था। अचानक जैसे पूरा गांव उसकी गलीया बदल गयी हो! 


रमण एक घर के सामने आ पहुंचा और जोर-जोर से घर का दरवाजा खटखटाने लगा।


"कोई है? प्लीज दरवाजा खोलो!"


लेकिन अंदर से कोई आवाज नहीं दे रहा था। गांव वाले अपने नियमों से बंधे थे—चाहे कुछ भी हो वह रात को दरवाजा नहीं खोलने वाले थे।


साया अब रमण के करीब आ रहा था। वह अजीब तरह से हंस रहा था और उसकी यह हंसी एक ठंडी, सिरहन पैदा कर रही थी।


आखिरी उम्मीद - मंदिर


 रमण पसीने से भीग चुका था। उसकी सांसे तेज हो चुकी थी। वह डर के मारे भाग रहा था। रात को घर से बाहर निकलने के अपने फैसले पर वह बड़ा पछता रहती था, तभी दौड़ते हुवे उसे उस गांव का मंदिर दिखा—पुराना, लेकिन बड़ा और चमकता हुआ।


उसे याद आया—की मंदिर में भूत कभी प्रवेश नहीं कर सकते।


बस बिना कुछ सोचे रमण पूरे वेग से मंदिर की ओर दौड़ा। वह मंदीर के पास पहुंचा और जैसे ही उसने मंदिर के अंदर कदम रखा, साया एकदम से रुक गया।


वह गुस्से में चीखने लगी, क्युकी अब वह अंदर नहीं जा सकता था।


रमण ने पहली बार उसका चेहरा साफ़-साफ़ देखा—आधी जली हुई खाल, गहरी लाल आंखें और विकृत मुस्कान।


डर से उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया, और वह बेहोश हो गया।


सच का खुलासा


सुबह जब रमण को होश आया, तो वह अपने मामा के घर में था। उसका शरीर थरथरा रहा था, और बुखार से तप रहा था।


मामा ने उसके सिर पर हाथ रखा और गहरी सांस लेते हुए बोले—

"मैंने तुम्हें बाहर न जाने के लिए कहा था, लेकिन तुम नहीं माने। अब तुम सच्चाई जान चुके हो।"


रमण की आँखों में सवाल था।


मामा ने कहना शुरू किया—

"कुछ साल पहले, इस गांव में एक औरत को डायन होने के शक में मार दिया गया था। लोगों ने उसे पेड़ से लटका कर जला दिया। लेकिन वह निर्दोष थी। अब उसकी आत्मा बदला लेने के लिए हर रात गांव में भटकती है और जो भी उसे नजर आता है, उसे मार देती है।"


रमण की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई। अब उसे समझ आया कि रात को गांव इतना सुनसान क्यों हो जाता था।


बदला हुआ रमण


उस घटना के बाद रमण बदल गया। वह बाहर जाने से भी डरने लगा। रात होते ही वह खिड़कियाँ बंद कर लेता और तकिये में मुंह छिपाकर सो जाता।


छुट्टियाँ खत्म होने के बाद वह शहर लौट आया, लेकिन अब उसकी ज़िंदगी पहले जैसी नहीं रही। वह अक्सर रातों को डर के मारे उठ बैठता।


उसे हमेशा ऐसा लगता, जैसे कोई साया अब भी उसकी तलाश में है…



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समाप्त।



छठा कमरा— “आहट”

  "चेतावनी: यह रहस्य कहानी केवल परिपक्व पाठकों के लिए है। इसमें ऐसे तत्व शामिल हो सकते हैं जो संवेदनशील पाठकों के लिए उपयुक्त न हों, जै...