पुराना क़िला और डर की दास्तान

 

गाँव के बाहर, सूनी पहाड़ी की छाती पर खड़ा वह पुराना क़िला —

जिसे दिन में देखो तो बस टूटी दीवारों का ढेर लगता है,

पर रात में वही क़िला साँस लेता है…

और जो उसकी साँस सुन ले — वह फिर कभी चैन से नहीं सोता।

लोग कहते हैं, वहाँ हवाएँ नहीं चलतीं…

वहाँ यादें रोती हैं।

लोग कहते हैं, क़िले की परछाइयाँ चलती हैं…

और जो रास्ता भूल जाए,

वह क़िला उसे रास्ता नहीं,

अपना हिस्सा बना लेता है।

और उस रात…

जब दो दोस्त मजबूरी में उसी रास्ते से गुज़रे,

उन्हें नहीं पता था कि

वे सिर्फ़ रास्ता नहीं बदल रहे थे…

वे अपनी किस्मत के आख़िरी दरवाज़े पर दस्तक दे रहे थे। क्योंकि उस रात

क़िला सिर्फ़ खड़ा नहीं था…वह जाग चुका था।

"घने अंधेरे में डूबा एक सुनसान प्राचीन किला, जिसके टूटे हुए बुर्ज और दरवाज़ों के पास धुंध घूम रही है, और दूर से दो डरे हुए दोस्त उसकी ओर भागते हुए दिखाई दे रहे हैं।"
"जिस किले के साए से भी लोग बचते थे, आज वही उनकी मजबूरी बन चुका था।"


    अरदलीपुर एक छोटा-सा मगर खुशहाल गाँव था। चारों तरफ फैले हरे-भरे खेत, सरसों की पीली चादरें और दूर-दूर तक फैले आम के बाग उसे किसी चित्र की तरह खूबसूरत बनाते थे। सुबह होते ही कुओं पर औरतों की हँसी गूंजती, बच्चे नंगे पाँव गलियों में दौड़ते और दूर मस्जिद की अज़ान व मंदिर की घंटी साथ-साथ गाँव की रगों में जीवन का संगीत भर देती। यहाँ के लोग सीधे-सादे, मेहनती और एक-दूसरे के सुख-दुःख के साझेदार थे।


गाँव के दक्षिण में, थोड़ी दूरी पर, एक बीहड़ रास्ता घने जंगल में खो जाता था — और वहीं कहीं खड़ा था वह पुराना क़िला, जिसे देखकर दिन में भी रोंगटे खड़े हो जाते। शाम ढलते ही उस ओर कोई जाने की हिम्मत नहीं करता। 


इसी गाँव के दो घनिष्ठ दोस्त थे — इमरान और शकील। दोनों बचपन से साथ पले, बारिश में कागज़ की नाव चलाना हो या जंगल से लकड़ियाँ लाना, हर काम में कंधे से कंधा लगाकर चलते। इमरान थोड़ा गंभीर और सोचने वाला था, जबकि शकील हँसमुख लेकिन दिल से बहादुर।


उस दिन गाँव में एक रिश्तेदार की दावत थी, जहाँ दोनों देर शाम तक रुके रहे। लौटते समय अंधेरा गहराने लगा, आसमान पर बादल ऐसे छा गए जैसे किसी ने रात को ज़बरदस्ती धरती पर उतार दिया हो।


"चल जल्दी, आज कुछ ठीक नहीं लग रहा," इमरान ने फुसफुसाते हुए कहा।


शकील ने सिर हिलाया, लेकिन दोनों को क्या पता था कि यह रात उनकी ज़िंदगी की आख़िरी सामान्य रात बनने वाली थी।

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उस किले के बारे में बड़ी अफवाये थी। गाँव के बुज़ुर्ग लोग कहते थे कि सदियों पहले वहाँ एक बेरहम सामंत का राज था, जिसने अपने ही लोगों पर अत्याचार की सारी हदें पार कर दी थीं। जब जनता ने विद्रोह किया, तो सामंत अपने पूरे परिवार समेत उसी क़िले में घिर गया।


कहते हैं, उसने अपनी हार स्वीकारने की बजाय एक तांत्रिक अनुष्ठान करवाया, ताकि उसकी आत्मा पत्थरों में कैद होकर भी राज करती रहे। उसी रात क़िले से ऐसी चीखें उठीं कि दूर-दूर के गाँवों ने भी अपने दरवाज़े बंद कर लिए। सुबह होने पर दरवाज़े खुले मिले, लेकिन भीतर एक भी इंसान ज़िंदा नहीं था।


उस दिन के बाद से क़िला वीरान हो गया। समय के साथ उसकी दीवारों पर काई जम गई, बुर्ज टूटने लगे, और लोहे के फाटक जंग से चीखने लगे। मगर लोगों का कहना था कि क़िले की आत्मा अब भी जागती है। रात के अंधेरे में वहाँ से कभी-कभी लोहे की ज़ंजीरों की आवाज़, पदचाप और धीमी सिसकियाँ सुनाई देतीं।


कुछ चरवाहों ने दावा किया था कि उन्होंने क़िले की परछाइयों के बीच एक भयावह आकृति को चलते देखा — आधा इंसान, आधा जानवर। उसकी आँखें अंगारों की तरह लाल थीं, और सांसों से जैसे सड़ी हुई मिट्टी की बदबू आती।


"जो भी क़िले के बहुत करीब गया, वो या तो लौटकर पागल हो गया… या फिर कभी लौटा ही नहीं," यह बात गाँव में पीढ़ी दर पीढ़ी फुसफुसाई जाती रही।


इमरान और शकील भी इन अफ़वाहों से अनजान नहीं थे। वे क़िले के रास्ते से हमेशा बचकर निकलते, चाहे फिर दो कोस लंबा चक्कर ही क्यों न लगाना पड़े। मगर उस रात जंगल का रास्ता जैसे अपनी दिशा बदल चुका था।


चाँद बादलों में छिपा हुआ था और हवा में अजीब सी नमी और सड़ांध घुली थी। पेड़ों की टहनियाँ किसी अनदेखी शक्ति की तरह हिल रही थीं, मानो रास्ता दिखाने नहीं, बल्कि भटकाने के लिए।


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जंगल के भीतर कदम रखते ही इमरान को एहसास हो गया कि कुछ सही नहीं है। रास्ता जो रोज़ जाना-पहचाना लगता था, आज किसी भूलभुलैया जैसा हो चला था।


"शकील... क्या तूने भी महसूस किया? हवा भी जैसे भारी हो गई है," उसने धीमी आवाज़ में कहा।


शकील ने चारों ओर देखा। "हाँ... और ये चुप्पी... बहुत अजीब है। न झींगुरों की आवाज़, न पत्तों की सरसराहट..."


अचानक झाड़ियों में खड़खड़ाहट हुई। दोनों ठिठक गए। "कौन है?" शकील ने हिम्मत जुटाकर आवाज़ दी।


जवाब में बस एक गहरी गुर्राहट गूंजी — ऐसी आवाज़ जो इंसानी नहीं हो सकती थी।


धीरे-धीरे अंधेरे से एक विशाल आकृति उभरने लगी। उसका शरीर काले धुएँ जैसा था, मगर आँखें चमकती लाल आग की तरह। उसके पंजे ज़मीन में गहरे धँस रहे थे और हर साँस के साथ उसकी नाक से भाप निकल रही थी।

"जंगल के रास्ते पर चमकती आंखों वाला एक अजीब और भयावह जानवर, जिसके सामने दो युवक सहमे हुए पीछे हट रहे हैं और उनके चेहरों पर मौत का डर साफ झलक रहा है।"
"वह जानवर नहीं था, वह किसी अनदेखी शक्ति का संदेश था — जो उन्हें किले की ओर धकेल रहा था।"


"भाग!" इमरान की चीख हवा को चीर गई।


दोनों बिना पीछे देखे दौड़ पड़े। पेड़ उनके चेहरे पर चाबुक की तरह पड़ रहे थे, झाड़ियाँ उनके कपड़े फाड़ रही थीं, मगर उस जानवर की दहशत ने दर्द को भी बौना कर दिया था।


पीछे से उसकी दहाड़ और कबीली कदमों की गूंज साफ सुनाई दे रही थी।


"क़िला... सामने!" शकील की आवाज़ काँप रही थी।


"नहीं! वहाँ नहीं!" इमरान ने हाँफते हुए कहा, मगर सामने लोहे का विशाल फाटक उभर आया था, जैसे खुद अंधेरे ने उसके लिए रास्ता खोला हो।


पीछे वह भयानक प्राणी और करीब आ चुका था। अब उनके पास कोई विकल्प नहीं था।


भय और मजबूरी के उस पल में वे क़िले की ओर दौड़े और जंग लगे फाटक के भीतर घुस गए।


जैसे ही वे अंदर पहुँचे, बाहर की सारी आवाज़ें अचानक खामोश हो गईं। प्राणी की दहाड़ भी, हवा की सनसनाहट भी — सब मानो क़िले की दीवारों ने निगल ली हो।

दोनों अंधेरे में साँसें फुलाए खड़े थे। भीतर सीलन और पुरानी लाश जैसी बदबू थी। दीवारों से पानी की बूंदें टपक रही थीं और कहीं दूर से टन-टन की आवाज़ आ रही थी, जैसे कोई अदृश्य हथौड़ा किसी पुराने दरवाज़े पर वार कर रहा हो।


"हम... जिंदा हैं न?" शकील ने फुसफुसाकर पूछा।


इमरान ने जवाब नहीं दिया। उसकी नज़र अब भी उस अंधेरे गलियारे पर जमी थी, जहाँ से ठंडी हवा आ रही थी — ऐसी हवा जिसमें इंसानी सांस नहीं, बल्कि किसी भूली हुई आत्मा की ठंडक थी।


तभी अचानक...


एक धीमी हँसी गूंजी।


क़िले की पत्थर की दीवारें थरथरा उठीं।


"तुम... आखिर आ ही गए..."


आवाज़ हर दिशा से आ रही थी, जैसे क़िला खुद बोल रहा हो।


दोनों के चेहरों का रंग उड़ चुका था। वे समझ चुके थे —


यह सिर्फ़ क़िला नहीं था। यह एक जिंदा कब्र थी...


और उन्होंने इसकी देह में कदम रख दिया था।


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अजीब जानवर की गुर्राहट अब भी उनके कानों में गूंज रही थी।

शकील और इमरान साँस रोककर क़िले की टूटी सीढ़ियों के पीछे दुबके हुए थे। बाहर का अंधेरा इतना गहरा था कि मानो रात ने खुद अपनी आँखें खोल रखी हों। हवा में सड़ी दीवारों की नमी, जंग लगे लोहे की गंध और किसी पुराने खून की सी बू थी। जानवर की परछाईं क़िले के दरवाज़े तक आकर रुक गई थी। उसके पंजों की खरोंच पत्थरों पर साफ सुनाई दे रही थी।

“ये... ये जानवर नहीं है...”

 शकील की आवाज़ काँप रही थी।

इमरान ने सामने देखा — दरवाज़े के पास अब कोई जानवर नहीं था, पर जमीन पर गीले पंजों के निशान अभी भी दिख रहे थे, जैसे किसी ने जलते हुए पत्थरों पर चलकर उन्हें गीला कर दिया हो।

और तभी...

क़िले के भीतर से एक धीमी हँसी गूंजी।

न भारी, न बुलंद... बस ऐसी, जैसे कोई बहुत पास खड़ा हो और कान के पीछे फुसफुसा रहा हो।

वे दोनों धीरे-धीरे उठे। सामने लंबा गलियारा था, दीवारों पर जमे काले निशान, जगह-जगह टूटी मूर्तियाँ और ऊपर से चूना झड़ता हुआ। छत से बूँदों की आवाज़ ऐसे गिर रही थी जैसे समय खुद टपक रहा हो।

“चल... यहाँ से निकलते हैं...” इमरान बोला।

लेकिन जैसे ही उन्होंने पीछे मुड़ना चाहा —

दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया।

धड़ाम।

धूल का गुबार उठा और साथ ही वो हँसी फिर गूंजी — अब और भी साफ।

“यहाँ से कोई नहीं जाता...”

दोनों का खून जम गया।

शकील ने काँपते हाथों से मोबाइल निकाला — लेकिन स्क्रीन काली थी, जैसे उसमें से रोशनी चूस ली गई हो।

वे गलियारे में आगे बढ़े। हर कदम के साथ ऐसा लग रहा था कि दीवारें उनके करीब आ रही हैं। एक जगह फर्श पर कुछ उकेरा हुआ था — पुराने अक्षर, जिनमें खून सूख चुका था।

इमरान झुका और पढ़ने की कोशिश की —

“जो अंदर आया... वह बाहर नहीं गया।”

तभी पीछे से पैरों की आवाज़ आई।

छप... छप... छप...

कोई नंगे पाँव चल रहा था, पर जब दोनों ने पीछे देखा — कोई नहीं था।

अचानक सामने एक बड़ा कक्ष खुला। बीचोंबीच एक पत्थर का चबूतरा और उसके ऊपर एक पुरानी जंजीरें बंधी थीं, जैसे कभी किसी को वहाँ बाँधा गया हो। दीवारों पर अजीब चित्र बने थे — इंसानी आकृतियाँ, जिनकी आँखें काली और मुँह खुले हुए।

"किले के भीतर टूटी सीढ़ियाँ, दीवारों पर खून जैसे निशान और अंधेरे को चीरती हल्की चंद्र रोशनी, जिसमें दोनों दोस्त एक कोने में छिपे हुए हैं।"
"जहाँ इंसान डर से काँपता है, वहीं किले की दीवारें किसी पुराने राज़ को फुसफुसाती हैं।"


शकील की नजर ऊपर गई।

छत के कोने में कुछ लटक रहा था।

जैसे ही उसने टॉर्च जलाकर रोशनी डाली, दोनों की चीख निकल गई।

एक आधा सड़ा हुआ कंकाल उल्टा लटक रहा था, जिसकी आँखें अब भी खुली थीं।

और तभी पूरे क़िले में गूंजने लगी आवाज़ —

दर्द भरी... टूटी हुई...

“वो आए थे भी दोस्त... जैसे तुम आए हो...

और जैसे वे नहीं बचे... वैसे तुम भी नहीं बचोगे...”

इमरान का शरीर काँपने लगा।

“यह क़िला ज़िंदा है...” उसने बुदबुदाया।

अचानक ज़मीन हिलने लगी। पत्थरों के बीच से स्याह धुआँ उठने लगा, और उस धुएँ से एक लंबी परछाईं उभरी — काली, बिना चेहरे की, पर आँखों जैसी दो जलती लपटें।

वही था क़िले का साया।

वही जो सालों से भूखा था।

परछाईं धीरे-धीरे उनके करीब आई। उसकी ठंडी सांसें उनकी त्वचा पर महसूस होने लगीं। हवा भारी और घुटन भरी हो गई।

“तुम मेरी रात का हिस्सा बन चुके हो...”

“अब तुम भी मेरी कहानी हो...”

शकील पीछे हटते हुए चिल्लाया, “भागो!!!”

वे दोनों दौड़े, अंधेरे में टकराते, गिरते, उठते। हर मोड़ पर वही हँसी, वही साया। सीढ़ियाँ उनके पैरों के नीचे खिसक रहीं थीं, दीवारें जैसे साँस ले रहीं थीं।

और फिर...

अचानक एक गहरा गड्ढा।

इमरान का पैर फिसला।

“शकील!!!”

उसकी चीख हवा में घुल गई। उसका शरीर अंधेरे में समा गया, और कुछ सेकंड बाद नीचे से भारी चीज गिरने की आवाज़ आई... फिर सन्नाटा।

शकील अकेला रह गया।

उसने चारों ओर देखा, आँखों में पागलपन उतर चुका था। तभी सामने वही परछाईं खड़ी थी — अब और पास।

“अब बस तुम हो...”

“और यह क़िला...”

शकील उल्टा दौड़ने लगा, सीने में डर की आग, दिल मानो फट जाएगा। उसे दूर एक रोशनी दिखी — शायद बाहर का रास्ता।

वह पूरी ताकत से दौड़ा... लेकिन जैसे ही दरवाज़े के पास पहुँचा, ज़मीन उसके नीचे धँस गई।

काले हाथ मिट्टी और पत्थरों के बीच से निकलकर उसे पकड़ने लगे।

उसकी चीखें क़िले की दीवारों से टकराईं...

“बचाओ!!!”

लेकिन क़िले ने उसे जवाब दिया —

एक गहरी खामोशी।

धीरे-धीरे उसका शरीर अंधेरे में समाता चला गया, जैसे समुद्र लहरों में किसी को निगल ले।

और क़िला फिर शांत हो गया।

बाहर अब सब वैसा ही जैसा पहले। पर वहाँ अब न शकील था, न इमरान। सिर्फ़ दो जोड़ी पैरों के निशान थे जो क़िले तक गए थे... पर लौटे नहीं।

आज भी जब रात गहराती है, उस क़िले से एक हल्की हँसी सुनाई देती है... और लोग कहते हैं—

“क़िला अब भी भूखा है...

और कभी-कभी नए कदमों का इंतज़ार करता है...”


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