भूतों का बाज़ार (एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी…)

 हर गांव में कोई न कोई रहस्यमयी बात ज़रूर छुपी होती है।

कभी कोई पुराना कुआँ, कभी किसी बरगद की छांव, तो कभी खेतों के किनारे वो पुराना पगडंडी रास्ता...

हमारे गांव "निवाड़ा" में भी एक ऐसा ही रहस्य है — "भूतों का बाज़ार"।


दादी अक्सर कहा करती थीं –

"रात के तीसरे पहर, जब गांव गहरी नींद में होता है, तब कुछ परछाइयाँ खेतों की तरफ जाती हैं... और लौटती नहीं..."


हमें ये सब कहानियाँ लगती थीं —

लेकिन एक दिन दादाजी के साथ ऐसा कुछ हुआ, जो हमें हमेशा के लिए बदल गया।

Elderly man walking alone on a moonlit village path towards the fields during full moon night.
पूर्णिमा की रात, जब सारा गाँव सोया होता है — दादाजी अकेले खेत की ओर बढ़ते हैं, अनजाने डर की ओर।


    पूर्णिमा की रात थी।

आकाश में चांद सफेद नहीं, हल्का नीला सा लग रहा था — जैसे किसी बूढ़ी आंख का पुतला।

गांव की बिजली कई बार झपक कर जा चुकी थी, और अब चारों तरफ एक गहरी, रहस्यमयी शांति पसरी हुई थी।

दादाजी रोज़ की तरह अपनी लाठी और एक टिफिन लेकर खेतों की तरफ निकल पड़े।

कहते हैं, उनकी आदत थी रात के समय खेत घूमने की — "नींद नहीं आती", बस यही वजह बताते।

उस रात भी वह ऐसे ही रात को निकल पड़े, करीब आधे घंटे बाद, खेतों से गुजरते हुए उन्होंने देखा कि दूर एक कोना अचानक जगमगा उठा है।

लेकिन वो बिजली की रौशनी नहीं थी… वो कोई अलग किस्म की, पीली और हरी मिश्रित रौशनी थी — जैसे पुराने ज़माने की मिर्ची लाइट जल रही हो।

वो चौंके।

दूर से देखा — वहाँ कई लोग थे।

कुछ महिलाएं साड़ी में, कुछ मर्द अजीबो-गरीब लिबास में।

किसी के सिर पर टोकरा, किसी के कंधे पर जादुई डिब्बे…

बच्चे गुब्बारे लिए भागते दिखाई दिए — लेकिन उनके चेहरे जैसे धुंध में डूबे हों।

दादाजी ठिठक गए।

"गांव में तो ऐसा कोई मेला नहीं लगा... और ये लोग कौन हैं?"

वो धीरे-धीरे पास गए।

"मिलाईये मिलाईये! बस आज रात का बाज़ार है!"

किसी ने आवाज़ लगाई — लेकिन वो आवाज़ जैसे अंदर से आई हो, बाहर से नहीं।

दादाजी ने किसी को गौर से देखा —

उसके पाँव उल्टे थे।

पढीए

एक महिला की आंखें चांद की तरह चमक रही थीं।

उन्हें पसीना छूट गया।

लेकिन अजीब बात ये थी… उनके पैर खुद-ब-खुद उस बाज़ार की तरफ बढ़ रहे थे।

मानो कोई अदृश्य डोरी खींच रही हो।


A mysterious glowing ghost market appearing far in the fields at night, with strange unknown figures and surreal atmosphere.
दूर कहीं खेतों के बीच एक चमकता हुआ रहस्यमय बाज़ार — जहाँ दिखते हैं अनजाने चेहरे और अजीब सी रौशनी।



अब वो बाज़ार में थे।

सारे लोग धीरे-धीरे घूम रहे थे, पर उनकी आंखें सीधी दादाजी पर थीं।

किसी ने कुछ कहा नहीं, किसी ने हाथ भी नहीं बढ़ाया, पर सबकुछ जैसे सपने में हो रहा हो।

एक दुकानदार ने आवाज़ दी,

"कुछ खरीदिए दद्दा? आज की रात बहुत खास है..."

दुकान पर कुछ नहीं था… लेकिन जैसे ही दादाजी ने देखा — वहाँ उनका खुद का पुराना पाजामा टंगा था, जो सालों पहले खो गया था।

सामने एक महिला खड़ी थी —

"पहचाना?"

उसका चेहरा उनकी मर चुकी बहन से मिलता था, लेकिन उसकी आंखें काली थीं… बिल्कुल काली।


An elderly man returns home exhausted in the early morning, walking through the silent village street after a mysterious night.
सुबह की पहली किरण के साथ थके हुए दादाजी लौटते हैं — उनके चेहरे पर रात के रहस्य की थकान और सोच।


फिर अचानक हवा तेज़ हो गई।

सारी रौशनी बुझने लगी।

दुकानें गिरने लगीं, लोग पीछे हटते गए —

और एक अजीब सी आवाज़ आई — "समय पूरा हुआ…"

सब कुछ धुंध में समा गया।

और दादाजी को लगा कि किसी ने उन्हें ज़ोर से पीछे धकेला —

वो पीछे गिर पड़े… और जब उठे, तो सूरज की पहली किरण खेत पर पड़ी थी।


दादाजी सुबह 5 बजे घर आए।

चेहरा पीला, आंखें सुर्ख़।

पूरे दिन उन्होंने कुछ नहीं कहा।

फिर शाम को बस एक बात कही:

"इस गांव में कुछ है… कुछ ऐसा जो सिर्फ चुने हुए लोगों को दिखता है…"

पढीए;

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  ये कहानी कितनी सच है, ये कह पाना मुश्किल है।

पर गांव के बड़े-बुज़ुर्ग आज भी कहते हैं —

"कभी-कभी, पूर्णिमा की रात, खेतों के उस कोने से रौशनी उठती है... और कुछ आवाज़ें आती हैं..."

दादी-दादा अक्सर हमें ये सब किस्से सुनाया करते थे —

हमें तब हँसी आती थी।

लेकिन आज जब खुद गांव जाकर उस जगह को देखो, तो कुछ तो महसूस होता है…


शायद वो भूतों का बाज़ार कभी गया ही नहीं…

बस अब हमें बुलाता नहीं।

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