Rahasya katha: अधूरी नहीं — अध्वितीय: एक बेटी, एक मर्डर मिस्ट्री और अधूरी वसीयत का रहस्य

रविवार, 13 अप्रैल 2025

अधूरी नहीं — अध्वितीय: एक बेटी, एक मर्डर मिस्ट्री और अधूरी वसीयत का रहस्य

 



ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँकती नेहा के चेहरे पर बारिश की हल्की बूंदें थीं — बाहर का मौसम वैसा ही था जैसा उसके मन के अंदर।

कुछ अधूरा, कुछ ठहरा हुआ।

मोबाइल की स्क्रीन बार-बार बंद हो रही थी — कोई कॉल नहीं, कोई मैसेज नहीं।

अब कौन करेगा?


सुभाष मेहरा — उसका पापा — अब इस दुनिया में नहीं थे।


जब कॉल आया था कि पापा की तबियत बिगड़ी और फिर... उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया, तब वो कुछ पल के लिए समझ नहीं पाई थी कि क्या महसूस करे।

अंदर एक अजीब सा खालीपन था — जैसे कुछ छिन गया हो, पर शब्दों में बयान करना मुश्किल था।



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जब वो कोठी नंबर 17 पहुँची, तब दरवाज़ा पहले से खुला था।

अंदर रिश्तेदार बैठे थे, कुछ शोक में, कुछ औपचारिकता में।


घर के बीचोंबीच सफेद चादर से ढका एक शांत चेहरा — वही चेहरा जिसने उसे ज़िंदगी की पहली कहानी सुनाई थी, पहले ज़ख़्म पर मरहम लगाया था, पहले झूठ पर डाँटा था...

आज वो हमेशा के लिए चुप था।


नेहा घुटनों के बल बैठ गई।

"पापा... एक बार बोलो ना। सिर्फ एक बार।"


किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा।

"नेहा बेटा, हार्ट अटैक था। सब बहुत जल्दी हो गया। डॉक्टर ने कहा कुछ कर ही नहीं सकते थे।"


नेहा ने कुछ नहीं कहा। बस सिर झुका लिया।



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अंतिम संस्कार के बाद नेहा घर में अकेली रह गई।

रिश्तेदार लौट चुके थे।

घर... खामोश था।

कुछ ज़्यादा ही खामोश।


उसने पापा की पुरानी कुर्सी को देखा — जहाँ वो हर शाम बैठ कर किताब पढ़ते थे।

टेबल पर अभी भी अधूरी चाय थी।

पापा हमेशा कहते थे, "नेहू, चाय को आदर देना चाहिए। अधूरी चाय अपशगुन होती है।"


नेहा ने कप उठाया — कप में अब भी गुनगुनी गंध थी।

पर यह चाय की महक नहीं थी।


उसने सिर झटका, खुद को टोका —

"नेहा, तू अभी बहुत थकी हुई है। मत सोच ज़्यादा। पापा को शांति से जाने दे।"


उसने धीरे से पापा का कमरा खोला।

बिलकुल वैसे ही सजा हुआ था जैसे पापा रखते थे।

सब कुछ अपनी जगह — किताबें, चश्मा, दवाइयाँ... और एक डायरी।


नेहा ने डायरी उठाई, और यूँ ही पन्ने पलटने लगी।

कुछ सामान्य बातें थीं — दिनचर्या, मौसम, दवाओं के नाम, एक कविता...


फिर एक पन्ना आया — थोड़ा सा झुका हुआ अक्षर, जैसे हाथ काँप रहा हो।


"आज मन बेचैन है। लगता है कोई मेरे आसपास है।

पर कौन?"


नेहा की आँखें एक पल को ठहर गईं।

उसने वो पन्ना फिर पढ़ा।

"लगता है कोई मेरे आसपास है..."


क्या ये बस डर था?

या कुछ और?


वो चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई।

पलकों पर आँसू थे, लेकिन दिल में पहली बार एक हल्की सी हलचल...

शक।

.......

अगली सुबह, नेहा नींद से ऐसे जागी जैसे कोई उसे देर रात तक देखता रहा हो।

सपने में पापा की हल्की-सी आवाज़ गूंज रही थी —

"नेहू, किसी पर आँख मूंद कर भरोसा मत करना..."


उसने सिर झटका, “बस सपना था।”


लेकिन जब वो बिस्तर से उठी, तो खिड़की खुली हुई थी —

वही खिड़की जिसे पापा हर रात बंद करते थे।

ख़ास ताले वाला हैंडल अब ढीला लग रहा था।


उसने खुद को समझाया, “शायद बाई ने सफाई में खोल दी हो…”


पर बाई से पूछने पर जवाब मिला —

“मैडम, कल तो मैंने कुछ भी नहीं खोला। पापा ने ही मना किया था खिड़कियाँ छूने से।”


एक हल्का सा सिहरन नेहा के शरीर से गुज़र गई।



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नेहा अब घर का हर कोना फिर से देखने लगी — इस बार किसी याद के लिए नहीं, बल्कि कुछ ग़लत ढूँढने के लिए।


रसोई में वो वही कप मिला जिसमें पापा ने आख़िरी बार चाय पी थी।

उसमें से अब भी एक अजीब सी गंध आ रही थी — दवा जैसी।


उसने कप को पॉलिथीन में रखकर फ्रिज में रखा, सोच लिया कि पुलिस को दिखाएगी — अगर बात वहाँ तक पहुँची।



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पापा की डायरी फिर उसके हाथ में थी।

नेहा ने वो पन्ना दोबारा पढ़ा:

"लगता है कोई मेरे आसपास है..."

और ठीक उसी के नीचे किसी ने हल्के हाथ से कुछ लिखा था —

“K”


बस एक अक्षर।

K

क्या ये करण हो सकता है?


करण — चचेरा भाई।

जो पापा के बेहद क़रीब हुआ करता था, लेकिन पिछले दो साल से किसी बात पर दूर था।

वो अंतिम संस्कार में तो आया था, पर एक शब्द बोले बिना चला गया।



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नेहा ने पापा की अलमारी खोली।

सबकुछ करीने से रखा था — जैसे पापा हमेशा रखते थे।

पर नीचे की दराज़ से एक दस्तावेज़ का कोना झाँक रहा था।


वसीयत।


उसने वो फाइल निकाली —

अंदर के कागज़ पुराने और पीले थे।

पर आखिरी पन्ना नया था, अलग कागज़ पर छपा हुआ।


और उस पर साइन भी अलग थे — जैसे घबराहट में किए गए हों।


नेहा को याद आया — कुछ महीने पहले पापा ने फोन पर कहा था,

“मैं कुछ बदलाव कर रहा हूँ वसीयत में। तू आएगी तो सब दिखाऊँगा।”


लेकिन उन्होंने कभी दिखाया नहीं।


उस आख़िरी पन्ने पर नाम था — नेहा मेहरा

वह मुख्य उत्तराधिकारी थी।


पर जब करण का नाम फाइल में कहीं नहीं था, तब...


क्या पापा ने ये वसीयत करण से छुपाई थी?

या करण को इसका पता चल गया था?



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अचानक, अलमारी की पीछे की दीवार से एक कागज़ का टुकड़ा गिरा।

जला हुआ था, आधा राख बन चुका।


जो थोड़ा-सा बचा था, उसमें कुछ लिखा था:


"...अगर मुझे कुछ हो जाए तो समझ जाना कि..."


बाकी हिस्सा जल चुका था।


नेहा का गला सूख गया।

"पापा को शक था। वो कुछ कह रहे थे। किसी से डर रहे थे।"


उसने मोबाइल उठाया, कॉल लिस्ट देखी।


रात 1:23 AM — एक अननोन नंबर को कॉल किया गया था।

उस कॉल का कोई रिकॉर्ड अब फोन में नहीं था —

लेकिन फोन की बैकअप ऐप में वो एंट्री दिख रही थी।



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नेहा अब थक गई थी।

लेकिन अब वो सिर्फ दुखी बेटी नहीं रही थी —

अब वो एक सवाल ढूँढने वाली औरत बन गई थी।


"क्या पापा की मौत वाकई 'मौत' थी? या किसी ने उनकी कहानी अधूरी लिख दी?"


......



नेहा ने अब हर चीज़ को संदेह की नज़र से देखना शुरू कर दिया था।

पापा के पुराने कमरे की हर दराज़, हर तस्वीर, हर दस्तावेज़ — सब अब सबूत बन चुके थे।



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उसने सबसे पहले करण को कॉल किया।


करण: “हाँ नेहा, बोल... सब ठीक है?”

नेहा (थोड़ा ठंडी आवाज़ में): “सब ठीक... बस कुछ बातें समझ नहीं आ रहीं।”

करण (हँसकर): “क्या बातें?”

नेहा: “पापा की वसीयत मिली… कुछ अजीब है उसमें।”

करण (एक पल की चुप्पी): “मैं बिज़ी हूँ नेहा, फिर बात करता हूँ।” — कॉल कट।


नेहा का शक और गहराया।

वो चुप क्यों हो गया?



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उसने शम्भू को कॉल करने की कोशिश की — घर का पुराना नौकर।

मगर उसका नंबर बंद था।


पड़ोस की रेखा आंटी से पूछा, “शम्भू भैया आए थे अंतिम संस्कार में?”


रेखा आंटी ने सिर हिलाया, “नहीं बेटा। मैंने तो दो दिन पहले ही देखा था उन्हें, पापा के साथ बाहर जा रहे थे। फिर लौटे नहीं।”


ग़ायब? ऐसे कैसे?


नेहा को पापा की अलमारी में शम्भू का पेंशन फ़ॉर्म मिला — जो अधूरा था।

आख़िरी बार भरने की तारीख़ थी — उसी दिन, जिस दिन पापा की मौत हुई।


क्या शम्भू कुछ जानता था?



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शाम को नेहा घर के CCTV चेक करने गई।

USB पोर्ट पर कैमरे की रिकॉर्डिंग स्टिक तो लगी थी...

पर वीडियो खाली था।


सिर्फ वही दिन मिसिंग था जब पापा मरे थे।


अब नेहा को यक़ीन हो चला था —

पापा की मौत एक सोची-समझी साजिश थी।



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रात को, जब वो बालकनी में बैठी थी, अचानक गली में एक परछाईं भागती नज़र आई।


नेहा नीचे भागी, बाहर पहुँची —

कोई नहीं था।


पर फाटक के पास एक कागज़ गिरा था, उस पर उँगलियों के निशान थे —

और लिखा था:


"वो जो सबसे अपना लगता है, वही सबसे पहले धोखा देता है।"



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अब बहुत हो चुका था।

नेहा ने अगली सुबह फ़ोन उठाया —


“हैलो... क्या मैं डीसीपी आरव राठौर से बात कर सकती हूँ? मुझे एक हत्या की रिपोर्ट करनी है। मेरे पिता की हत्या।”


......



"डीसीपी आरव राठौर बोल रहा हूँ। केस डिटेल्स भेजिए,"

फोन की दूसरी तरफ़ से सख़्त, थकी हुई लेकिन बेहद प्रोफेशनल आवाज़ आई।


नेहा ने सारी डिटेल्स, दस्तावेज़ों की तस्वीरें, डायरी की फोटो, वसीयत की कॉपी, और वो जलता हुआ कागज़ सब भेज दिए।



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अगले दिन सुबह 9 बजे, कोठी नंबर 17 के बाहर एक सफेद SUV आकर रुकी।

उतरा एक लंबा, सीधा-सपाट आदमी — ग्रे शर्ट, पैनी निगाहें और आंखों में नींद की परछाइयाँ।


डीसीपी आरव राठौर।


“आपने कहा कि ये मर्डर है, पर सब कह रहे हैं हार्ट अटैक,” उन्होंने पहली बात में ही कह दिया।


नेहा ने कोई बहाना नहीं बनाया।

सीधे फाइल और डायरी सामने रख दी।


आरव ने एक-एक चीज़ ध्यान से देखी।

जब उसने चाय के कप की बात बताई, तो वो पहली बार थोड़ा रुका।


“आपने इसे संभाल कर रखा?”

“हाँ।”

“अच्छा किया। हम फॉरेंसिक को भेजते हैं।”



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आरव ने घर का मुआयना शुरू किया।

खिड़की का टूटा लॉक, खाली CCTV रिकॉर्डिंग, वसीयत के दो अलग-अलग हिस्से —

एक आम आदमी को ये सब सामान्य लगता, लेकिन आरव को नहीं।


“वसीयत पर ये साइन... कांपती हुई लाइनें।

किसी ने दबाव में साइन करवाए हों तो ऐसा ही होता है,” वो बड़बड़ाया।



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दोपहर तक पुलिस टीम शम्भू की तलाश में लग चुकी थी।

और उसी शाम नेहा के पास एक कॉल आया —


“शम्भू एक सस्ते लॉज में छिपा मिला है।

कहता है जान का डर है।”



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जब आरव ने शम्भू से पूछताछ शुरू की, उसका डर साफ़ था।


“साब, मैं कुछ नहीं कर सकता था...

मैंने देखा था... उस रात कोई आया था... पीछे के दरवाज़े से।

साहब चिल्ला रहे थे... पर आवाज़ दब गई... और फिर...”


“कौन आया था?” आरव ने सीधा पूछा।


शम्भू कांपते हुए बोला —

“...करण भैया।”



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अब शक नहीं रहा।

करण अब एक संदिग्ध नहीं, एक क्लू बन चुका था।



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आरव ने जाते-जाते नेहा से कहा —

“मैं केस में दिल नहीं लगाता... पर तुम्हारे पास जो हिम्मत है ना — वो दिखा रही है कि कुछ गड़बड़ है।

अब ये केस ‘सामान्य मौत’ नहीं, मौत की साजिश है।”



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शाम ढल रही थी।

घर की दीवारें अब भी पापा की यादों से भरी थीं, लेकिन नेहा अब सिर्फ एक बेटी नहीं, एक खोजकर्ता बन चुकी थी।



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फॉरेंसिक रिपोर्ट आई।


आरव ने खुद नेहा को फोन किया —

"चाय के कप में traces of digoxin पाए गए हैं — एक हृदयगति को धीमा करने वाली दवा, लेकिन अधिक मात्रा में जानलेवा।"


नेहा का दिल कांप गया।

"मतलब...?"

"मतलब तुम्हारे पापा की चाय में ज़हर था। और ये प्लान किया गया था।"


अब संदेह पूरी तरह हत्या में बदल चुका था।



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डीसीपी आरव ने करण को समन भेजा।

करण बड़ी सहजता से पुलिस स्टेशन आया —

सूट-बूट में, आत्मविश्वास से लबरेज़।


"आप मुझे क्यों बुला रहे हैं? मैं कोई अपराधी नहीं," उसने कहा।


"तो क्या आप हमें बता सकते हैं आप उस रात कहां थे जब सुभाष जी की मौत हुई?"

"घर पर था। अकेला।"


"कोई गवाह?"

"नहीं।"


आरव ने डायरी के पन्ने सामने रखे —

वो पन्ना जिसमें ‘K’ लिखा था।

करण की आँखों में एक झटका सा दिखा, पर चेहरा शांत रहा।


"आपका नाम K से शुरू होता है... संयोग?"


करण हँसा, "हो सकता है।"



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तभी एक और ट्विस्ट सामने आया।


नेहा ने पापा का पुराना ईमेल अकाउंट खोला।

पासवर्ड वही था जो पापा की पहली किताब का नाम था —

“छाया के पीछे”


इनबॉक्स में एक अधूरी मेल Drafts में थी —

किसी वकील को भेजी जानी थी।


Subject: वसीयत में बदलाव की सूचना

Message: “मैं अपनी बेटी को सब कुछ सौंपना चाहता हूँ। करण को पहले जितना दिया, उतना ही काफी है। हाल की घटनाओं ने मेरा भरोसा तोड़ा है…”


नेहा की आंखों से आंसू टपक पड़े।


पापा ने बदलाव किया था — और करण को इसका पता चल चुका था।



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आरव ने नेहा से कहा —

“करण को गिरफ़्तार करने के लिए हमारे पास अब सीधा सबूत चाहिए।

हमारे पास ज़हर की रिपोर्ट है, पर उसे चाय में डालते किसने देखा?”


नेहा एक पल को सोच में पड़ गई।


“CCTV तो खाली था... लेकिन क्या कहीं और कोई कैमरा काम कर रहा था?”



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नेहा ने पड़ोसी रेखा आंटी से पूछा —

“आंटी, आपकी बालकनी से हमारे घर का पिछला दरवाज़ा दिखता है ना?”


रेखा आंटी मुस्कुराईं —

“हाँ बेटा, और मैंने नया कैमरा लगवाया है — कामवाली चोरी करती थी।”


नेहा की साँसें थम गईं —

“उस दिन की रिकॉर्डिंग है?”



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रिकॉर्डिंग जब आरव ने देखी —

वीडियो में साफ दिखा: करण, रात 11:40 बजे, पिछले दरवाज़े से अंदर जा रहा है।


सबसे बड़ा सुराग मिल चुका था।



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अगले दिन करण को हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।

उसके चेहरे पर अब भी मुस्कुराहट थी, लेकिन वो अब एक हारा हुआ अपराधी था।


“नेहा,” उसने कहा, “मुझे लगा तुझे कुछ पता नहीं चलेगा...”


नेहा ने उसकी आँखों में देखा और कहा —

“तुमने मेरे पापा की ज़िंदगी ली — अब मैं तुम्हारा हर झूठ छीन लूंगी।”



.....


करण की गिरफ्तारी के बाद सब शांत था — बाहर भी, और नेहा के भीतर भी।

पर एक अधूरापन अब भी बाकी था।


पापा की डायरी, चाय का कप, जलता हुआ काग़ज़ —

इन सब ने सच्चाई को बाहर निकाला, लेकिन एक चीज़ अब भी रह गई थी:


नेहा का आखिरी अलविदा।



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तीन दिन बाद, नेहा घर की सफाई कर रही थी।

वो उसी कोने में पहुँची जहाँ पापा अक्सर बैठकर किताबें पढ़ा करते थे।


वहीं, बुकशेल्फ़ के पीछे एक पुरानी किताब मिली —

"छाया के पीछे" — पापा की पहली किताब।


नेहा मुस्कुराई, “तुम हमेशा यहीं हो न पापा...”


किताब के अंदर एक लिफाफा दबा हुआ था।


उस पर लिखा था —

"नेहू के लिए। सिर्फ तब खोलना जब लगे कि मैं चला गया हूँ..."



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हाथ कांपते हुए उसने वो लिफाफा खोला।

अंदर एक चिट्ठी थी — पापा की लिखाई में।



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प्रिय नेहू,

जब तू ये पढ़ेगी, शायद मैं न रहूँ।

मुझे नहीं पता मौत कैसे आएगी — अचानक या किसी चेहरे से जिसे मैं पहचानता हूँ।


पर अगर तुझे ये खत मिल गया है, तो समझ लेना, मैंने सब कुछ तुझ पर छोड़ दिया है।


मैं जानता हूँ, दुनिया सीधी नहीं होती — और रिश्ते तो और भी उलझे होते हैं।

करण कभी मेरा बेटा जैसा था, लेकिन जब लालच रिश्तों को निगलता है, तब इंसान की पहचान छिन जाती है।


मुझे तुझ पर पूरा यकीन है, कि तू सच्चाई को पहचान लेगी।

मैंने तेरी परवरिश सिर्फ एक बेटी की तरह नहीं, एक इंसान की तरह की है — जो डरती नहीं, लड़ती है।


तू मेरी सबसे बड़ी कहानी है, नेहू।

बाक़ी सब अधूरी थीं।


– पापा



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नेहा बहुत देर तक चुप रही।

आँखों से आंसू बहते रहे, लेकिन अब वो आंसू दुःख के नहीं थे —

सच्चाई की जीत के थे।



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पुलिस ने केस को “पूर्व नियोजित हत्या” करार दिया।

करण को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई।


शम्भू को सरकारी सुरक्षा और गवाह संरक्षण मिला।

आरव ने आखिरी मुलाकात में कहा —


"बहुत कम लोग होते हैं जो सच्चाई को अपनी जिद बना लेते हैं।

तुमने साबित किया — एक बेटी सिर्फ दुख में नहीं रोती, वो न्याय के लिए लड़ी भी जाती है।"



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कुछ महीने बाद।


नेहा पापा की अधूरी किताब पूरी कर रही थी —

नाम रखा:


"अधूरी नहीं — अध्वितीय"



THE END




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